टुकड़े टुकड़े वामपंथ
भारत में सनातन की चिंता करने वाले को आमतौर पर ‘दक्षिणपंथी’ कहा जाता है। लेकिन यहां की चिंताएं अमेरिका या अफ़्रीका के मूल निवासियों की चिंताओं से अलग नहीं हैं। पश्चिमी सांस्कृतिक, व्यापारिक, धार्मिक दबावों के खिलाफ़ सनतनियों का विरोध उसी तरह का है, जो अमेरिका में रेड-इंडियन या ऑस्ट्रेलिया में एबोरिजनल समुदायों का है। दोनों अपनी संस्कृति का बचाव करना चाहते हैं।
अमेरिका में मूल निवासियों की अपने पवित्र श्रद्धास्थल वापस करने की मांग से वहां वामपंथियों की सहानुभूति है। लेकिन अयोध्या काशी, मथुरा, जैसे महान श्रद्धास्थलों की वापसी की मांग को वामपंथी ‘असहिष्णुता’ बताते देते हैं।
रेड-इंडियनों की संस्कृति में क्रिश्चियन मिशनरियों के दखल का अमेरिकी वामपंथी विरोध करते हैं। पर उन्हीं मिशनरियों के भारत में दूर देहातों, जंगलों में रहने वालों को धर्मांतरित करने के प्रयासों का यहां वामपंथी बचाव करते हैं। उलटे विरोध करने वालों को सज़ा दिलवाना चाहते हैं।
उसी तरह अफ़्रीका, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में इतिहास के पुनर्लेखन की मांग का पश्चिमी वामपंथी समर्थन करते हैं, ताकि विदेशी विजेताओं, मिशनरियों के लिखे इतिहास में सुधार कर देसी और सताए गए लोगों की दृष्टि से इतिहास लिखा जाए। लेकिन भारत में सदियों से सताए गए भारतीय की दृष्टि से इतिहास लिखने के प्रयास को ‘भगवाकरण’ कहकर वामपंथी मज़ाक उड़ाते हैं। वे यहां शरिया शासन की प्रशंसा करने के लिए इतिहास की पोथियों में थोक भाव से झूठ लिखने से नहीं हिचकते।
जिन दलाई लामा और तिब्बतियों को दुनियाभर के वामपंथी प्रेम से आदर-समर्थन देते हैं, वही भारत में वामपंथियों की आलोचना के शिकार होते हैं। भारतीय वामपंथी दलाई लामा को ‘दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी’ कहते हैं, जबकि अमेरिकी वामपंथी उनका सम्मान करते हैं।
इन उदाहरणों से भी भारत में वामपंथ और दक्षिणपंथ विशेषणों की उलटबांसी समझी जा सकती है। सनातनीयों इतिहास और वर्तमान और अरबी लुटेरों के इतिहास और वर्तमान को एक मानदंड से देखने पर सचाई दिखेगी। अभी तक तो पीड़ित और शोषक का मुंह देख-देख कर सारा शोर-शराबा होता है।
दरअसल, अमेरिका, अफ़्रीका, ऑस्ट्रेलिया में मूल धर्म-संस्कृति वाले लोग बहुत कम बचे। यूरोपीय औपनिवेशिक सेनाओं और उनके साथ गए क्रिश्चियन मिशनरियों ने उनका लगभग सफ़ाया कर डाला। उससे हमारा अंतर मात्र यह है कि यहां की मूल धर्म-संस्कृति सदियों से हमले, विनाश, जबरन धर्मांतरण, देश के टुकड़े काट-काट तोड़ने के बाद भी बचे भारत में बहुसंख्यक है। तो क्या सनातन धर्मियों को अपने संघर्ष, दृढ़ता और धर्म-रक्षा का दंड दिया जाना चाहिए? एक जैसी घटनाओं पर दोहरे मानदंड क्यों?
