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*सा* तवीं शताब्दी के आरंभ में अरब में इस्लाम का जन्म हुआ। इसके कुछ समय पश्चात् ही 638 ईसवी में इस्लामिक क्रांति के नाम पर वहाँ से इस्लाम के मानने वाले लोगों ने भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों पर अपने आक्रमण करने आरंभ किए। शक, कुषाण और हूणों के पतन के बाद भारत के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र कुछ कमजोर पड़ गए थे। यह वह काल था जब आज के अफगानिस्तान और आजकल के पाकिस्तान के कुछ भाग फारस साम्राज्य के अधीन थे और शेष भारतीय राजाओं के अधीन थे। इसके अतिरिक्त बलूचिस्तान उस समय एक स्वतंत्र सत्ता थी।
इस्लाम के जन्म के काल के उपरांत ही अरब के खलीफाओं ने भारत पर आक्रमण करने आरंभ कर दिए थे। उन्होंने 638 ई. से लेकर 712 ई. तक भारत पर कुल 9 खलीफाओं ने 14 बार आक्रमण किए और यहाँ के अनेकों नगरों को लूट कर उन्होंने अनेकों लोगों का नरसंहार कर अपनी तलवार की प्यास बुझाई। भारत इससे पहले (अशोक के काल तक) ऐसे युद्ध देखने का अभ्यासी नहीं रहा था, जहाँ नरसंहार होता हो, महिलाओं के शीलभंग होते हों, बच्चों की निर्ममता के साथ हत्या की जाती हो। भारत वालों के लिए इस प्रकार के आक्रमण और उनमें होने वाले निर्मम अत्याचार पहला अनुभव था। इतना ही नहीं 74 वर्ष में 14 आक्रमणों का होना भी भारत के लिए यह पहला ही अनुभव था।
अब से पूर्व भारत के लोगों ने कभी अपने ऊपर ऐसे निर्मम आक्रमणों को नहीं देखा था, क्योंकि भारत की परंपरा शांतिपूर्ण ढंग से जीवनयापन करने की थी। भारत ने दूसरों की उन्नति में सहायता की और दूसरों को शांति का मार्ग दिखा कर लोगों को आत्मोन्नति का मार्ग दिखाने का काम किया। उसने कहीं भी विनाश करने में विश्वास नहीं रखा। 'विनाश में विश्वास नहीं और विकास में कोई खास नहीं'- यह भारत की शासकीय नीतियों का मौलिक उद्देश्य रहा। हमारे शासकों ने कभी साम्राज्य विस्तार कर दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए उनके जीवन से खिलवाड़ करने की नीति पर अमल नहीं किया। तत्कालीन अफगानिस्तान के क्षेत्रों में रहने वाले हिंदू और बौद्ध धर्मावलंबी लोग यह समझ नहीं पाए कि उनके ऊपर किए जाने वाले आक्रमणों का अन्ततः उद्देश्य क्या है?
खलीफा लुटेरे सैन्यदलों के साथ आते रहे और यहाँ से *'लूट का माल'* ले जाकर अपने खजाने भरते रहे। इतना ही नहीं वह 'लूट के माल' के साथ-साथ अनेकों हिंदुओं और बौद्धों को इस्लाम में दीक्षित भी करते थे। जो लोग दीक्षित होने से इनकार करते थे, उन्हें वह अपना दास बनाकर सदा-सदा के लिये अपने साथ अपने देश ले जाते थे। इस प्रकार के आक्रमणों से तत्कालीन अफगानिस्तान की भारी सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षति हुई।
इस समय अफगानिस्तान की प्राचीन संस्कृति उजड़ रही थी, उसके राजनीतिक मूल्य उजड़ रहे थे और उसकी सामाजिक परिस्थितियों में ऐसा परिवर्तन आ रहा था जो उसे अपने मूल धर्म, मूल देश, मूल संस्कृति और मूल इतिहास से दूर करता जा रहा था। यह वह काल था जब भारत की संस्कृति, भारत का धर्म और भारत का इतिहास इस क्षेत्र में मृत्यु की ओर बढ़ने लगा था। कुछ इतिहासकारों ने यहीं से वर्तमान अफगानिस्तान के बनने की प्रक्रिया का आरम्भ होना माना है। हमारा मानना है कि यहाँ से अफगानिस्तान के बनने की प्रक्रिया आरंभ नहीं हुई, अपितु भारत के एक प्राचीन अंग के कटने की प्रक्रिया आरंभ हुई।
