आपातकाल के दौरान जनता पर किए गए अत्याचारों से खिन्न भारत का मतदाता कांग्रेस के विरुद्ध हो चुका था। इंदिरा गांधी ने यद्यपि पांचवी लोकसभा का कार्यकाल 1 वर्ष बढ़ा लिया था परंतु अंत में उन्हें जनमत के सामने झुकना पड़ा और देश में आम चुनाव की घोषणा कर दी गई। 16 से 20 मार्च 1977 के बीच आयोजित किए गए छठी लोकसभा के चुनाव परिणाम बहुत ही चौंकाने वाले आए। पहली बार कांग्रेस को देश के मतदाताओं ने सत्ता से दूर कर दिया। स्वाधीनता के मात्र 30 वर्ष पश्चात लोगों ने देश में फिर एक क्रांति होते हुए देखी। देश के तत्कालीन विपक्षी नेताओं ने 21 महीने की जेल काटकर जब आजादी की खुली हवाओं में सांस ली तो उन्होंने भी देश के मतदाताओं का यही कहकर आवाहन किया कि वह दूसरी आजादी के लिए लड़ाई लड़ें।
देश में हो गई एक नई क्रांति
24 मार्च को चुनाव परिणाम आने पर यह बात स्पष्ट हो गई कि देश के लोग सचमुच एक नई क्रांति की बाट जोह रहे थे। यही कारण रहा कि उन्होंने छठी लोकसभा के चुनाव को ऐतिहासिक बना दिया। जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को लोकसभा की 345 सीटें प्राप्त हो गईं। कांग्रेस का लोगों ने सफाई कर दिया। पिछली लोकसभा में कांग्रेस भारी बहुमत के साथ सत्ता में थी। इस बार लोगों ने पिछली लोकसभा में कांग्रेस की सीटों के मुकाबले पार्टी की 233 सीटें छीनकर उसकी शक्ति को बहुत कम कर दिया। छठी लोकसभा के चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि लोकतंत्र में जनता जनार्दन होती है। यदि कोई शासन जनता जनार्दन की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करेगा तो जनता उसे और अर्श से फर्श पर लाने में देर नहीं करेगी। लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती ही यह है कि वह जनता जनार्दन के मत का सम्मान करता है। उसे शासन और शासक की नियुक्ति के लिए मतदाता के रूप में भगवान बनाकर उसकी पूजा करता है।
जनता पार्टी के गठबंधन ने मोरारजी देसाई को अपना नेता चुना। 82 वर्ष की अवस्था में मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने। मोरारजी देसाई पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद से ही अपने आप को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी मानते चले आ रहे थे। इस प्रकार छठी लोकसभा के चुनाव के परिणामों ने उनके चिर प्रतीक्षित सपने को साकार कर दिया। अतः छठी लोकसभा का चुनाव ऐतिहासिक चुनाव था, जिसने भारतीय राजनीति को नई दिशा दी। एक पार्टी के शासन का अंत किया और लोगों को नया सोचने और नया करने के लिए नया अवसर प्रदान किया। छठी लोकसभा चुनाव के समय 542 सीटें थीं।
मोरारजी देसाई बने देश के नए प्रधानमंत्री
देश की दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही जनसंख्या के चलते छठी छठी लोकसभा के चुनावों के समय भारत में कुल 32 करोड़ 11 लाख 74 हजार 327 मतदाता थे। चुनाव के समय 60.49 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। जनता पार्टी को 7 करोड़ 80 लाख 62 हजार 828 मत प्राप्त हुए। इस प्रकार जनता पार्टी ने निर्णायक मत लेकर निर्णायक जीत प्राप्त की। कांग्रेस उस समय दक्षिण भारत में ही अपना अस्तित्व बचा पाई थी। चुनाव परिणाम पूर्णतया जनता पार्टी के पक्ष में थे। जिनके पश्चात 24 मार्च को मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण की।
