आर्यसमाज का लोक कल्याण
लेखक :- स्वामी ओमानन्द जी महाराज
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा
आर्यसमाज द्वारा दिये गये जीवनों के बलिदानों की चर्चा करने से पहले समय - समय पर लोक कल्याण के लिये आर्यसमाज जो भारी त्याग करता रहा है उन में से कुछ की ओर निर्देश कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। ऐसा करने से आर्यसमाज की बलिदान भावना का वास्तविक स्वरूप समझने में बहुत सहायता मिलेगी, इस से हमें आर्यसमाज के बलिदानों की तह में छिपी हुई मौलिक प्रेरणा का समझना सुगम हो जायेगा।
हमने ऊपर कहा है कि धार्मिक भावना स्वभावतः धार्मिक पुरुषों के भीतर प्राणिमात्र के दर्द में समवेदना के भाव उत्पन्न करती है। इसी लिये हम देखते हैं कि जब कभी मनुष्य समाज के किसी अंश पर कोई विपत्ति पाई है तो आर्यसमाज उसी समय पीड़ित लोगों की सहायता करने के लिये मागे बढ़ा है। ऐसे अवसरों पर आर्यसमाज सदा कष्टापन्न लोगों को सेवा करने के लिए उन के लोगों को सेवा करने के लिये उन के पास अपने स्वयसेवकों को सेनायें भेजता रहा है और उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मुक्तहस्त से धन की सहायता देता रहा है। आर्यसमाज का जीवन मभो छोटा हो है। आर्यसमाज को स्थापना ऋषि दयानन्द ने सन् १८७५ में की थो। अपने जीवन के इन १४६ सालों में आर्यसमाज ने कष्टापन्न जन - समाज की सेवा का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने दिया है। सन् १८६६-६८ और १८६९ -१६०० में हमारे देश में भयंकर अकाल पड़े थे। अन्न न मिलने से अनगिनत आदमियों को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े थे। असंख्य बसे हुए घर उजड़ गये थे। भूख से विह्वल होने के कारण पति को पत्नी की और माता को सन्तान की सुध न रहो थी। सर्वत्र त्राहि - त्राहि मच गई थी। आर्यसमाज अभी अपने प्रारम्भिक काल में ही था। उस की शक्ति का अभी बहुत विकास नहीं हुआ था। फिर भी आर्यसमाज ने अकाल से आक्रान्त प्रदेशों में अपने सेवक भेजे. पीड़ित लोगों को अन्न , वस्त्र और धन की पर्याप्त सहायता दी। सैकड़ों अनाथ बच्चों की रक्षा की और असहाय अबलाओं की लज्जा को ढका। हजारों रुपया इस काम में आर्यसमाज ने खर्च किया। उस समय पीडितों की सहायता करने वाला एकमात्र भारतीय समाज आर्यसमाज था। सन् १९०८ के अकाल में भी पार्यसमाज ने इसी प्रकार हजारों रुपया व्यय करके पीडितों की सहायता की।
कांगड़ा की घाटी में सन् १९०४ में एक भयंकर भूकम्प आया था। भूकम्प से जन और धन की घोर हानि हुई थी। हजारों आदमी निराश्रय और वे घर बार के हो गये थे। उस समय भी आर्यसमाज सब से पहले पीड़ित लोगों की सहायता और सेवा करने के लिये पहुंचा था।
सन् १९१८ में गढ़वाल के प्रदेश में भीषण अकाल पड़ा था। एक भीषण अकाल में जनता की जो दुःखपूर्ण शोचनीय स्थिति हो जाया करती है वही स्थिति गढ़वाल के लोगों की हो गई थी। लोगों को खाने , पहनने को नहीं मिलता। सर्वत्र हाहाकार मच गया था। उस समय भी आर्यसमाज दुःखाकुल जनता की सेवा के लिये तत्काल आक्रान्त प्रदेश में पहुंचा। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने वहां जाकर डेरे लगा लिये। उन के नेतृत्व में गुरुकुल कांगड़ी के ब्रह्मचारी और स्नातक तथा अन्य आर्यसमाजी लोग आक्रान्त प्रदेश के गांव - गांव में घूमकर पीड़ित लोगों में अन्न, वस्त्र और औषधियां बांटने गये। और भी जिस प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती पीड़ित लोगों को वह सब दी जाती। इस काम में अकेले स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के द्वारा आर्यसमाज ने ७०३३० ) रु ० व्यय किये थे। महात्मा हंसराज जी की अध्यक्षता में वहाँ अलग काम हो रहा था। उनके द्वारा जो हजारों रुपया व्यय हुआ वह अलग है।