अगर मिशनरियों का अमेरिका, अफ़्रीका में जबरन या छल-कपट से धर्मांतरण कराना ग़लत है, तो वही काम भारत में भी अनुचित है। पर भारतीय वामपंथी अज्ञान या स्वार्थवश यहां की देसी परंपरा को ओछी निगाह से देखते हैं। दुनिया में कहीं वामपंथी ऐसा नहीं करते।
भारत में एक भी सनातन चिंता से वामपंथियों की सहानुभूति नहीं है। उलटे वे विस्तारवादी, देश-विरोधी, हिंदू-विरोधी घोषणाएं करने वाले नेताओं को ‘मायनोरिटी’ कहकर अपना समर्थन देते हैं।
इसलिए भारत में भारतीय धार्मिक हित की बात सताई हुई बहुसंख्यक जाति की आत्म-रक्षा की चिंता है। केवल संख्या के तर्क से इसे असहिष्णु, शोषक नहीं कहा जा सकता। हजार वर्ष का इतिहास यही है कि अल्पसंख्यक समूहों ने ही यहां के राम कृष्ण को मानने वालों का संहार, विध्वंस, शोषण किया।
स्वतंत्र भारत में भी हम ही लांछित और बेआवाज़ रहे। धीरे-धीरे उन्हें संवैधानिक रूप से भी दूसरे दर्ज़े का बना दिया गया। उनकी जायज़ मांगों को भी ठुकराया जाता है। दुर्बल, नेतृत्वहीन होने के कारण उन्हें जो चाहे ठोकर मारता है, जबकि हिंसक, संगठित, साधनवानों की खुली दबंगई की भी अनदेखी होती है।
समाज के रूप में हमआज भी अरक्षित है। व्यापारी, उद्योगपति, लेखक, पत्रकार, यहां तक कि नेता भी व्यक्तिगत रूप से भले ही हम समर्थ, सक्षम दिखते हैं, लेकिन समाज के रूप में उनकी कोई हस्ती, कोई आवाज़ नहीं है। हमारे समाज पर चोट पड़ने पर कोई कुछ नहीं कर पाता। बोलता तक नहीं! जबकि मुस्लिमों, क्रिश्चियनों की बढ़ा-चढ़ाकर या झूठी शिकायत पर भी प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ जाती है।
राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय हेडलाइनें बनती हैं। इसके उलट, हिंदुओं को सामूहिक रूप से मार भगाने, जिंदा जला देने पर भी मृतकों और मारने वालों की धार्मिक पहचान छिपाने की ज़िद रहती है। यह कई बार हुआ है।
शोषण या अन्याय की ठोस कसौटी रखने के बजाए हर घटना में धर्म, समुदाय देखकर हाय-तौबा या उपेक्षा करने का चलन भारत में ही है। यही रेडीमेड सामग्री विदेशी मीडिया भी उठाता है। इसी कारण, भारत में जो भावना ‘दक्षिणपंथी’ कहकर नकार दी जाती है, वही यूरोप, अमेरिका में ‘वंचितों की भावना’ के रूप में सहजता से ली जाती है।
हिंदू धर्म जगज़ाहिर रूप से उदार और बहुलतावादी है। इसमें विविध पंथ और परंपराओं की स्वीकृति है। बिना मुहम्मद को प्रोफेट माने कोई मुसलमान और बिना जीसस को माने क्रिश्चियन नहीं हो सकता। लेकिन किसी भी देवी-देवता या अवतार को स्वीकार किए बिना भी कोई हिंदू हो सकता है। हिंदू धर्म किसी ईश्वर या अवतार पर निर्भर नहीं है।
इसीलिए हिंदू गुरु, संत आदि धार्मिक विविधता के सहज समर्थक रहे हैं। वे किसी एक मत-विश्वास का एकाधिकारी दावा नहीं मानते। क्रिश्चियनिटी और इस्लाम से हमारी चिंता का मुख्य कारण इनकी विस्तारवादी, राजनीतिक योजनाएं हैं। ये हिंदू धर्म-समाज को ख़त्म करने का घोषित सिद्धांत रखते हैं। इसलिए इनका विरोध हमारी धर्म-रक्षा का अंग है। इसे ‘विविधता’ का विरोध कहना ग़लत है।
नोट करें, कि धर्म संबंधी हिंदू विचार भी पश्चिम में वामपंथियों के निकट हैं। अमेरिकी दक्षिणपंथी पूरी दुनिया में धर्मांतरण कराने वाले चर्च-मिशनरी भेजते हैं। वे केवल क्रिश्चियनिटी को सच्चा धर्म मानते हैं। जब हिंदुओं ने कहा कि कैथोलिक चर्च के पोप बयान दें कि सत्य किसी धर्म-मत विशेष का ही एकाधिकार नहीं और बिना क्रिश्चियन बने भी मनुष्य को मुक्ति मिल सकती है, तब हिंदुओं को ही सांप्रदायिक कहा गया। पोप को लिबरल बताया गया, जो हिंदू-बौद्ध परंपराओं को अंधकार-ग्रस्त बताते हैं।
हिंदुओं द्वारा ज्ञान-विज्ञान की खोज के विरोध का इतिहास में कभी कोई उदाहरण नहीं मिलता। किसी मत-विश्वास के लिए विज्ञान का विरोध हिंदू मानसिकता से परे है। हिंदू लोग अध्यात्म और विज्ञान की एकता को ही मानवीय प्रगति का मार्ग मानते हैं।
दरअसल, भारत में वाम और दक्षिण की सारी बातें एकतरफ़ा और पुराने कम्युनिस्ट प्रभाव से ग्रस्त हैं। मार्क्सवादियों ने स्वयं को वामपंथी कहते हुए मनमाने रूप से अपने विरोधियों को ‘दक्षिणपंथी’ कहकर इसे लगभग गाली के तौर पर प्रयोग करना शुरू किया। इसकी परवाह ही नहीं की गई कि कोई व्यक्ति या संगठन अपने को ‘दक्षिणपंथी’ कहा जाना स्वीकार करता है या उसकी बातें ‘राइटिस्ट’ हैं भी या नहीं? यहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बरसों तक अपने प्रतिद्वंद्वी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को ‘दक्षिणपंथी कम्युनिस्ट’ कहती थी!