इस्लाम की स्थापना के लगभग 102 वर्ष पश्चात् 712 ई. में मोहम्मद बिन कासिम नाम के एक लुटेरे ने भारत की ओर बढ़ने का अभियान आरंभ किया। यहीं से महत्त्वपूर्ण ढंग से भारत पर इस्लामिक आक्रमणों का क्रम आरंभ हुआ। जिस समय मोहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण करने का क्रम आरंभ किया था, उस समय उसकी अवस्था मात्र 17 वर्ष की थी।
इतिहास का यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि इस्लाम के आक्रमणों से पूर्व अफगानिस्तान अर्थात् कम्बोज और गांधार में बौद्ध एवं हिन्दू धर्म का प्रचलन था और यही वहाँ के राजधर्म में सम्मिलित थे। मोहम्मद बिन कासिम ने सर्वप्रथम बलूचिस्तान को अपने अधीन किया। बलूचिस्तान को अपने अधीन करने के उपरांत मोहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध पर आक्रमण कर दिया। 'चचनामा' नामक ऐतिहासिक ग्रंथ में किए गए वर्णन के अनुसार सिन्ध के राजा दाहिरसेन की मोहम्मद बिन कासिम ने बहुत ही क्रूरता और निर्ममता के साथ हत्या कर दी थी। वास्तव में यह हत्या किसी व्यक्ति की हत्या नहीं थी, अपितु एक संस्कृति की हत्या थी, एक संस्था की हत्या थी, एक विचारधारा की हत्या थी, मानवता की हत्या थी और इन सबसे बढ़कर भारत की स्वाधीनता के एक महान् सेनापति की हत्या थी।
मोहम्मद बिन कासिम ने जब राजा दाहिरसेन की हत्या कर दी तो उसकी निर्ममता यहीं पर नहीं रुकी, अपितु उसने राजा की दो बेटियों को बंधक बनाकर उन्हें अपने खलीफा की बेगम बनाने के लिए यहाँ से अपने सुरक्षाप्रहरियों के आतंकित कर देने वाले सुरक्षा घेरे में 'लूटे गए माल' के रूप में अपने देश भेज दिया।
कासिम ने सिन्ध के बाद भारत के पंजाब और मुल्तान को भी अपने अधीन करने में सफलता प्राप्त की।
जब अरब के यह आक्रामक अफगानिस्तान के तत्कालीन स्वरूप को मिटाकर उसे इस्लाम में दीक्षित करने का प्रयास कर रहे थे और अपनी निर्ममता और निर्दयता को प्रकट कर लोगों पर अत्याचार ढहा रहे थे, तब ऐसे अनेकों हिंदू वीर और योद्धा भी वहाँ हुए होंगे, जिन्होंने उनके इन निर्मम अत्याचारों का सामना किया होगा और अपना उत्कृष्ट बलिदान दिया होगा। ऐसे वीरों की संख्या सौ-दो सौ या हजार-दो हजार नहीं रही होगी, अपितु यह निश्चय ही पिछले 1300 वर्ष के काल में लाखों की संख्या में रहे होंगे। यह बहुत ही दुख का विषय है कि हमसे शत्रुभाव रखने वाले इतिहास लेखकों ने इन सभी लाखों वीर योद्धाओं को इतिहास के उस कूड़ेदान में फेंक दिया गया जिसे इतिहास का विकृतिकरण कहा जाता है। चाटुकार लोगों के द्वारा राज दरबार में बैठकर अपने आकाओं को प्रसन्न करने के लिए लिखा जाने वाला इतिहास अपने नायकों के साथ ऐसा ही व्यवहार करता है। वह नायकों का नहीं खलनायकों का सम्मान करता है।
अफगानिस्तान के पिछले बारह सौ-तेरह सौ वर्ष के इतिहास में यही हुआ है। जो वहाँ के संस्कृति रक्षक लोग थे, उनका कहीं उल्लेख नहीं है और जो लोग उसकी संस्कृति का विनाश करने के लिए वहाँ पर आए, उनका उल्लेख कर इतिहास बना दिया गया है। भारतीय परंपरा में खलनायकों का कोई इतिहास नहीं होता। भारतीय परंपरा में इतिहास सदा ही उन नायकों का होता है जो देश, समाज, राष्ट्र, विश्व के लिए, संपूर्ण मानवता के लिए और प्राणीमात्र के लिए कल्याण के कार्य में लगे रहते हैं। ऐसे अनेकों हिंदू राजा थे जो अरब के आक्रामकों के विरुद्ध मोर्चा संभालकर उनका सामना कर रहे थे और प्राणपण से अपने देश आर्यावर्त या भारतवर्ष की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर रहे थे।