जून १६३४ में भयंकर भूकम्प प्राया। नगरों के नगर नष्ट भ्रष्ट हो गये। इस दुर्दैव का यहां वर्णन हो सकना कठिन है। आर्यसमाज के लोग इस समय भी विपद् - ग्रस्त जनता की सेवा के लिए दौड़कर पहुँचे। लोगों की सब प्रकार की सहायता की गई। भूखों और नंगों को अन्न और वस्त्र दिये गये। बे - घर बारों के लिये निवासार्थ झोपड़े बनवाये गये। अकेली तत्कालीन आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाब ने इस काम में कोई १०,००० ) रु० व्यय किये थे। अन्य प्रान्तों की समाजों और सभाओं ने जो विपुल खर्च किया था वह अलग है। पुन: १९३५ में क्वेटा में भीषण भूकम्प आया। सारा क्वेटा विनष्ट हो गया। हजारों लोग दब कर मर गये । सब की चल और अचल सम्पत्ति नष्ट हो गई। आर्यसमाज इस समय भी विपदाक्रान्त लोगों की सहायता और सेवा के लिये तत्काल पहुंचा । जिन को अन्न की जरूरत थी उन्हें अन्न दिया गया। जिन्हें दवा - दारू और मरहम - पट्टो की आवश्यकता थी उन्हें वह दी गई। जिन्हें रुपये की आव श्यकता थी उन्हें वह दिया गया। जिन्हें देश में अपने घरों में पहुँचाने की आवश्यकता थी उन्हें वहां पहुँचाने का प्रबन्ध किया गया। इस कार्य में भी आर्यसमाज ने हजारों रुपया खर्च किया। अकेले तत्कालीन आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने ही कोई १६,००० )रु० खर्च किया। प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा प्रादि संस्थानों द्वारा व्यय की गई विपुल राशि अलग है।
सन् १९४२ में सिन्ध नदी के चढ़ जाने से सिन्ध प्रान्त में भयंकर बाढ़ आई। गांव के गांव पानी में दब गये और बह गये। हजारों आदमी वे घर बार के और अन्न,वस्त्र से विहीन हो गये। मलेरिया भयंकर रूप से फूट पड़ा। इस विपत्ति के समय भी आर्यसमाज झठ पीड़ित लोगों की सहायता के लिये वहां पहुंचा। लोगों को हजारों रुपये के वस्त्र और दवाइयां वितरण की गई। चिकित्सा के लिये केन्द्र स्थापित किये गये। अन्य सब प्रकार की आवश्यक्ता की पूर्ति की गई। इस अवसर पर भी आर्य समाज ने हजारों रुपया खर्च किया। अकेले तत्कालीन आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने ही, इस समय कोई २३,००० ) रु० खर्च किया। अन्य सभाओं और समाजों ने जो भारी व्यय किया वह अलग है।
सेवा के इन सब अवसरों पर आर्यसमाज जाति और सम्प्रदाय के भेदभाव को भुलाकर कष्टापन्न मात्र को सहायता और सेवा करता है। सिन्ध प्रान्त में तो सब काम प्रधानतः हुआ ही मुस्लिम प्रधान प्रदेशों में था।
जनता की सेवा के अन्य अवसरों पर भी आर्यसमाज ने भारी काम किया है। उदाहरण के लिये १६३२ में जम्मू प्रदेश में वहां के मुसलमानों ने हिन्दुओं पर अवांछनीय अत्याचार किए थे। प्राणों की हत्या , माल असबाव की लूट , स्त्रियों और बच्चों पर बलात्कार आदि कोई ऐसी पशुता न थी जो उन उपद्रवों में हिन्दुओं पर न की गई हो। पीड़ितों की संख्या हजारों तक पहुंच गई थी। इस संकट से वचने का उपाय एकमात्र इस्लाम को स्वीकार कर लेना था। इस घोर विपत्ति के समय भी आर्यसमाज पीड़ितों की सहायता के लिये तत्काल वहां पहुंचा। स्वतन्त्रानन्द जी महाराज की अध्यक्षता में दयानन्द उपदेशक विद्यालय के विद्यार्थी और अध्यापक तथा अन्य आर्यसमाजी पुरुष इस निर्दयता के क्षेत्र में जा पहुंचे। पीड़ितों को अन्न वस्त्र द्वारा सहायता की गई। जो लोग डर कर अपने धर्म से गिर गये थे उन्हें वापिस अपने धर्म में लाया गया।
दक्षिण भारत के मालाबार प्रान्त ने मोपला मुसलमानों के प्रसिद्ध मोपला काण्ड के समय भी वहाँ के हिन्दुओं पर इसी प्रकार के अत्याचार किये थे। उस समय भी आर्यसमाजियों ने वहां पहुंचकर पीड़ितो की भरपूर सहायता की थी।
