कश्मीर के भारत संघ के साथ विलीनीकरण की प्रक्रिया का काम देश के पहले उपप्रधानमंत्री और लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने संपन्न किया । उनके प्रयास से सारा देश एकीकरण की प्रक्रिया को अपनाकर एकता के सूत्र में आबद्ध हो गया , परंतु नेहरू जी ने प्रधानमंत्री के रूप में यह स्पष्ट कर दिया कि कश्मीर को वह अपने ढंग से ही भारत के साथ मिलने के लिए तैयार करेंगे । नेहरू जी ने कश्मीर समस्या को सरदार पटेल के हाथों से क्या लिया , यह समस्या हमारे लिए नासूर बन गई । कश्मीर समस्या विश्व की संभवत सबसे बड़ी ऐसी ज्वलंत समस्या है , जिसको लेकर दो देशो में अब तक चार युद्ध हो चुके हैं । पाकिस्तान के साथ भारत 1948 , 1965 , 1971 व 1999 में चार बड़े युद्ध लड़ चुका है । यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि जो लोग कश्मीर में आतंकवाद के लिए उत्तरदायी रहे हैं , उन पर भारत की सरकार अब तक उनकी सुरक्षा के नाम पर बड़ी धनराशि व्यय करती रही है । यह धर्मनिरपेक्ष भारत में ही संभव है कि यहां नागों को भी दूध पिलाना अच्छा माना जाता है ।
फलस्वरूप नागों ने अपना काम किया और उन्होंने कश्मीर की केसर की क्यारी का केसर उत्पादन बंद कर वहां पर बारूद पैदा करनी आरंभ कर दी और हर क्यारी में इतने सपोले छोड़ दिए कि आज देश की सेना को सपोला विहीन अर्थात आतंकवाद मुक्त कश्मीर करने के लिए बहुत बड़ा ऑपरेशन करना पड़ रहा है । इतना ही नहीं देश इस समय कश्मीर को लेकर होने वाले पांचवे युद्ध के मुहाने पर खड़ा है । कश्मीर समस्या आजादी के बाद उभरे भारत के नेतृत्व के पाप और अपराधों का स्मारक है। इसके पीछे पहले दिन से ही वह सोच काम करती रही है कि गजवा ए हिंद के आधार पर भारत को एक दिन इस्लाम के रंग में रंगना है । इसी सोच के अंतर्गत कश्मीर को भी हिंदू विहीन करने का षडयंत्र रचा गया । जिसे देश की नपुंसक बनी सरकारें सहन करती रहीं और उन्होंने अपने ही देश में अपने ही लोगों को शरणार्थी बनने पर विवश कर दिया । दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो यह मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि की समस्या है। इसे समझने के लिए डा. पीटर हैमंड द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘स्लेवरी, टेरेरिज्म एंड इस्लाम, दि हिस्टोरिकल रूट्स एंड कन्टैम्पेरेरी थ्रैट’ का अध्ययन बहुत उपयोगी है। इसके बारे में अंग्रेजी साप्ताहिक उदय इंडिया (17.7.2010) ने बहुत तथ्यात्मक विवरण प्रकाशित किया है। इसमें लेखक ने बताया है कि जनसंख्या वृद्धि से मुस्लिम मानसिकता कैसे बदलती है ?