छठी सदी तक अफगानिस्तान एक हिन्दू और बौद्ध बहुल क्षेत्र था। यहाँ के अलग-अलग क्षेत्रों में हिन्दू राजा राज्य करते थे। इतिहासकारों की मान्यता है कि हिन्दु राजाओं को 'काबुलशाह' या 'महाराज धर्मपति' कहा जाता था। इन राजाओं में कल्लार, सामंतदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनंदपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं। इतिहास के इन सभी महानायकों ने अपने देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। उनके बलिदानों को अफगानिस्तान का इतिहास यदि भुलाता है तो यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह शत्रुभाव से ऐसा कर सकता है, परंतु भारत का इतिहास भी उन्हें भुलाए तो यह सरासर इतिहास और इतिहासनायकों के साथ किया जाने वाला अन्याय है।
इन काबुलशाही राजाओं ने दशकों तक अरब आक्रमणकारियों को भारत की पवित्र भूमि पर प्रवेश नहीं करने दिया। देश की रक्षा के लिए यह सुरक्षाप्रहरी बनकर खड़े हो गए और अपना बलिदान दे-दे कर देश की रक्षा करते रहे। सिंधु नदी एक ऐसी 'लक्ष्मण रेखा' बन गई थी, जिसे पार करना उस समय अरब आक्रामकों के लिए बहुत ही कठिन हो गया था। सिंधु के तीर पर खड़े हिंदू अपने देश के लिए सब कुछ करने को तैयार थे। अरब आक्रमणकर्ता उनसे कभी पराजित होकर तो कभी भयभीत होकर अपने देश लौट जाते थे। ऐसे वीर सेनानायकों व क्रांतिकारी देशभक्तों के कारण उस समय अफगानिस्तान और शेष देश की रक्षा करने में हम सफल रहे। भारत का इतिहास तब तक अधूरा है जब तक सिंधु नदी के तीर पर खड़े अपने इन देशभक्त हिंदू वीरों की चित्रावली दिल्ली के लालकिले में कहीं पर नहीं लगा दी जाती है।
843 ईसवी में अफगानिस्तान में कल्लार नाम के एक राजा ने हिंदूशाही की स्थापना की थी। जब इस्लाम की आंधियों के थपेड़े अफगानिस्तान को निरंतर झेलने पड़ रहे थे, उस समय इस राजा के द्वारा हिंदूशाही की स्थापना करना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी। निश्चय ही यह राजा बहुत ही साहसी और वीर रहा होगा। तभी तो उसने अपने धर्म की रक्षा के लिए इतना बड़ा साहसिक निर्णय लिया। उस समय के सिक्कों से यह ज्ञात होता है कि कल्लार के पहले भी रुतविल या रणथल, स्पालपति और लगतुरमान नामक हिंदू या बौद्ध राजाओं का गांधार प्रदेश में राज्य रहा था। यह राजा स्वयं को कनिष्क का वंशज कहते थे। वास्तव में यह सभी हिंदू राजा अफगानिस्तान में हिंदूशाही के दैदीप्यमान नक्षत्र थे। जिन्होंने अपने-अपने समय में अपने-अपने ढंग से इस्लाम की आंधी का सामना किया था। इन्होंने अफगानिस्तान के मिटते हिंदू स्वरूप को देखा था और उसके लिए तन मन धन से संघर्ष भी किया था।
7वीं सदी के बाद यहाँ पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना आरम्भ किया। 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में लेने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद यहाँ के हिन्दू और बौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान आरम्भ हुआ। इसके उपरांत भी हिंदूवीरों ने पराजय स्वीकार नहीं की, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वह लड़ते रहे। सैकड़ों वर्षों के संघर्ष और असंख्य बलिदानों के उपरांत 1019 ई. में जाकर हिंदुओं ने उस समय अपनी पराजय स्वीकार की जब