जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या है?
एष प्र पूर्वीरव तस्य चम्रिषोऽत्यो न योषामुदयंस्त भुर्वणिः।
दक्षं महे पाययते हिरण्ययं रथमावृत्या हरियोगमृभ्वसम्।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.56.1
(एषः) वह, दाता तथा इन्द्रियों का नियंत्रक (प्र – उदयंस्त से पूर्व लगाकर) (पूर्वीः) पूर्ण रूप से (अव – उदयंस्त से पूर्व लगाकर) (तस्य) उसके लिए (परमात्मा की अनुभूति के लिए) (चम्रिषः) सभी पदार्थों का आनन्द लेने वाला शरीर (अत्यः) लगातार सक्रिय (न) जैसे कि (योषाम्) विद्वतापूर्ण स्त्रियों के साथ (उदयंस्त – प्र अव उदयंस्त) पूर्ण प्रगति करता है (भुर्वणिः) स्वयं को धारण करता है, पालन-पोषण करता है (दक्षम्) दक्षता के साथ (महे) महान् एवं दिव्य (पाययते) प्राप्त करता है, पान करता है (हिरण्ययम्) स्वर्णिम (रथम्) रथ (आवृत्या) पदार्थों की वृत्तियों को हटा देता है (हरियोगम्) परमात्मा से जुड़ता है जो सभी दर्द समाप्त करता है (ऋभ्वसम्) सबको प्रेरित करता है।
व्याख्या:-
वैदिक विवेक के साथ जीने वाला व्यक्ति समाज के लिए क्या कर सकता है?
वह, इन्द्रियों का नियंत्रक, अपने शरीर को परमात्मा की अनुभूति के लिए धारण करता है और भरण-पोषण करता है, जिस प्रकार परिवार और समाज का मुखिया विदुषी महिलाओं के साथ प्रगति करता है। वह महान् और दिव्य विशेषज्ञताओं को प्राप्त करता है और उनका पान करता है अर्थात् उन्हें जीवन में उतारता है। वह अपने स्वर्णिम रथ अर्थात् सबसे मूल्यवान मानव शरीर से सभी पदार्थों की वृत्तियाँ हटा देता है। वह सभी दुःखों और कष्टों को दूर करके सभी लोगों को परमात्मा के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करता है।
जीवन में सार्थकता: –
जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या है?
जब कोई व्यक्ति (ऋग्वेद 1.55.7 के अनुसार) वैदिक विवेक के साथ अपना जीवनयापन करता है और समाज में एक दाता बन जाता है तथा अपनी इन्द्रियों और मन का नियंत्रक बन जाता है, वह परमात्मा की अनुभूति के मार्ग पर प्रगति करने के लिए सक्षम हो जाता है। अपने परिवार और समाज के मुखिया के रूप में वह अन्य लोगों को भी इस मार्ग के लिए प्रेरित करता है, क्योंकि उसे विशेषज्ञता प्राप्त हो चुकी है और उसका मन आस-पास के पदार्थों की वृत्तियों से मुक्त होकर स्पष्ट हो चुका है। वह शरीर और मन में पवित्र हो जाता है, क्योंकि उसके जीवन में वैदिक विवेक के दो मूलभूत लक्षण स्थापित हो जाते हैं – समाज का एक दाता और इन्द्रियों का नियंत्रक। इस प्रकार वह मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य अर्थात् ’हरियोगम् ऋभ्वसम्’ का पूर्ण सन्देशवाहक बन जाता है।
अपने आध्यात्मिक दायित्व को समझें
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