– आत्माराम यादव पीव
खपरैल शब्द आते ही एक ऐसे कमरे-मकान का स्वरूप हमारे सामने आ जाता है जो हमारी मोलिक सांस्कृतिक धरोहर है जिसे देश के ग्रामों ओर शहरों से उजाड़ा जा रहा है ओर पर्यटन स्थलों पर हमारी मूल विरासत कि दुहाई देकर इन खपरैल मकानों को सहेजा जा रहा है। दो दशक पूर्व से बीती शताब्दियों का किस्सा सभी के जेहन में है जहा इन खपरा अर्थात खपरैल मकानो में आपका, मेरा जन्म हुआ, हमारा लालन पोषण, गोदी, झूला से घुटने चलाई, गिरकर खड़े होने जैसी यादों के साथ चिमनी, लालटेन, दीये के प्रकाश में पढ़ाई की शुरुआत सहित घर के बाहर आँगन ओर आँगन में तुलसीधारा की परिक्रमा से जुड़ा है। जो खपरैल मकानों के इर्द-गिर्द ही पला बड़ा हुआ है। खपरैल की मुड़ैर पर फंसी हमारी पतंग या गिल्ली डंडा खेलते समय गिल्ली मगरी पर गिरती थी तब वे जब तक नहीं निकलती थी जब घर में रोटी बनाती अम्मा, काकी, बुआ, मौसी, नानी की फटकार या बाहर बैठी दादी की प्यार भरी डपट “तुमाओं राम भलो करें सबई खपरा फौर दवे” मिल जाती थी।
देश के अनेक प्रदेशों में भाषा बोली की भिन्नता रही हो किन्तु सभी के खपरैल मकान में रोजमर्या के इस्तेमाल के लिए एक कमरे के कोने में चकिया, चूल्हे के पास पिंडी, सिकोली टिकोली, धान कूटने का मूसल शोभा बढ़ाते थे। बढ़ती आधुनिकता जीवन शैली में हम खपरैल के संरक्षण की बात भी नहीं कह सकते अब ये सभी सामग्री संग्रहालयों में संभाल कर रखने वाली होती जा रही है ओर ग्रामीण परिवेश ने अपनी मौलिकता को बदलकर शहरी परिवेश में ढाल लिया है जिससे अब पर्यावरण के साथ खेती के कम होने से कंक्रीट मकानों में आदमी गुम होने लगा है जिस हेतु जनजाग्रति आवश्यक है।
मानव जीवन के बौद्धिक स्तहर पर विकास के प्रादुर्भाव की सोच का मूलमंत्र झोपड़ी रही है ओर झोपड़ी में निश्चिंतता से अपनी संस्कृति ओर परम्पराओ को अपने पूर्ण स्वाभिमान को जीने वाले सीधे सादे वनवासी, ग्रामवासी ओर शहरी रहे है। गत कुछ वर्षों में देश-प्रदेश की सरकारें ने कच्चे मकानों, झोपड़ियों से मुक्त कर क्रांकिट के भवनो का सपना दिखाकर इन लोगों को इनकी मौलिकता ओर गर्व करने वाली संस्कृति से वंचित कर इनके मूल साधनों ओर संसाधनों को छीन चुकी है। सरकारों ने मिट्टी के बने कच्चे मकानों की दीवारों को तोड़कर पहले इन्हे इनकी मिट्टी से अलग किया जिसमें इनकी आत्मा का निवास था फिर झोपड़ी में रहने वालों को धूल, पानी अंधड़ तूफान का भय से घाँसफूस से बनी झोपड़ी उड़ जाने का डर बताकर आधुनिक मकान दिये। यही नहीं मिट्टी के बने देशी कबेलू के मकान ओर अंदर कमरों की देशी बनावट इनके सुख को हजारगुणा कर इन्हे पर्यावरण से सुरक्षा के कवच उपलब्ध कराती थी वही इनके उपलब्ध स्व साधन जहा ये अपने मकानों के आसपास प्राकृतिक हवा पानी की व्यवस्था हेतु नीम, पीपल, इमली आदि के पेड़ ये लोग अपने घरों ओर गाँव में लगाते थे से इन्हे वंचित कर इन पेड़ पोधों को कटवाकर प्रकृति से कोसों दूर कर कंक्रीट के भवनों में इन लोगों को गुम कर दिया है।
