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(यह लेखमाला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी के वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। )
प्रस्तुति – देवेंद्र सिंह आर्य
(चेयरमेन – ‘उगता भारत’)
गतांक से आगे ….
कारणों से कार्य की उत्पत्ति
उपर्युक्त तीनों कारणों में से पहिला कारण जड़, परमाणुरूप और नियम से परिवर्तित होने वाली प्रकृति है, दूसरा कारण असंख्य, परिच्छिन्न और चेतन जीव हैं और तीसरा कारण व्यापक परिपूर्ण और ज्ञानी परमात्मा है । इन तीनों में से प्रकृति और जीव इस अनन्त सृष्टि को परस्पर सम्बन्ध स्थापित करते हुए नियम में नहीं रख सकते । क्योंकि दोनों अणु, परिच्छिन्न और एकदेशी हैं। यद्यपि समस्त जीव ज्ञानवान् हैं, परन्तु अणु होने से उनमें ज्ञान भी अणुमात्र ही है, इसलिए इस अनन्त जगत् को वे सब मिलकर भी नियम में नहीं रख सकते । इसका नियामक तो परमात्मा ही हो सकता है, जो अपनी अनन्त सत्ता और अनन्त ज्ञान से सर्वत्र व्याप्त है। किन्तु प्रश्न यह है कि परमात्मा इस सृष्टि का नियमन क्यों करता है ?
हम लिख भाये हैं कि इस सृष्टि के तीन कारणों में से एक कारण असंख्य अल्पश जीव भी हैं। ये जीव जब मनुष्यरूप होकर शरीरों को धारण करते हैं तो एकदेशी होने के कारण अपने से भिन्न अन्य पदार्थों की प्राप्ति की इच्चदा से सदैव कुछ न कुछ प्रयत्न किया करते हैं। इनके इस प्रयत्न से परस्पर संघर्ष उत्पन्न होता है और उस संघर्ष से बहुतों को महान् कष्ट होने लगता है। कभी कभी तो इनमें इतने अधिक अत्याचारी मनुष्य उत्पन्न हो जाते हैं कि उनकी सम्मिलित किया से संसार में बहुत बड़े बड़े उथला -पथल हो जाते हैं और सृष्टि में अभूतपूर्व अपवाद उत्पन्न हो जाते हैं तथा अच्छे प्राणियों को घोर यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। ऐसी दशा में अपनी उच्च सभ्यता, न्याय और दया से प्रेरित होकर परमात्मा सृष्टिनियमों की रक्षा करने के लिए और हानिकारकों से हानिवाहकों को बदला दिलाने के लिए विवश होता है। जिस प्रकार दो लड़ते हुए मनुष्यों में एक को अन्याय करते हुए देखकर एक भद्र पुरुष अन्याय करनेवाले से अन्यायप्राप्त का प्रतिफल दिलाकर झगड़ा शान्त करने की कोशिश करता है, ठीक उसी प्रकार दया, धर्म और न्यायस्वरूप परमात्मा भी अत्याचारी जीवों को दण्ड देकर अर्थात् अत्याचार सहनेवालों को प्रतिफल दिलाकर सृष्टिनियमों की रक्षा करता है। यह न्याय वह नाना प्रकार की योनियों को बनाकर करता है और एक योनि से दूसरी कोलचाता है। अर्थात् पूर्वजन्म का प्रतिफल दिलाता है। यही उसके नियामक बनने का कारण है।