इससे पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी 1977 को देश में नए चुनाव कराने की घोषणा की थी।
यह अच्छी बात थी कि प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जनमत के सामने झुकीं और उन्होंने लोकतंत्र को फिर से स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण निर्णय लिया। उन्होंने अनेक राजनीतिक कैदियों को भी रिहा कर दिया। जिससे उन्हें चुनाव लड़ने का अवसर प्राप्त हो गया। इसके उपरांत भी अनेक लोग ऐसे थे जो चुनाव घोषित हो जाने के उपरांत भी जेल में पड़े हुए थे। ये लोग जेल से तभी बाहर आ सके थे जब इंदिरा गांधी के स्थान पर मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने।
छठी लोकसभा के चुनाव में जनता की भूमिका
देश की छठी लोकसभा के चुनावों के बारे में कहा जाता है कि ये चुनाव उस समय देश की जनता ने लड़े थे। जनता स्वयं जनता पार्टी की पैरोकार हो गई थी, स्वयं जनता पार्टी के प्रत्याशियों के लिए वोट मांग रही थी और स्वयं ही वोट दे रही थी। 1977 में लगा था कि अब्राहम लिंकन की प्रजातंत्र के बारे में दी गई वह परिभाषा चरितार्थ हो गई थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रजातंत्र शासन की वह प्रणाली है जो जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन निर्धारित करती है।
देश के विपक्षी दलों को चुनाव प्रचार करने का उचित समय नहीं मिला था। उनकी कोई तैयारी नहीं थी । इंदिरा गांधी ने उन्हें जेल से अचानक छोड़कर अपने आप को लोकतांत्रिक दिखाने का नाटक किया था। उनकी मान्यता थी कि जब विपक्षी नेताओं को चुनाव की तैयारी का समय ही नहीं मिलेगा तो वे जनता से सीधा संवाद स्थापित नहीं कर पाएंगे। ऐसी स्थिति में जनता उन्हें ही दोबारा सरकार बनाने का जनादेश दे देगी।
यह सच था कि विपक्षी नेताओं के आर्थिक संसाधन भी बहुत सीमित थे। यह एक अच्छी बात थी कि जनता पार्टी के प्रत्याशियों के समर्थन में देश के मतदाता पहले से ही मन बना चुके थे। लोगों ने इस बात की प्रतीक्षा नहीं की कि कोई विपक्षी नेता उनके पास आए, सभा करे,उनको संबोधित करे और उनसे वोट मांगे। देश के बहुसंख्यक मतदाताओं के मन मस्तिष्क में ‘इंदिरा हटाओ देश बचाओ’ का विचार जड़ जमा चुका था। उन्हें इंदिरा गांधी के विकल्प की खोज थी।
पांच दलों ने बनाया अपना गठबंधन
18 जनवरी को चुनावों की घोषणा हुई और उसके दो दिन बाद अर्थात 20 जनवरी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (संगठन) , भारतीय जनसंघ , भारतीय लोक दल और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने जनता पार्टी का गठन किया। सबने एक ही झंडा और एक ही एजेंडा पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। देश के मतदाताओं ने इस नई पार्टी का स्वागत किया। जनता पार्टी ने भारतीय लोक दल को आवंटित किए गए चुनाव चिह्न का उपयोग मतपत्रों पर अपने चुनाव चिह्न के रूप में किया। चुनाव की घोषणा के पश्चात इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आर) की सरकार में कृषि और सिंचाई मंत्री रहे बाबू जगजीवन राम ने साहसिक निर्णय लेते हुए फरवरी के पहले सप्ताह में पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। इसी प्रकार बाबू जगजीवन राम का अनुकरण करते हुए हेमवती नंदन बहुगुणा और नंदिनी सतपथी भी कांग्रेस का साथ छोड़कर जनता पार्टी के साथ आकर खड़े हो गए।
मुद्दा था – लोकतंत्र होगा या तानाशाही