लेखक ने स्पष्ट किया है कि जिस देश में मुस्लिम जनसंख्या दो प्रतिशत से कम होती है, वहां वे शांतिप्रिय नागरिक बन कर रहते हैं। अमरीका 0.7 प्रतिशत , ऑस्ट्रेलिया 1.5 प्रतिशत , कनाडा 1.9 प्रतिशत, चीन 1.8 प्रतिशत , इटली 1.5 प्रतिशत , नोर्वे 1.8 प्रतिशत ऐसे ही देश हैं। अपनी इतनी जनसंख्या तक रहते हुए प्रत्येक मुस्लिम वहां के मूल समाज को यह एहसास कराता है कि इस्लाम वास्तव में शांति का मजहब है और वह किसी के भी अधिकारों का अतिक्रमण करना किसी भी स्थिति परिस्थिति में नहीं चाहता । इस्लाम के लिए या उसके मानने वालों के लिए अपनी इतनी जनसंख्या तक के क्षेत्र में काम करना इसी नीति के अंतर्गत संभव है । इससे दूसरे लोग इस झांसे में आते हैं कि इस्लाम वास्तव में शांति का मज़हब हैं और वे इसे अपनाने लगते हैं ।
वास्तव में विपरीत धर्मी इस्लाम को मानने लगे – यही तो इस्लाम के मानने वालों का अंतिम लक्ष्य है । इसके लिए वह अपनी डेढ़ दो प्रतिशत तक की जनसंख्या वाले क्षेत्रों में इसी नीति के आधार पर सफल होते हैं । चीन के जिन प्रान्तों में मुसलमान उपद्रव करते हैं, वहां उनकी संख्या इस प्रतिशत से बहुत अधिक होने से वहां उनकी मनोवृत्ति बदल जाती है। जैसे ही कहीं मुस्लिम जनसंख्या दो से पांच प्रतिशत के बीच होती है तो वहाँ पर मुस्लिम स्वयं को अलग समूह मानते हुए अन्य अल्पसंख्यकों को धर्मान्तरित करने लगते हैं। इसके लिए वे जेल और सड़क के गुंडों को अपने दल में भर्ती करते हैं। लेखक का मानना है कि निम्न देशों में यह काम जारी है: डेनमार्क 2 प्रतिशत , जर्मनी 3.7 प्रतिशत , ब्रिटेन 2.7 प्रतिशत ,स्पेन 4 प्रतिशत तथा थाइलैंड 4.6 प्रतिशत ।जैसे ही मुस्लिम लोग किसी भी देश में 5% से अधिक होते हैं तो वहां पर यह धीरे – धीरे उपद्रव की ओर बढ़ने लगते हैं । उपद्रव की ओर बढ़ने से पहले यह लोग अपने लिए कुछ अधिकारों की मांग करते हैं । निश्चित है कि जब पहले से उस मूल समाज में रहते हुए इन्हें किसी प्रकार के अधिकारों की आवश्यकता नहीं थी तो यदि अब अचानक इनको अपने अधिकारों की आवश्यकता पड़ी तो यह अधिकार वही हैं जिन्हें वह धार्मिक आधार पर अपने लिए मांगना चाहते हैं , अर्थात् अब वह शरीयत की बात और शरीयत के आधार पर अपने अधिकारों को पाने की बात करने लगते हैं ।जैसे हलाल मांस बनाने, उसे केवल मुसलमानों द्वारा ही पकाने और बेचने की अनुमति। वे अपनी सघन बस्तियों में शरीया नियमों के अनुसार स्वशासन की मांग भी करते हैं। निम्न देशों का परिदृश्य यही बताता है। फ्रांस 8 प्रतिशत , फिलीपीन्स 5 प्रतिशत , स्वीडन 5 प्रतिशत, स्विटजरलैंड 4.3 प्रतिशत , नीदरलैंड 5.5 प्रतिशत , ट्रिनीडाड एवं टबागो 5.8 प्रतिशत ।मुस्लिम जनसंख्या 10 प्रतिशत के निकट होने पर वे बार-बार अनुशासनहीनता, जरा सी बात पर दंगा तथा अन्य लोगों और शासन को धमकी देने लगते हैं। गुयाना 10 प्रतिशत , भारत 13.4 प्रतिशत , इसराइल 16 प्रतिशत , , केन्या 10 प्रतिशत , रूस 15 प्रतिशत आदि में उनके पैगम्बर की फिल्म, कार्टून आदि के नाम पर हुए उपद्रव यही बताते हैं।20 प्रतिशत और उससे अधिक जनसंख्या होने पर संबंधित देश के लिए मानो आफत आ जाती हैं । इसके पश्चात वहां पर दंगे होना या वहां के मूल समाज के लोगों को उत्पीड़ित करना मुस्लिमों के स्वभाव में सम्मिलित हो जाता है । ऐसी उत्त्पीड़नात्मक कार्यवाही वह इसलिए भी करते हैं कि वे लोग अपने घर घेर जमीन जायदाद को छोड़कर चले जाएं या सस्ते से सस्ते मूल्य में उन्हें इन्हीं को दे जाएं ।
