काम नचाता मनुज को, मारग पकड़े प्रेय।

विशेष – मनुष्य को जीवनभर कौन नचाता है ?

काम नचाता मनुज को,
मारग पकड़े प्रेय।
कामना से बढ़ै कामना,
मारग भूलै श्रेय॥2629॥

तत्त्वार्थ:- काम अर्थात् इच्छा, स्पृहा ये आकाश की तरह अनन्त है जो जीवनभर पूर्ण नहीं होती हैं। कैसी विडम्बना हैइच्छाओं से भी इच्छाएँ बढ़ती चली जाती हैं । इनकी पूर्ति के लिए मनुष्य कई बार प्रेय-मार्ग पर चल पड़ता है मायावाद में फंस जाता है। ऐसे कुकृत्य भी करता है जो उसे नहीं करने चाहिये । इतना ही नहीं उसे अपने आदर्श से गिरा देती है। वह श्रेय – मार्ग को त्याग कर अर्थात-भक्ति- भलाई और प्रभु प्राप्ति के लक्ष्य को छोड़कर कुमार्ग पर चल पड़ता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि रह अपनी कामनाओं पर सर्वदा नियन्त्रण रखे ।

विशेष – क्या आप जानते हैं ? आपका निजी स्वभाव क्या है?

क्रोध ईर्ष्या द्वेष तो,
सारे विजातीय भावा।
शान्ति प्रेम आनन्द ही ,
मानव तेरा स्वभाव॥2630॥

भावार्थ :- प्रायः देखने में आता है – धन-दौलत पद-प्रतिष्ठा पाने पर भी मन की शान्ति को तरसता जबकि चित्त में ईर्ष्या-द्वेष क्रोध इत्यादि मनोविकारों की अग्नि दहकती रहती है जिनके कारण उसकी आत्मा अशान्त और दुःखी रहती है। क्या कभी सोचा है आपने ईष्या द्वेष, कोध तो आत्मा के विजातीय भाव है। आत्मा के सजातीय भाव तो शान्ति प्रेम, आनन्द है। जब तक मनुष्य इनमें जीवन जीता तब तक हमारी आत्मा को सुकून मिलता है, अन्यथा नहीं। अतः अपनी आत्मा के स्वभाव में जीना सीखो ।

भक्ति के संदर्भ में कुछ विशेष दोहे : –

भक्ति का संस्कार जब,
चित में प्रबल होय।
बन्धन जग के तोड़ दे,
मनुआ हरि में खोय॥2931॥

प्रभु – कृपा से ही मिलें ,
श्री कीर्ति वाक।
प्रभु – कृपा का पात्र हो,
जिसका चित्त हो पाक॥2632॥

तू तेरा कहता नहीं,
मैं मेरा कहे रोज ।
प्रभु – नाम लेता नहीं ,
करी ना मैं की खोज॥2633॥

‘मैं” ‘यह’ और ‘वह’ को ,
जान सके तो जान ।
प्रेरक भोक्ता भोग्य हैं,
कर इनकी पहचान॥2634॥

नोट : – मैं अर्थात् आत्मा , यह अर्थात् संसार, प्रकृति, वह अर्थात् परमात्मा प्रेरक अर्थात् परमपिता परमात्मा , भोक्ता अर्थात् जीवात्मा, भोग्य अर्थात् प्रकृति।

हरि कृपा से ही मिलें,
विद्या विजय विवेक ।
प्रारब्ध होय महान तो ,
विभूति मिलें अनेक॥2635॥

मुक्ति से भक्ति भली ,
भाव देने का होय ।
मुक्ति में तो भावना ,
लेने की ही होय॥2636॥

चित्त का चिन्तन जब जुड़े, ओंकार के साथ।
काल – चक्र अनुकूल हो,
जुड़े अनेकों हाथ॥2637॥

तेरी लीला को प्रभु,
जान न पाया कोय।
मन – बुद्धि से तू परे,
कैसे जानै कोला॥2638॥

ब्रह्म – रस बरसे तभी ,
मन हरि में लग जाय ।
सुध-बुध भूले देह की,
नयनों नीर बहाय॥2639॥

श्रद्धा गहरी होय तो,
मन हरि में रम जाये।
ब्रह्म-रस बरसन लगे,
मन में मोद समाय॥2640॥

आत्मा से जुड़ना सदा,
कहलाता आनन्द।
शान्ति-प्रेम बढ़ने लगे,
मन होवौ निर्द्वन्द ॥2641॥

वैश्वानर कहते तुझे,
जगत है तेरा रूप।
सत – चित्त और आनन्द है,
तेरा अमूर्त स्वरूप॥2642॥

शरीर मिला संसार से,
कर जग के उपकार।
आत्मा अंश है ईश का ,
जपो नित्य ओंमकार॥2643॥
क्रमशः

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