अटल बिहारी वाजपेई जैसे कुशल वक्ताओं ने देश के मतदाताओं के समक्ष अपने ओजस्वी भाषण दिए । जिन्हें सुनकर लोगों की पूर्ण सहानुभूति जनता पार्टी के साथ जुड़ गई।
चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेई और उन जैसे अनेक नेताओं ने लोगों को नसबंदी जैसे अत्याचारों की याद दिलाते हुए जेलों में अपने साथ हुए अमानवीय अत्याचारों की कहानी सुनाई तो देश के मतदाताओं के रोंगटे खड़े हो गए। उस समय देश के चुनाव ‘लोकतंत्र होगा या तानाशाही’ के मुद्दे पर लड़े गए। यद्यपि उस समय देश के मतदाता बहुत अधिक शिक्षित नहीं थे , परंतु इसके उपरांत भी लोगों ने लोकतंत्र के समर्थन में मतदान किया। चुनाव परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया कि देश में लोकतंत्र ही रहेगा और तानाशाही को देश का मतदाता सहन नहीं कर सकता। देश के मतदाताओं ने लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करते हुए देश के शासन की बागडोर जनता पार्टी के हाथों में सौंप दी। इस प्रकार जिस काम को विदेशों में ‘बुलेट’ से किया जाता है, उसे भारतवर्ष के लोगों ने बैलट’ के माध्यम से कर एक बड़ी क्रांति को संपन्न कर दिया।
छठी लोकसभा के चुनावों पर 23 करोड़ रूपया सरकारी स्तर पर खर्च हुआ था।
छठी लोकसभा के पदाधिकारी
छठी लोकसभा के स्पीकर के रूप में नीलम संजीवा रेड्डी 26 मार्च 1977 से 13 जुलाई 1977 तक कार्य करते रहे। इसके पश्चात जब वह राष्ट्रपति चुनाव में विजयी होकर देश के राष्ट्रपति बन गए तो उनके पश्चात के0एस0 हेगड़े 21 जुलाई 1977 से 21 जनवरी 1980 तक इस पद पर कार्यरत रहे। डिप्टी स्पीकर के रूप में गोडे मुराहारी 1 अप्रैल 1977 से 22 अगस्त 1979 तक और फिर 1 अप्रैल 1977 से 22 अगस्त 1979 तक कार्यरत रहे। जबकि प्रधान सचिव के रूप में अवतार सिंह रिखी 18 जून 1977 से 31 दिसंबर 1983 तक कार्य करते रहे।
जनता पार्टी सरकार की विडंबना
मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी की नई सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि यह विभिन्न राजनीतिक दलों के कुनबा को जोड़कर बनाई गई जनता पार्टी की सरकार थी। जिसमें विभिन्न प्रकार की महत्वाकांक्षाएं एक साथ समायोजित करने का अतार्किक प्रयास किया गया था। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि विभिन्न महत्वाकांक्षी लोग एक साथ चलकर लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं । जब महत्वाकांक्षाओं के सिर भिड़ते हैं तो सचमुच अनर्थ हो जाता है। एक म्यान में दो तलवार नहीं रखी जा सकतीं। कहना न होगा कि एक ही झंडा के तले कई महत्वाकांक्षी लोग भी नहीं चल सकते। एक झंडा का होना इस बात की गारंटी नहीं देता कि सब एकमत भी होंगे।
एक झंडा के नीचे एक एजेंडा पर काम करना इस बात की गारंटी हो सकता है कि सब एकमत हैं। यह एकमत होना ही विचार शक्ति बनकर लोगों को अपने लक्ष्य तक पहुंचाता है। जब यह विचार शक्ति बिखर जाती है तो दल भी बिखर जाते हैं और दिल भी बिखर जाते हैं। इसलिए विचार शक्ति का बंधा हुआ स्वरूप ही दल, दिल और देश को मजबूती देता है।
किसी भी परिवार, समाज , दल और राष्ट्र का एक मजबूत नेता विचार शक्ति को बिखरने नहीं देता। इसीलिए यह देखा जाता है कि प्रगति जहां होती है वहां एक विचार शक्ति के प्रतीक एक नेता के नेतृत्व में होती है। यदि किसी बाध्यता के चलते लोग एक झंडा के तले आ भी जाते हैं तो वह लक्ष्य तक कभी नहीं पहुंच सकते। बस, यही जनता पार्टी के साथ हुआ। जनता पार्टी के विभिन्न घटक दलों के नेताओं के भीतर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में काम करना पहले दिन से ही घुटन भरा अनुभव होने लगा था।