वह संख्या में बहुत कम रह गए और लगभग सारे अफगानिस्तान का इस्लामीकरण हो गया। इस समय यहाँ पर हिंदू नायक राजा त्रिलोचनपाल का शासन था। जिसे महमूद गजनवी ने 1019 ईस्वी में पराजित किया था। जो लोग कल तक इस देश की पवित्र भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माना करते थे, उन्हीं की दृष्टि में भारतवर्ष की यह पवित्र भूमि ‘काफिरिस्तान’ होकर रह गई। उन्होंने इसे छोड़ कर मुसलमान बनकर नए धर्म की राह पकड़ ली। यद्यपि यह सब कुछ बहुत सहज और सरल ढंग से नहीं हो गया था। सैकड़ों वर्ष तक वह अपना रक्त इसलिए बहाते रहे कि उन्हें अपनी पवित्र भूमि ना छोड़नी पड़े, न धर्म छोड़ना पड़े, न संस्कृति छोड़नी पड़े, परंतु अंत में शत्रु की जीत हुई और उन्हें मजबूर होकर अपना देश, अपनी संस्कृति और अपना धर्म छोड़ना पड़ गया।
जो लोग आज कश्मीर में कश्मीर की संस्कृति को बदलकर अपने धर्म और संस्कृति को उस पर थोपने के प्रयासों में लगे हैं, वह इतिहास के उसी काले अध्याय को यहाँ दोहरा देना चाहते हैं जो कभी अफगानिस्तान में लिखा गया था। जो लोग कश्मीर में हो रही घटनाओं को सामान्य घटना मान रहे हैं, वह इतिहास के तथ्यों से आँखें मूंद रहे हैं। इतिहास को वही लोग दोहराते हैं जो इतिहास से आँखें फेर लेते हैं और वही लोग इतिहास की पुनरावृति को रोक कर खड़े हो जाते हैं जो इतिहास की एक-एक घटना का सूक्ष्मता और सजगता के साथ अवलोकन करते हैं।
कासिम के जाने के बाद बहुत से क्षेत्रों पर फिर से भारतीय राजाओं ने अपना अधिकार जमा लिया था। भारत के बप्पा रावल का प्रयास बहुत ही प्रशंसनीय था। जिसने चित्तौड़ से लेकर ईरान तक अपना शासन स्थापित किया और मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से उपजे अपमान के घावों को धोकर रख दिया था। इस महानायक ने न केवल आर्य जाति को फिर से गौरव के भावों से भर दिया, अपितु शत्रुओं को भी यह आभास करा दिया कि भारत का पौरुष अभी जीवित है और यदि उसकी ओर किसी ने आँख उठाकर देखने का साहस किया तो उसकी आँखें निकाल ली जाएँगी। भारत के उस शेर का इतिहास में वंदनीय स्थान है। यद्यपि इस काल में भी सिन्ध के राज्यपाल जुनैद ने सिन्ध और आसपास के क्षेत्रों में इस्लामिक शासन को जमाए रखा। जुनैद ने कई बार भारत के अन्य भागों पर आक्रमण किए, जिनमें वह सफल नहीं हो पाया। नागभट्ट प्रथम, पुलकेशी प्रथम एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इसे पीछे खदेड़ दिया। भारत के इन महान् शासकों का योगदान भी बहुत ही प्रशंसनीय है, जिन्होंने अरब आक्रमणकारियों को भारत की पवित्र भूमि पर या तो प्रवेश करने से रोका या प्रवेश करने के उपरांत अपने देश लौट जाने के लिए विवश कर दिया।
यहाँ पर गलती हमारे इन शासकों से केवल यह हो रही थी कि उन्होंने कभी किसी विदेशी शासक को पकड़कर उसका प्राणान्त नहीं किया, यद्यपि राक्षसवृत्ति के इन लोगों का उपचार यही था कि इन्हें पकड़ा जाता और फांसी पर लटका दिया जाता। परंतु हमारा क्षत्रिय धर्म शरण में आए हुए लोगों के साथ या पराजित योद्धाओं के साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार करने की अनुमति नहीं देता था। बस, यही 'सद्गुण विकृति' हमारे महान् शासकों को ऐसा कुछ करने से रोकती रही जो आक्रामक लोगों के लिए अपेक्षित था। अंत में इसी 'सद्गुण विकृति' ने हमें विदेशी आक्रमणकारियों के सामने झुकने के लिए विवश कर दिया।
कौन था मुहम्मद बिन कासिम ?