बड़े-बड़े पूंजीपति या सरकार आज भी अंग्रेजों के समय के अंगेजी खपरेल वाले मकानों में सरकारी ऑफिस बनाए है या उन्हे रेस्ट हाउस, सर्किट हाउस के रूप में साज सज्जा कर इस्तेमाल कर प्रकृति का पूरा आनंद उठा रहे है पर मजे की बात है जिन लोगों के मिट्टी के मकान ओर देशी खपरैल वाले मकानों पर इन्हे गौरब था वे ही इन अँग्रेजी मकानो में ठहरने की सोच भी नहीं सकते फिर यहा रहना उनके लिए सपना भर है। आज सरकार देश के हर गाँव, जंगल, शहर ओर महानगर में झुग्गी झोपड़ी ओर मकानो मे रहने वालो को गरीब मानकर उसे पक्का मकान बनाकर गरीबी से मुक्त कर रहे है जिसमें कई प्रदेशों में इन योजनाओं का नाम ^मुखमंत्री आवास ओर प्रधानमंत्री आवास^ योजना का लाभ देकर यह साबित करना चाहते है की तुम कोई मामूली या आम आदमी नही हो प्रधानमंत्री आवास ओर मुख्यमंत्री आवास में रहने वाले हो, यानि तुम कोई प्रधानमंत्री ओर मुख्यमंत्री से कम नहीं हो ? गरीब पक्का कांक्रीट का भवन पाकर फूला नहीं समाता किन्तु जैसे ही उसमें रहना शुरू करता है तो पता चलता है की वह अन्य सरकारी योजनाओं से वंचित हो गया क्योकि वह अब एक छोटा सा क़ैदख़ानानुमा भवन निर्माण कराकर अमीर हो गया है।
भारत कृषि प्रधान देश रहा है, और अगर देश के पूंजीपतिओ की बुरी नीयत इन किसानों के ग्रामीण क्षेत्रों की कृषिभूमि पर पड़ी तो कुछ साल ओर यह देश कृषि प्रधान रह सकेगा वरना शहरी क्षेत्रो के आसपास चारों सीमाओ में खरपतवार की तरह उगने वाली कांक्रीट की बहुमंजिला इमारतों का महाजाल बिछाकर इन पूंजीपतिओ द्वारा पैसा छापने की टकसाल लगाकर भूमियो को हथियाने का सिलसिला नही थमेगा। शहरी विकास प्राधिकरण, नजूल ओर लोकनिर्माण से लेकर नगरपालिकाए, एसडीएम आदि के कार्यालय सारे नियमो-कानूनों को ताक पर रखकर इन्हे अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने में दो घर आगे होते है। शहरी चमक-दमक में धन शक्ति से पूर्ण ग्रामीण परिवार शहर में स्थान बनाकर, शहरीकरणको विकसित कर ग्राम्य जीवन को उपेक्षित भाव रख गांवों से पलायन कर रहे हैं। उन्हें जन्मभूमि कर्मभूमि ग्राम्य जीवन में ‘गंवारता’ का बोध होने लगा है, यही कारण है कि शहर की कंक्रीट कालोनियों में इनका मन भा गया है ओर इन्हे गाँव के खपरैल मकानों से कोफ्त हो गई है तभी शहर कि संस्कृति में ये लोग अपने को आधुनिक समझने लगे है जो पर्यावरण संतुलन के लिए घातक है।
समझने वाली बात है कि सांस्कृतिक रूप से तो जीवन ओर मृत्यु हमारी लोक परम्पराओं, संस्कृति और भारतीय संस्कारों से ही जन्मता है, पलता है और बड़ा होकर भारतीय पहचान को स्थापित करता है। लोगों के रहने, पहनने, खाने-पीने सभी में लोक संस्कृति की पृथक-पृधक सभ्यता रही है, जो उनकी मौलिकता और सभ्य पहचान होती है। देश, भाषा, रूप, स्वरूप, संगीत, साहित्य, खानपान व जीवन की सभी प्राकृतिक एवं पर्यावरणीय सुविधाओं के साथ सद्भाव और सन्मार्ग से जोड़ने का सवाल अब इस बदलाब के बाद खड़ा होने लगा है जिसमे अपनी जमीन से अपनी मातृभूमि से पृथक होने वाली पीढ़ी इस अंधी दौड़ में संस्कारों को दमित करती जा रही है। यही कारण है कि पहले जहा खपरैल मकान को छाने-छाबने कि बात होती थी तब ग्राम के बड़े व्यक्ति भी सिद्धस्थ होने पर मदद के रूप में दिन भर यह काम करते थे ताकि बरसात में इनके काम किए मकान कि मगरी से लेकर नीचे तक कोई पानी का टपका शेष नही रहता था किन्तु अब हमने ऐसे हालात निर्मित कर लिए है जिसके समक्ष मानवीय मूल्य अर्थहीन हो गए है ओर व्यकित का आपसी प्रेम व अपनापन निजी स्वार्थ कि बलि चढ़ गया है तभी बिना मूल्य लिए कोई मदद के लिए आगे नहीं आता है।