सन् १९४२-४३ में बंगाल प्रान्त में भयंकर अकाल पड़ा था। यह अकाल अभूतपूर्व था। प्राकृतिक और मानवीय दोनों ही प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियां इस विकट अकाल का कारण थीं। जहां प्राकृतिक कारणों से उस प्रान्त में अन्न नहीं उपजा था वहां तात्कालिक ब्रिटिश सरकार की कुव्यवस्था के कारण अन्य स्थानों से भी पर्याप्त अन्न नहीं पहुंचाया जा सका था। फलतः वहां विकराल अकाल पड़ा और लाखों नर - नारी मौत के घर पहुँच गये। लोगों का तो कहना है कि उस अकाल में कम से कम ५० पचास लाख लोगों की मृत्यु हुई। अकाल से ३० लाख मनुष्यों की मृत्यु हुई थी। यह तो उस समय की सरकार ने भी स्वीकार किया था। इस अकाल के समय भी सैकड़ों पायं - सेवक जनता की सेवा के लिए वहां पहुँचे थे और बिना हिन्दू और मुसलमान का भेद किए पीड़ित जनता में अन्न , वस्त्र और औषधियां बांटी थी। वहां की जनता में मुसलमानों की संख्या अधिक होने के कारण मुसलमानों को यह सहायता अधिक मात्रा में प्राप्त हुई थी। इस सेवा कार्य में भी आर्यसमाज ने हजारों रुपए की राशि व्यय की थी।
सन् १९४६-४७ में पूर्वी बंगाल के नोआखाली प्रदेशों में वहां के मुसलमानों ने वहां के हिन्दू निवासियों पर बड़े क्रूर अत्याचार किये थे। मुसलमानों ने अत्याचार जिन्ना के नेतृत्व में तात्कालिक मुस्लिम लीग के भड़काने से पाकिस्तान बनाने की मांग पर आधारित राजनैतिक कारणों से किये थे। कोई नृशंस कर्म नहीं था जोकि मुसलमानों ने न किया हो। लोगों के घर जला दिये गये। धन - सम्पत्ति लूट ली गई। संकड़ों आदमियों को मार डाला गया। नन्हें - नन्हें बच्चों तक को करल कर दिया गया। जबरदस्ती लोगों को मुसलमान बनाया गया और महिलाओं का चरित्र भ्रष्ट किया गया। सारे प्रदेश में त्राहि - त्राहि मच उठी। मुस्लिम धर्मान्धता का नंगा रूप उस समय देखा गया। उस विकट समय में भो सार्वदेशिक और प्रान्तीय आर्यप्रतिनिधि सभात्रों के तत्त्वावधान में आर्यसमाज के संबड़ों सेवक वहां पहुँचे थे और आर्यसमाज ने पानी की तरह रुपया बहा कर पीड़ित लोगों की भांति - भांति की सेवा की थी और उन्हें आश्वस्त किया था तथा बलात् विधर्मी बनाये गये लोगों को पुनः अपने धर्म में वापिस लाया गया था।
सन् १९२४-२५ में भी देश में मुसलमानों द्वारा आयोजित दंगों की लहर चली थी। देश के कोहाट , बन्नू , पेशावर , रावल पिण्डी, मुलतान , सहारनपुर और कानपुर आदि अनेक नगरों में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर नृशस और कायरतापूर्ण अत्याचार किये थे। हिन्दुओं के धर्म मन्दिर जला दिये गये और अपवित्र कर दिये गये थे। उन के घरों में आग लगा दी गई थी। स्त्रियों का सतीत्व नष्ट किया गया था और छातियां तक काट डाली गई थीं। बूढ़े और बच्चे का भेद किये बिना अनगिनत लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। नृशंसता जिन अत्याचारों की कल्पना कर सकती है वे सब मुस्लिम गुण्डों द्वारा हिन्दुओं पर किये गये थे। इन संकट के समयों में भी आर्यसमाज के सेवक विपद्गास्त लोगों के पास पहुँचे थे और उन की तरह तरह से सेवा की थी और इस कार्य में भी आर्यसमाज ने मुक्तहस्त से रुपया खर्च किया था। इन सब अवसरों पर आर्यसमाज ने लाखों की संख्या में रुपया खर्च किया है।
वर्ष १९५८ में रोहतक में आई बाढ़ के बाद लोगों की हालत दयनीय थी। हर तरह से लोगों के बचाव कार्य आर्यसमाज ने किये। सत्ताधारियों से जो न हुआ वो कार्य आर्यसमाज ने किया। बंटवारे के वक्त गुरुकुल झज्जर छावनी में बदल गया। १०हजार हिन्दु परिवार घर बार छोड़ कर गुरुकुल में शरण लेने पहुंचे। पूज्य स्वामी ओमानन्द जी महाराज ने शरणार्थीयों के भोजनादि का प्रंबध किया एवं स्थिति को भांपकर मोमिनों को यहां से खदेड़ा। ३५० मन अनाज अपने लोगों की जीवन रक्षार्थ आर्यसमाज ने दान किया। इस प्रकरण में झज्जर का गुढ़ा गांव पुरा का पुरा इस्लाम धर्म अपना चुका था। उनको पुन: वैदिक धर्म में दीक्षित किया। इतने जन कल्याणकारी कार्य करने पर भी मंदबुद्धि आर्यसमाज पर टीका टिप्पणी करने से बाज नहीं आते।
हम तो कह रहे हैं - जब जब जनता पर किसी प्रकार की कोई विपत्ति आई है तब तब आर्यसमाज विपद्ग्रस्त लोगों की सेवा के लिये इसी प्रकार आत्मत्याग करता रहा है। स्थानाभाव से यहां अधिक उदाहरण नहीं बढ़ाये जा सकते।