मुहम्मद बिन कासिम इस्लाम के प्रारंभिक काल में उमय्यद खिलाफत का एक अरब सिपहसालार था। 17 वर्ष की अवस्था में ही उसे भारतीय उपमहाद्वीप पर हमला करने के लिए भेज दिया गया था। कासिम का जन्म सउदी अरब में स्थित ताइफ शहर में हुआ था। वह अल-सकीफ कबीले का सदस्य था। उसके पिता कासिम बिन युसुफ थे, जिनके देहांत के बाद उसके ताऊ हज्जाज बिन युसुफ ने उसे संभाला। उसने हज्जाज की बेटी जुबैदाह से शादी कर ली और फिर उसे सिंध पर मकरान तट के रास्ते से आक्रमण करने के लिए रवाना कर दिया गया। कासिम के अभियान को हज्जाज कूफा नामक शहर में बैठकर नियंत्रित कर रहा था।
कासिम की मृत्यु
मोहम्मद बिन कासिम की मृत्यु के बारे में यदि विचार किया जाए तो ‘चचनामा’ नामक ग्रंथ से हमें उसकी मृत्यु के संबंध में जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार हमारा मस्तक राजा दाहिर सेन की बेटियों के समक्ष अनायास ही झुक जाता है। जिन्होंने अपने बौद्धिक कौशल और चतुराई से इस विदेशी आक्रामक को उसी के खलीफा से मौत की नींद सुलवा दिया था। ‘चचनामा’ नामक ऐतिहासिक दस्तावेज के अनुसार कासिम ने जब राजा दाहिर सेन की बेटियों को तोहफा बनाकर खलीफा के लिए भेजा तो खलीफा ने इसे इसलिए अपना अपमान समझा कि उसे राजा दाहिर सेन की बेटियों ने यह बता दिया था कि मोहम्मद बिन कासिम ने उनका शीलभंग कर अब उन्हें आपके योग्य नहीं छोड़ा है। ऐसे में खलीफा ने आगबबूला होकर मोहम्मद बिन कासिम को ऊँट या बैल की खाल में सिलवाकर भारत से अपने पास बुलाने का आदेश दिया। उसकी आज्ञा का यथावत पालन किया गया और इसी घटना में मोहम्मद बिन कासिम का अंत हो गया।
लेकिन बाद में खलीफा को पता चला कि दाहिरसेन की बेटियों ने झूठ बोला तो उसने तीनों बेटियों को जिन्दा दीवार में चुनवा दिया। कुछ भी हो अपना बलिदान देकर इन बेटियों ने अपने धर्म, अपनी संस्कृति और अपने देश के सम्मान की रक्षा की। साथ ही उन्होंने एक अत्याचारी, क्रूर, विदेशी आक्रांता को भी उसकी करनी का फल दे दिया। ऐसी महान् बेटियों को इतिहास में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सम्मान मिलना चाहिए। यह वह क्रांतिकारी सन्नारियाँ थीं, जिन्होंने भारत सहित अफगानिस्तान की तत्कालीन परिस्थितियों में अपूर्व सेवा की थी।
दूसरी घटना में ईरानी इतिहासकार बलाजुरी के अनुसार कहानी अलग थी। नया खलीफा हज्जाज का दुश्मन था और उसने हज्जाज के सभी सगे-संबंधियों को सताया। बाद में उसने मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुलवाकर इराक के मोसुल शहर में बंदी बनाया और वहीं उस पर कठोर व्यवहार और पिटाई की गई, जिसके चलते उसने दम तोड़ दिया।
हमारी अपनी सम्मति पहली वाली घटना से है।
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है)