- पण्डित शिवकुमार शास्त्री (भूतपूर्व संसद्-सदस्य)
परमात्मा सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी और अन्तर्यामी है, अतएव यह निराकार है। हेतु यह है कि साकार वस्तु सीमाबद्ध रहेगी और जो चीज सीमित होगी उसके गुण और कर्म भी सीमित ही रहेंगे । जिसकी शक्ति सीमा में होगी वह सर्वशक्तिमान् कैसे हो सकता है? यह ठीक है कि प्रत्येक निराकार सर्वशक्तिमान् नहीं होता है किन्तु सर्वशक्तिमान् को अवश्य निराकार होना चाहिए। ईश्वर अजन्मा और जगत्कर्त्ता है। साकार पदार्थ तो स्वयं परमाणु-संयोग से बना है, वह जगत् का आदि कारण नहीं हो सकता। ईश्वर अमृत हैं। परन्तु साकार पदार्थ सावयव होने से नाशवान है। ईश्वर अनन्त है। अनन्तता भी दो प्रकार की होती है : एक देश-योग से और दूसरी काल-योग से। परन्तु साकार पदार्थ सावयव और जन्य होने से काल-योग से और देश-योग से भी सान्त ही रहेगा। कोई भी साकार पदार्थ अनन्त नहीं हो सकता। इस कारण से भी ईश्वर साकार नहीं हो सकता। ईश्वर निर्विकार है। परन्तु साकार पदार्थ सावयव होने से 6 प्रकार के विकारों से युक्त हैं। वे 6 विकार निम्न हैं – जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्धते, अपक्षीयते, विनश्यति। उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, परिणाम, घटना और विनाश। ईश्वर निराकार होने से इन विकारों से प्रभावित नहीं होता। ईश्वर सर्वाधार है। साकार पदार्थ एकदेशी होने से सर्वाधार नहीं हो सकता अपितु साकार होने से उसे स्वयं आधार की आवश्यकता होगी। प्रभु को साकार माननेवालों की मान्यताओं से यह तथ्य सुतरां प्रकट है। कोई मानता है कि ईश्वर सिंहासन पर विराजमान है और उस सिंहासन के आधार देवता हैं। कोई मानते हैं कि भगवान् क्षीरसागर में शेष की शय्या पर शयन करते हैं। कोई भगवान् का स्थान बैकुण्ठ मानते हैं।
साकार की मान्यता ने उसे एकदेशी बना दिया और फिर उसके कार्य-सम्पादन के लिए सहायक अपेक्षित हुए। किन्हीं ने कहा वह फरिश्तों से अपने काम कराता है। पैगम्बर की मान्यता का भी यही आधार है। क्या इस सम्बन्ध में कुछ भी विवेक से काम लिया? पैगम्बर का अर्थ सन्देशवाहक होता है। सन्देश कुछ दूरी से लाया जाता है। क्या कोई बता सकता है कि मनुष्य में और प्रभु में कितनी दूरी है? जिसके कारण सन्देशवाहक की आवश्यकता हुई। यहीं तक नहीं, पैगम्बरों पर भी बही फरिश्तों के द्वारा प्रकट होती है। परमात्मा को एक असमर्थ और असहाय की स्थिति में रख दिया।
ईसाइयों ने साकार मानकर उसका बेटा बना लिया और उसे परमात्मा के दक्षिण पार्श्व में जा बिठलाया।
क्या हास्यास्पद स्थिति है?
दक्षिण और वाम भाग सीमित वस्तु के होते हैं और सीमित [कार्य] पदार्थ नाशवान् होता है। हमारे पौराणिक भाइयों ने उसका सिंहासन, उसके गण, उसकी स्त्री और पुत्रों की कल्पना कर ली और उसे अच्छा खासा गृहस्थी बना दिया। परमात्मा अपनी ही गृहस्थी के झमेले में उलझ गया। परिणाम यह निकला कि कर्मों के साक्षी और उनके अनुसार फलप्राप्ति के संस्कारों के मिट जाने से संसार में पाप बढ़ गया। उनके मन में बैठ गया कि परमात्मा चौथे और सातवें आसमान पर अथवा वैकुण्ठ और क्षीरसागर में है। तुम अवसर से क्यों चूकते हो? किसी मुसलमान शायर ने लिखा भी है – “ज़मीं पे हो अपनी हिफाज़त करो। खुदा तो मियां आसमानों में है ॥”
यह सब बिगाड़ साकार-मान्यता के कारण हुआ है। क्योंकि जीव फल देनेवाली शक्ति से सदा आतंकित रहता है। जहां पुलिस हो, वहां कोई भी उसके डर से अमर्यादित काम नहीं करता। यदि इसी प्रकार सर्वशक्ति-सम्पन्न कर्मफलप्रदाता परमात्मा पर भी मनुष्य की आस्था दृढ़ हो जावे तो वह कभी पाप नहीं कर सकता। इसलिए यह सब गड़बड़ घोटाला प्रभु के स्वरूप को ठीक से न समझने के कारण ही हुआ है।
[स्रोत : श्रुति-सौरभ, पृ. 401-402, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
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