चूंकि नेहरूजी ने शुरू से मार्क्सवादियों को प्रतिष्ठा दी, इसीलिए उनके राज में स्वतंत्र भारत का विमर्श विकृति का शिकार हो गया। मार्क्सवादी लोग मानो सरकारी बौद्धिक पुरोधा बन गए। उनके मुहावरों, लांछनों को मानकर चलना अकादमिक-राजनीतिक और मीडिया की भी आदत बन गई। तभी आज भी स्तालिन, माओ की तस्वीरें लगाने वाले वामपंथियों को ‘प्रगतिशील’ कहा जाता है, जबकि दोनों ने अपने-अपने देशों में करोड़ों निरीह, निर्दोष लोगों का संहार किया, और समाज को दशकों पीछे धकेल दिया।
दुनियाभर में कम्युनिस्ट राज-सत्ताएं तानाशाही, असहिष्णुता और हिंसा का पर्याय रही हैं। पर भारतीय वामपंथी आज भी उसी व्यवस्था के लिए आहें भरते हैं, जिसने रूस, चीन, पूर्वी यूरोप के अनेक देशों को तबाह किया। साथ ही, हर कहीं आर्थिक जर्जरता भी लाई। उन्हीं नीतियों की नकल में यहां भी नेहरूवादी-वामपंथी नीतियों ने अर्थव्यवस्था, राज्यतंत्र और शिक्षा को बेहिसाब नुकसान पहुंचाया है। यह अब भी जारी है।
हिंदू चिंताओं को ‘दक्षिणपंथी’ कहकर मज़ाक बनाना या निंदा करना उन पर ध्यान देने से रोकने की तकनीक है। भारत में राजनीति, कानून, शिक्षा, इतिहास और धर्म संबंधी विवादों को सरल ‘वाम’ या ‘दक्षिण’ श्रेणियों में बांटकर समझा नहीं जा सकता। ये श्रेणियां यूरोपीय इतिहास की विशेष परिस्थितियों की देन हैं, जिनकी भारतीय परिस्थितियों से कोई समानता नहीं है।
इसलिए यहां मार्क्सवादियों का वाम-दक्षिण काफी कुछ इस्लामियों के मोमिन-काफ़िर जैसी शब्दावली है। इसे भारतीय सभ्यता पर थोपने से कुछ समझ नहीं आ सकता। सच यह है कि भारत में हिंदू आंदोलन मुख्य रूप से अपनी आध्यात्मिक विरासत बचाने और पुनर्जीवित करने की भावना है।
भारतीय समाज, धर्म-संस्कृति और सभ्यता को समझने और इसके लोगों से संवाद करने के लिए ऐसे ही शब्दों, मुहावरों, विशेषणों का प्रयोग होना चाहिए जो यहां की स्थिति पर लागू होते हैं। जिन्हें यहां के लोग जानते, समझते और अनुभव करते हैं। जब तक हम भारतीय जन-जीवन को किन्हीं राजनीतिक या पार्टी-हितों की दृष्टि से देखते रहेंगे, तब तक सामाजिक विमर्श तरह-तरह के विरोध, भ्रम और उलझनों में जकड़ा रहेगा।
– डॉ. शंकर शरण (९ जून २०२०)
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