बुद्ध-पूर्णिमा और गौतम बुध* 3
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डॉ डी के गर्ग
निवेदन: ये लेख 6 भागो में है ,पूरा पढ़े / इसमें विभिन्न विद्वानों के द्वारा समय समय पर लिखे गए लेखो की मदद ली गयी है । कृपया अपने विचार बताये।
भाग- 3 –बुद्ध से सम्बंधित कुछ प्रश्नोत्तरी : साभार- विद्यासागर वर्मा ,पूर्व राजदूत
प्रश्न -महात्मा बुद्ध के ब्राह्मण और आर्य सम्बन्धी विचार क्या है ?
i) महात्मा बुद्ध ने जन्मना ब्राह्मण का विरोध किया है । वे ब्राह्मण वाग 396 में कहते हैं :
” न च अहं ब्राह्मणं ब्रूमि
योनिजं माति- सम्भवम्।
भोवादी नाम सो होति
स च होति सकिंञ्चनो।
अकिञ्चनम्-अनादानं
तं अहं ब्रूमि ब्राह्मणम् ।।”
अर्थात् ब्राह्मण माता की योनि से उत्पन्न व्यक्ति को मैं ब्राह्मण नहीं मानता। लोभी व्यक्ति को ब्राह्मण कहना प्रियवचन है। जो त्यागी है, निर्मोही है, उसे मैं ब्राह्मण मानता हूं।
ii) महात्मा बुद्ध की “आर्य ” शब्द की परिभाषा भी वेदानुकूल है।
धम्मत्थ (धर्म- अर्थ) वाग 270 में उन्होंने कहा है :
” न तेन अरियो होति
येन पाणानि हिंसति।
अहिंसा सब्ब-पाणानम्
अरियो ‘ति पवुच्चति ।।”
अर्थात् प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं होता।
जो सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का वर्ताव करता है, वही आर्य कहलाता है। ( वेद में आर्य को ईश्वर-पुत्र कहा गया है। आर्य अन्य ईश्वरपुत्रों को हिंसा कर सकता है ?)
iii) वेद- उपनिषद् का ” आत्मवत् सर्व भूतेषु ” का विमर्श बुद्ध की विचारधारा में सर्वत्र परिलक्षित होता है। दण्ड वाग 129 में स्पष्ट निर्देश है :
” सब्बे तसन्ति दण्डसा
सब्बे भायन्ति मच्चुनो।
अत्तानम् उपमं कृत्वा
न हनेय्य न घातये ।।”
अर्थात् सभी डंडे से डरते हैं;
सभी मृत्यु से डरते हैं।
सभी को अपने समान समझ कर
किसी की हत्या नहीं करनी चाहिए,
चोट नहीं पहुंचानी चाहिए।
iv) महात्मा बुद्ध के विचार एवं शिक्षाएं वेद, उपनिषद् के अनुरूप थीं। उदाहरणार्थ, उनकी मध्यम मार्ग की अवधारणा यजुर्वेद/ ईश उपनिषद्-14 के उपदेश का अनुकरण मात्र है :
” सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेवोभयं सह “
अर्थात् जो अध्यात्म मार्ग को प्रकृति से जोड़ कर चलता है,
मोक्ष को प्राप्त करता है।
v) महात्मा बुद्ध द्वारा निर्देशित चार “आर्य सत्य” तथा “आठ सत्कार्य ” भी योगदर्शन के यम-नियम के रूपान्तर कहे जा सकते हैं।
vi) महात्मा बुद्ध की निबान (निर्वाण/ मुक्ति सुख) की अवधारणा ( दुःखों से छुटकारा) भी सांख्यदर्शन के ” अथ त्रिविध दुःखात् अत्यन्त निवृत्ति अत्यन्त पुरुषार्थ: ” तीनों दुःखों से पूर्णत: मुक्ति, से सामन्जस्य रखती है।
सारांश में, महात्मा बुद्ध ने कोई भी ऐसा संदेश या शिक्षा नहीं दी जिसे वेदविरुद्ध या वेद की निन्दा माना जा सके। अत: इस अर्थ में वे नास्तिक नहीं हैं । वस्तुत: , वे वेद के प्रशंसक थे और वेद को उनके मूल स्वरूप में स्थापित करना चाहते थे।