पर्यावरण के लिए असंतुलन कि बात के परिणाम कोई देखना नहीं चाहता है हा बतौर सजा के भुगत रहा है ओर उसे अपनी मौज मान ली है। जिन्हे कबेलुनुमा कच्चे खपरैल मकानों, टीन की चादरों से घर में आग उगलते आवासों व झोपड़ियों से मुक्त कर देश में सरकारों आम नागरिकों को झुग्गी झोपड़ी ओर खपरैल मकानों से वंचित कर उनके सपने छीन रही है, वही सरकारे पैसा कमाने के लिए, बड़े पूंजीपतिओ को आकर्षित करने के लिए जंगलो में, नदियो किनारे, आदि पर्यटनस्थलो पर प्रकृति कि गोद में पूर्ण हँसती खेलती पवन के अठखेलियों का आनंद लेने के लिए वही खपरैल मकान में चाँदनी रात में ठहरने का लोभ देती है ओर खपरैल मकानों से कमाई कर लोगों के जीवन को सुहाना बनाने कि प्रतिस्पर्धा करती है, अगर सरकार इनकी जगह किसी गाँव में इन खपरैल मकानों में ग्रामीणो के साथ पेइंगगेस्ट के रूप मे योजनाए लाती तो अनेक गाँव जी उठते, अनेक ग्रामीण अपने खपरैल मकानों के सुख को देश दुनिया के बड़े लोगो से सांझा कर रोजगार के पर्याप्त अवसर भी प्राप्त कर सकते थे ओर अपने खपरैल मकानो को सुरक्षित ओर संरक्षित रख सकते थे, पर क्या कीजिएगा वे बेरोजगार है ओर पूंजीपति के रोजगार में इजाफा हुआ है।
यही कारण है ग्रामों से मजदूरी रोजगार पाने के लिए शहरों कि ओर पलायन थमने का नाम नही ले रहा है। हर शहर में कोई जयस्त्म्भ, कोई चौक, कोई पुलिया, कोई बाजार अवश्य मिल जाएगा जहा ग्रामीण ही नही अपितु शहरी मजदूर काम के तलाश में सुबह घर से निकलता है ओर उस मजदूर मंडी में अपने को साबित करना होता है वरना लोग इतने चतुर चालक है जो युवा मजदूरों को पहले चुनते है ताकि उनकी ताकत का पूरा शोषण दुगुना काम कराकर प्राप्त कर ले। अधेड़ बूढ़े मजदूरों को काम के लिए गिड़गिड़ाना पड़ता है, आखिर मुख्यमंत्री –प्रधानमंत्री आवास मे रहने की कुछ तो कीमत चुकानी होगी। यही मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री आवास में रहने वाले मजदूर हर गाँव,शहर महानगरों में एक से एक अत्याधुनिक भवनों के विकसित स्वरूप गगन चूमते अट्टालिकाओं एवं एवं आधुनिक शैली के फाइबर के भवन मनुष्य की सुविधाओं के लिये निर्माण करते आ रहे है। मिट्टी से चूना, चूना से सीमेंट, सीमेंट से कंक्रीट और अब लोहा सीमेंट से 50 मंजिला भवन हमारे विकासशील होने के प्रमाण दे रहे हैं। देखा जाये तो सुनहरे भविष्य की मान्यताओं में यह सुविधा आवश्यक भी मानी जाती है, परन्तु आधुनिक संरचनाओं ने हमारे तन-मन-धन को गिरवी रख लिया है और हम पाश्चात्य सभ्यता के ऋणी हो गए हैं। जिसका भुगतान हमें ही नहीं आने वाली पीढ़ी को भी चक्रवर्ती ब्याज के साथ चुकाने को तैयार रहना चाहिए।
आत्माराम यादव पीव
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