इसके अतिरिक्त अब ये लोग ऐसे क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की बहु बेटियों का अपहरण करने या उनके साथ दुर्व्यवहार भी करने लगते हैं । प्रायः दंगों और छुटपुट हत्याओं का दौर चलने लगता है। जेहाद, आतंकवादी गिरोहों का गठन, अन्य धर्मस्थलों का विध्वंस जैसी गतिविधियां क्रमशः बढ़ने लगती हैं। इथोपिया 32.8 प्रतिशत का उदाहरण ऐसा ही है। 40 प्रतिशत के बाद तो खुले हमले और नरसंहार प्रारम्भ हो जाता है। बोस्निया 40 प्रतिशत, चाड 53.1 प्रतिशत तथा लेबनान 59.7 प्रतिशत में यही हो रहा है।60 प्रतिशत जनसंख्या होने पर इस्लामिक कानून शरीया को शस्त्र बनाकर अन्य धर्मावलम्बियों की हत्या करना साधारण सी बात हो जाती है। उन पर जजिया जैसे कर थोप दिये जाते हैं। यहां अल्बानिया 70 प्रतिशत, मलयेशिया 60.4 प्रतिशत , कतर 77.5 प्रतिशत तथा सूडान 70 प्रतिशत का नाम उल्लेखनीय है।80 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम जनसंख्या अन्य लोगों के लिए कहर बन जाती है। अब वे मुसलमानों की दया पर ही जीवित रह सकते हैं। शासन हाथ में होने से शासकीय शह पर जेहादी हमले हर दिन की बात हो जाती है। बांग्लादेश 83 प्रतिशत, इजिप्ट 90 प्रतिशत , गजा 98.7 प्रतिशत , इंडोनेशिया 86.1 प्रतिशत , ईरान 98 प्रतिशत , इराक 97 प्रतिशत , जोर्डन 92 प्रतिशत , मोरक्को 98.7 प्रतिशत , पाकिस्तान 97 प्रतिशत फिलीस्तीन 99 प्रतिशत , सीरिया 90 प्रतिशत , ताजिकिस्तान 90 प्रतिशत , तुर्की 99.8 प्रतिशत , तथा संयुक्त अरब अमीरात 96 प्रतिशत इसके उदाहरण हैं।100 प्रतिशत जनसंख्या का अर्थ है दारुल इस्लाम की स्थापना। अफगानिस्तान, सऊदी अरब, सोमालिया, यमन आदि में मुस्लिम शासन होने के कारण उनका कानून चलता है। मदरसों में कुरान की ही शिक्षा दी जाती है। अन्य लोग यदि नौकरी आदि किसी कारण से वहां रहते भी हैं, तो उन्हें इस्लामी कानून ही मानना पड़ता है। इसके उल्लंघन पर उन्हें मृत्युदंड दिया जाता है।इस विश्लेषण के बाद डा. पीटर हैमंड कहते हैं कि शत-प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या होने के बाद भी वहां शांति नहीं होती।
क्योंकि अब वहां कट्टर और उदार मुसलमानों में खूनी संघर्ष छिड़ जाता है। भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि ही आपस में लड़ने लगते हैं। कुल मिलाकर मुस्लिम विश्व की यही व्यथा कथा है।यदि हम अपनी ऋषि भूमि कश्मीर के बारे में विचार करें और इन तथ्यों के आधार पर कश्मीर को कसौटी पर कस कर देखें तो पता चलता है कि कश्मीर भी मुस्लिम सोच रखने वाले लोगों की इसी प्रकार की मनोवृति का शिकार हुआ है ।पूरे भारत में मुस्लिम जनसंख्या भले ही 13.4 प्रतिशत हो; पर घाटी में तो 90 प्रतिशत मुसलमान ही हैं। यह सारे मुसलमान पूर्व में दो ही रहे हैं इसके उपरांत भी इनका अपने हिंदू स्वरूप के प्रति कोई लगाव नहीं है ।