इस पर कुछ लोग कहते हैं कि जब यह मालूम होने पर कि अमुक समय में, अमुक स्थान में डाका पड़नेवाला है, साधारण पोलीस तुरन्त ही प्रबन्ध कर लेती है, तो भविष्य में होनेवाले अत्याचारों का परमात्मा क्यों नहीं प्रबन्ध कर लेता ? इसका उत्तर यही है कि मनुष्य की बुद्धि सदैव परिर्वार्तत होती रहती है। चोर चोरी करने के लिए चलता है, पर कभी बीच ही से लौट आता है। ऐसी सूरत में यदि इरादा करते ही अथवा चोरी के लिए चलते ही सजा दे दी जाय, तो अन्याय ही कहा जायगा। क्योंकि इरादे की सजा नहीं होती। यदि कोई करोड़ रुपये के दान का इरादा करें, तो क्या उसको दान का फल इतने ही से मिल जायगा ? कभी नहीं। इसीलिए कर्म कर चुकने पर ही फल की व्यवस्था करना उचित है। रहा यह कि परमात्मा जीवों को बुरे कर्मों की चेष्टा से ही क्यों नहीं जुदा कर देता ? तो इसका उत्तर स्पष्ट है कि प्रथम तो स्वाभाविक चेतन जीव ऐसे निश्चष्ट हो ही नहीं सकते, दूसरे यदि परमेश्वर जीवों की वृत्तियों के साथ साथ उनको दबाता फिरे तो स्वयं वही महान् संकट में पड़ जाय, जिसे परमात्मा तो क्या कोई मूर्ख मनुष्य भी मंजूर नहीं कर सकता। इसलिए कर्म के पूर्व ही फल दे देना या कर्म करने को ही रोकते फिरना युक्तिसंगत नहीं है। युक्ति और श्याय के अनुसार यही है कि जीव स्वतन्त्रता से कर्म करें और ईश्वर स्वतन्त्रता से उनका न्याय करे। यही आज, तक होता आया है और यही संसार की उत्पत्ति का प्रधान कारण है और ईश्वर की सर्वत्र व्यापकता का पूर्ण प्रमाण है।
परमेश्वर की इस सर्वत्र व्यापकता पर कुछ लोग यह भी प्रश्न करते हैं कि जब परमात्मा इस अनन्त आकाश में फैले हुए असंख्य जीवों का त्याय करता है, तो क्या वह अपनी लम्बाई चौड़ाई को जानता है? क्या वह जानता है कि मैं कहाँ तक फैला हुआा है ? इस प्रश्न का इतना ही उत्तर है कि जिस प्रकार जीव अत्यन्त छोटा है, पर अपनी छोटाई को ठीक ठीक नहीं जानता कि मैं कितना छोटा हूँ, उसी तरह परमात्मा बहुत बड़ा है, पर अपनी बड़ाई का अन्त वह भी नहीं जानता कि में कितना "डा हूँ। क्योंकि अपने आपके जानने में सब अल्पश ही होते हैं। जैसे आँख अपने आपके देखने और जानने में असमर्थ है, उसी तरह जीव और परमेश्वर भी अपनी छोटाई और बढ़ाई जानने में असमर्थ हैं। इसलिए अपने आपकी पूरी मर्यादा का पूर्ण ज्ञान न होना अपने अभाव की दलील नहीं है। क्योंकि जब जीव अपनी छोटाई को न जानता हुआ भी है और अपने आपके भाव को जानता है और जब ऑल अपने आपको न देखती हुई भी है और अपने भाव को जानती है, तब परमात्मा भी अपनी अनन्तता को जानता हुद्मा भी है और अपने भाव को जानता है।
तात्पर्य यह है कि जो चीज जैसी होती है, वह वैसी ही प्रतीत होती है। जैसे जीव अत्यन्त छोटा है, पर वह अपनी अत्यन्त छोटाई को नहीं जान सकता । यदि जान ले तो अत्यन्त छोटाई ही न रहे। इसी तरह परमात्मा अनन्त है, यदि अनन्तता को जान ले तो उसकी अनन्तता ही न रहे, प्रत्युत सान्तता आ जाय। इसलिए अपने आपके पूर्ण ज्ञान के न होने से अपने आप में कोई अन्तर नहीं आ सकता। परमात्मा अनन्त है और अनन्तता से सर्वत्र व्यापक होकर सब जीवों की न्याय व्यवस्था करता है, करता रहा है और करता रहेगा। यही सृष्टि के कारणों और उनके नियमों का दिग्दर्शन है। इसके आगे अब यह दिखलाने का यत्न करते हैं कि यह सृष्टि किस प्रकार बनी ?
नोट – अगले अंक में हम बात करेंगे – जड़ सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में
क्रमशः