वे नहीं चाहते थे कि मोरारजी देसाई के नेतृत्व में उन्हें काम करना पड़े। ऐसी मानसिकता के नेताओं ने सरकार को चलाना तो आरंभ कर दिया पर यह सरकार अपने ही बोझ को ढोते – ढोते टूटन की कगार तक जा पहुंची। देश का नेतृत्व करने के लिए जिन लोगों को चुना गया था वे अपना भी नेतृत्व नहीं कर पाए । उनके भीतर की महत्वाकांक्षा,ईर्ष्या और एक दूसरे के प्रति घृणा के भाव जब उभर कर सामने आए तो राजनीति के चौराहे पर देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को लूट लिया गया। लोकतंत्र का चीर हरण किया गया। देश के सम्मान को बढ़ाने की सौगंध उठाकर सत्ता में आए लोग देश के सम्मान के साथ ही खिलवाड़ करने लगे। जिन्हें लोकतंत्र का रक्षक बनाकर भेजा गया था वही भक्षक सिद्ध हुए।
चौधरी चरण सिंह और जनता पार्टी सरकार
चौधरी चरण सिंह की महत्वाकांक्षा उस समय सिर चढ़कर बोल रही थी। उन्होंने मोरारजी देसाई की सरकार को आगे एक कदम बढ़ने देना भी बहुत कठिन कर दिया। उधर इंदिरा गांधी बड़ी सावधानी से इस गैर कांग्रेसी सरकार की कार्यशैली को देख रही थीं। जैसे-जैसे यह सरकार आगे बढ़ी और इसके अंतर्विरोध इसके लिए बोझ बनते चले गए, वैसे-वैसे ही इंदिरा गांधी का गिरा हुआ मनोबल ऊपर उठने लगा। देश के मतदाता भी बड़ी सावधानी से नई सरकार की कार्य शैली को देख रहे थे। उन्होंने भी जब सिर फुटौवल करने वाले नेताओं को देश के सम्मान और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ करते देखा तो मन उनका भी खराब हो चुका था। इंदिरा गांधी ने एक कुशल राजनीतिज्ञ की भांति अपने विपक्ष अर्थात उस समय के सत्ता पक्ष पर सही समय और सही स्थान पर चोट की । उन्होंने चौधरी चरण सिंह की महत्वाकांक्षा पर हाथ रख लिया। धीरे-धीरे चौधरी चरण सिंह को सरकार के विरुद्ध उकसाने का काम करने लगीं।
चौधरी चरण सिंह भी इंदिरा गांधी की कांग्रेस की बातों में आ गए। चौधरी चरण सिंह सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी से चुन चुन कर प्रतिशोध लेने की बात कर रहे थे ,उन्हें जेल में डालने की तैयारी कर रहे थे, पर जब सत्ता का लालच उनके भीतर जागा तो वह भी धीरे-धीरे इंदिरा गांधी के विरुद्ध ढीले पड़ते चले गए। परिणाम स्वरुप जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार गिर गई। तब 28 जुलाई 1979 को इंदिरा गांधी की कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। इसके बाद चौधरी चरण सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनाए रखने की बात से इंदिरा गांधी पीछे हट गईं। इंदिरा गांधी राजनीति की कुशल खिलाड़ी थीं। उन्हें देश की जनता की नब्ज की पहचान थी। उन्होंने समझ लिया था कि देश की जनता इस समय इस सरकार से परेशान हो चुकी है। यदि अभी चुनाव होते हैं तो निश्चय ही उसका परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आएगा।
चौधरी चरण सिंह महत्वाकांक्षी होने के साथ-साथ एक ईमानदार और कर्मठ किसान नेता के रूप में भी जाने जाते हैं।
उनके भीतर स्वाभिमान का भी भाव था। कहा यह भी जाता है कि इंदिरा गांधी ने अपना समर्थन देने की कीमत की एवज में उनसे अपने विरुद्ध चलाये जा रहे सभी मुकद्दमों को वापस लेने की बात रखी थी। जिसे स्वाभिमानी चौधरी साहब ने मानने से इनकार कर दिया था। तब सरकार का गिरना निश्चित हो गया।
