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कविता

*’ तपन ‘*

‘ तपन ‘

सुलगती धरती यहाँ पर
तप रहा आकाश है
गर्म हवाओं के थपेड़े
तपन बेहिसाब है

आग बरसी है धरा पर
प्रचंड सूर्य ताप से
झुलसते सब पेड़-पौधे
सूनी दिखती राह है

तीक्ष्ण अनल सूर्य का
या, क्रोध हो इन्सान का
अति होती जब किसी की
हो पीड़ादायक सर्वदा

गहन उष्ण ताप से
बेहाल है हर आदमी
ठौर-ठौर छाँव ढूँढे
पाता नहीं आराम भी

जीव-जन्तु भी यहाँ पर
ग्रीष्म से बेहाल हैं
प्रश्रय मिल जाए कहीं पर
एक बूँद जल की आस है

इस अगन में भी कहीं पर
मजदूर काम कर रहे
ले हथौड़ा हाथ में
अट्टालिका बना रहे

दोहन हुआ अति जल धरा का
पर्यावरण भी क्षरित है
मांगते हैं छाँव तरु से

जिसे काटते हर बार हैं

कुसुम वीर

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