यद्यपि भारत की गुर्जर जैसी जातियों के साथ इनमें से कई लोग अपना समन्वय स्थापित करने का प्रयास करते हैं और कहते हैं कि हम भी पूर्व में गुर्जर ही रहे हैं , परंतु दुख उस समय होता है जब यह अपने स्वार्थ के लिए तो गुर्जर को साथ लगाना चाहते हैं , पर जो गुर्जर या कश्मीरी पंडित कश्मीर से भगा दिए गए हैं उनके बारे में यह एक बार भी आवाज नहीं लगाते कि आप कश्मीर लौटिये , हम आपके पुनर्वास में आपका साथ देंगे । बात साफ है कि वह कश्मीर छोड़ कर भाग गए कश्मीरी पंडितों को साथ लगाने या साथ रखने के लिए तैयार नहीं हैं। यदि वहां के लोगों का भारत के साथ लगाव है और वह मानते हैं कि भारत हमारा देश है , तो उन्हें इस अन्याय का भी प्रतिकार करना चाहिए कि जम्मू कश्मीर विधानसभा की सीटों के सीमांकन में हिंदुओं के साथ उत्पीडनात्मक कार्यवाही की गई है । वह इस बात की भी घोषणा नहीं करते कि जम्मू कश्मीर की विधानसभा में हिंदुओं को उनकी जनसंख्या के अनुसार उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए । वह ऐसा इसलिए नहीं करते हैं क्योंकि वह चाहते हैं कि कश्मीर का मुख्यमंत्री हमेशा मुस्लिम ही बने ।
हिन्दू बहुल जम्मू की अपेक्षा मुस्लिम बहुल कश्मीर से अधिक विधायक चुने जाते हैं, जो सब मुसलमान होते हैं। वहां मुख्यमंत्री सदा मुसलमान ही होता है। शासन-प्रशासन भी लगभग उनके हाथ में होने से जम्मू और लद्दाख की सदा उपेक्षा ही होती है। 1947 से यही कहानी चल रही है।दुनिया के कई देशों में ऐसी समस्याओं ने समय-समय पर सिर उठाया है। चीन, जापान, रूस, बर्मा, बुलगारिया, कम्पूचिया, स्पेन आदि ने इसे जैसे हल किया, वैसे ही न केवल कश्मीर वरन पूरे देश की मुस्लिम समस्या 1947 में हल हो सकती थी। 1971 में बांग्लादेश विजय के बाद भी ऐसा परिवेश बना था; पर हमारे धर्मनिरपेक्ष शासकों ने वे सुअवसर गंवा दिये। इस समस्या के समाधान के लिए सरकार को कड़ाई का प्रदर्शन करना पड़ेगा । जहां- जहां से कश्मीरी पंडितों को भगाया गया है वहां – वहां पर पूर्व सैनिकों को ले जाकर बसाना होगा । साथ ही हमारे इस सर्वश्रेष्ठ राज्य पर लागू धारा 370 और 35 ए को तुरंत निरस्त किया जाए । जो लोग कश्मीर में पत्थरबाजों का समर्थन करते हैं या जो लोग हाथ में पत्थर लेकर हमारी सेना पर बरसाते हैं , उन सभी को आतंकवादी माना जाए । उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाए जैसे देशद्रोहियों के साथ किया जाता है ।