परिणाम स्वरुप चौधरी चरण सिंह ने लोकसभा का सामना किये बिना ही अपनी सरकार का त्यागपत्र तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवा रेड्डी को सौंप दिया। परंतु उन्हें अगली व्यवस्था होने तक प्रधानमंत्री बने रहने के लिए राष्ट्रपति की ओर से कह दिया गया। इस प्रकार सातवीं लोकसभा के चुनाव प्रधानमंत्री चरण सिंह के नेतृत्व में संपन्न हुए।
छठी लोकसभा और राष्ट्रपति का चुनाव
छठी लोकसभा के अंतर्गत जनता पार्टी की सरकार जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में आगे बढ़ रही थी तो उस समय उन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव में अपने पुराने साथी और कभी वी0वी0 गिरि के चुनाव के समय कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में मैदान में उपस्थित रहे नीलम संजीवा रेड्डी को देश का राष्ट्रपति बनवाया। उनका चुनाव 25 जुलाई 1977 को संपन्न हुआ। इसके पश्चात 25 जुलाई 1982 तक वह देश के राष्ट्रपति रहे। देश के राष्ट्रपति के रूप में काम कर रहे नीलम संजीवा रेड्डी ने 22 अगस्त 1979 को देश की लोकसभा को भंग कर दिया। इसके पश्चात चौधरी चरण सिंह देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में जनवरी 1980 तक काम करते रहे। चौधरी चरण सिंह स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात के अब तक के इतिहास में ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने एक दिन के लिए भी संसद का सामना नहीं किया।
देश में इस समय पांचवी पंचवर्षीय योजना चल रही थी। यह योजना 1974 से 1978 तक रही। हम यहां यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि यद्यपि पंडित जवाहरलाल नेहरू के जमाने से ही पंचवर्षीय योजनाओं का श्री गणेश कर दिया गया था परंतु प्रारंभिक दो योजनाओं के पश्चात की अब तक की कोई भी योजना ऐसी नहीं रही, जिसे देश की राजनीतिक परिस्थितियों ने या युद्ध आदि की परिस्थितियों ने प्रभावित न किया हो। अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन योजनाओं को अपनी लक्ष्य प्राप्ति में कितनी सफलता मिली होगी ?
अंधेरे में भविष्य खोजना बड़ा कठिन होता है। लक्ष्यविहीन राजनीति के घुप्प अंधेरे में सफल होना भी बड़ा कठिन होता है। दिशाविहीन नेतृत्व जब महत्वाकांक्षा के भंवरजाल में फंसकर राजनीति में व्यस्त रहता है तो उससे राष्ट्रहित की अपेक्षा नहीं की जा सकती । जब पक्ष – विपक्ष जंगल में पशु पक्षियों की भांति एक दूसरे के प्रति हिंसक भाव दिखाते हुए लड़ते झगड़ते हों, तब देशभक्ति गौण हो जाती है और दलभक्ति उभर कर सामने आ जाती है। दलभक्ति राष्ट्रभक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। सत्ता-स्वार्थ समाज हित की साधना में सबसे बड़ी बाधा है और व्यक्ति का पदलोलुप होना मर्यादाओं के पालने में सबसे बड़ी बाधा होती है। छठी लोकसभा और इस समय चल रही पंचवर्षीय योजना राजनीति के इसी मकड़जाल में फंस और धंसकर रह गईं।
नए चुनाव में नया जनादेश देकर लोगों ने बड़ी आशा और अपेक्षाओं के साथ नए सपने बुने थे। नये सवेरे की आस जगाई थी। पर सब कुछ यूं ही विलीन हो गया ……और देश निराशा निशा में निर्णय लेकर नए चुनाव की ओर आगे बढ़ चला …..! शायद अपना नया लक्ष्य निर्धारित करने के लिए?
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)