इसके अतिरिक्त यहां पर यह भी बात ध्यान रखने योग्य है कि एक नेता पर कोई व्यक्ति यदि सड़ा टमाटर फेंक दे तो उसको तुरंत गिरफ्तार कर जेल भेजा जाता है और उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही की जाती है । जबकि हमारे सैनिकों पर जो लोग पत्थर फेंकते हैं उनके लिए सार्वजनिक माफी की बात की जाती है। जो लोग या जो राजनीतिक दल या उनके नेता पत्थरबाजों को सार्वजनिक माफी दिला कर माफ करने की बात करते हैं , उनको भी देशद्रोहियों और आतंकवादियों का समर्थक होने के नाते निपटाने की तैयारी की जाए। कश्मीर समस्या के जानकार यह भी मानते हैं कि कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित करने वाले सौ-दो सौ लोगों को गोली मार कर उनकी लाश यदि चौराहे पर लटका दें, तो आधी समस्या एक सप्ताह में हल हो जाएगी। हम अब्राहम लिंकन को याद करें, जिन्होंने गृहयुद्ध स्वीकार किया; पर विभाजन नहीं। इस गृहयुद्ध में लाखों लोग मारे गये; पर देश बच गया। इसीलिए वे अमरीका में राष्ट्रपिता कहे जाते हैं।समाधान का दूसरा पहलू है कश्मीर घाटी के जनसंख्या चरित्र को बदलना। यह प्रयोग भी दुनिया में कई देशों ने किया है। तिब्बत पर स्थायी कब्जे के लिए चीन यही कर रहा है। चीन के अन्य भागों से लाकर इतने चीनी वहां बसा दिये गये हैं कि तिब्बती अल्पसंख्यक हो गये हैं। ऐसे ही हमें भी पूरे भारत के हिन्दुओं को, नाममात्र के मूल्य पर खेतीहर जमीनें देकर घाटी में बसा देना चाहिए। पूर्व सैनिकों के साथ ही ऐसे लोगों को वहां भेजा जाए, जो स्वभाव से जुझारू और शस्त्रप्रेमी होते हैं। सिख, जाट, गूजर आदि ऐसी ही जातियां हैं। ऐसे दस लाख परिवार यदि घाटी में पहुंच जाएं, तो वे स्वयं ही अलगाववादियों से निबट लेंगे।कश्मीर भारत का मुकुटमणि है।
डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बलिदान देकर ‘दो विधान, दो प्रधान और दो निशान’ के कलंक को मिटाया था। मेजर सोमनाथ शर्मा जैसे हजारों वीरों ने प्राण देकर पाकिस्तान से इसकी रक्षा की है। क्या उनका बलिदान हम व्यर्थ जाने देंगे ? अब इस समय देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से देश की जनता को बहुत बहुत अपेक्षाएं हैं ।जबकि पाकिस्तान पोषित आतंकवाद के कारण हमारे 40 से अधिक जवान शहीद हो चुके हैं तो उनका बलिदान भी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए । 40 के बदले यदि 40000 भी मार ने पड़े और उनके मरने के बाद एक बार अपनी कश्मीर सुरक्षित हो जाए तो इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए ।अब वार्ता नहीं होनी चाहिए । पाकिस्तान के झांसे में आने का अभिप्राय है अपने आप को दुर्बल सिद्ध करना या अपने आप को मेमना बनाकर भेड़िया के सामने डाल देना । अब पाकिस्तान को पता लगना चाहिए कि शेर जाग चुका है और शेर का शेरत्व उसके विनाश के लिए दहाड़े मार रहा है ।हमें अपनी सेना पर भरोसा है अपने सैनिकों की वीरता और पुरुष पर भरोसा है ।अतः देर नहीं होनी चाहिए।
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