भारत करे कड़वे सत्य का सेवन- ‘शेष’ जो भी है, वह ‘अवशेष’ मात्र है [भाग 1]

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डॉ आनंद पाटील

हंसराज रहबर के ग्रंथ ‘नेहरू बेनकाब’ (भगतसिंह विचार मंच, दिल्ली 2005) के आमुख में लिखित वृतांत– “शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कड़वी दवा का सेवन और मानसिक स्वास्थ्य के लिए कड़वे सत्य का सेवन आवश्यक है।” (पृ. 5) पर सबका ध्यानाकर्षण अनिवार्यतः आमंत्रित है।

आगे इसी ग्रंथ में उनका परामर्श प्रकारांतर से उल्लेखनीय तो है ही, ग्राह्य भी है– “भ्रम पालना और भूलों को दोहराना मौत है। भूलों को सुधारना और ताज़ादम होकर आगे बढ़ना ज़िंदगी है।” (पृ. 112) इस वृतांत और परामर्श का अनुसरण किसी भी समुदाय-समाज के लिए जीवनावश्यक है अन्यथा ‘इरादतन’ उपस्थित की गईं चुनौतियों और घातक प्रहारों का समुचित उत्तर न देने पर निश्‍चय ही ‘मौत’ हो जाती है।

ब्रिटिश इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयन्बी द्वारा अपने ग्रंथ ‘अ स्टडी ऑफ़ हिस्टरी’ (1934) में प्रतिपादित ‘चुनौती-प्रतिक्रिया-शक्तिसंचय-प्रत्यागमन’ के सिद्धांत को सदविवेक से समझना होगा और राष्ट्र एवं स्वधर्म की रक्षा हेतु ‘सायास प्रयास’ करना होगा अन्यथा वे दिन दूर नहीं, हमें (हिंदू) विलुप्त प्रजातियों में शुमार किया जाएगा।

सत्य है कि हमें कड़वी दवाएँ नहीं भातीं और कड़वा सत्य बोलने के लिए जिस ‘आत्मिक बल’ की आवश्यकता होती है, हमारी पीढ़ियों में वह या तो क्षीण हो चुका है या ध्वस्त ही हो चुका है। अपने कुटिल बौद्धिक चातुर्य से भ्रष्ट और बेईमानों ने अत्यंत चतुराई से हममें ही अपने धर्म के प्रति अनास्था का भाव जाग्रत कर दिया है।

‘सेक्यूलरिज़्म’ का जाल बुनने वाले इन बौद्धिक बेईमानों ने हमारी मानसिकता को इस क़दर वश में कर लिया है कि हम किसी धर्म विशेष की ‘अराजकता’ और ‘धर्मोन्माद’ की आलोचना करने से काँप उठते हैं। यह ‘बौद्धिक अनुकूलन’ ‘सेक्यूलरिज़्म’ का डंका पीटने वाले नेहरू से ही आरंभ हो गया था और उसे पूर्णतः ठोस रूप देने का काम ‘आपातकाल’ के दौरान कर दिया गया।

‘सेक्यूलरिज़्म’ और गांधी का ‘अहिंसा दर्शन’ हम पर इस क़दर हावी है कि हम प्रायः ‘मार खा रोई नहीं’ वाली मुद्रा में मेमनों की तरह मिमियाते रहते हैं। भारत को एकता-सूत्र में बाँधने वाले देश के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल ने ऐसे (मिमियाते) लोगों से अपील की थी, जो 2 दिसंबर 1946 को ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में प्रकाशित हुआ था और डॉ प्रभा चोपड़ा द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारत विभाजन’ में संकलित है–

“वे (लोग) पुलिस व मिलिट्री सहायता पर निर्भर रहने के बजाय आत्मरक्षा की भावना विकसित करें। …यदि आप गांधी जी के पदचिह्नों पर चलते हुए अहिंसात्मक प्रतिरोध नहीं कर सकते हैं तो आप कम-से-कम एक बहादुर व्यक्ति की तरह अपने तरीक़े से लड़ तो सकते हैं। पुलिस को उनके अप्रतिपालित कर्तव्यों के लिए आरोपित करने के बजाय आप स्वयं पुलिस का कार्य करना सीखिए।” (प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 2014, पृ. 166)

उनके अनेकानेक वक्तव्य तत्कालीन ‘मुस्लिम लीग’ जनित-प्रेरित-पोषित अराजकता के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए प्रेरणादायी थे। इसी प्रलेख के कुछ अंश उल्लेखनीय हैं–

“यदि दंगे व्यापक रूप से जारी रहते हैं तो सरकार के लिए यह कठिन होगा कि वह हर जगह पुलिस सुरक्षा उपलब्ध करा पाए। लोगों को गुंडों के चाकुओं से अपनी रक्षा स्वयं करना चाहिए और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए संगठित होना चाहिए। …यदि आप गांधीवादी तरीके से– अहिंसात्मक रूप से अपना बचाव नहीं कर सकते तो हिंसक रूप से कीजिए, किंतु अपने आपको बचाइए।”

उन्होंने ज़ोर देकर कहा, “यदि आपको मारने के लिए कोई आता है तो आपको पूरा अधिकार है कि आप उस पर प्रहार करें।” (वही, 167–168) ये उद्गार तत्कालीन गृह मंत्री के हैं।

इस देश ने कितना कुछ सहा है! ‘कलकत्ता किलिंग्स’, नोआखली का हृदय विदारक हत्याकांड, विभाजन की विभीषिका, अनेकानेक आतंकवादी हमले, दंगे आदि परंतु कट्टरपंथी मुसलमानों के जिहादी मनसूबों और हरक़तों के बावजूद ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का अध्याय अब तक समाप्त नहीं हो पाया है।

नेहरू के ‘सेक्यूलरिज़्म’ को ‘आपातकाल’ में जो ठोस रूप मिला उसे मोदी के शासन में आते ही ‘असहिष्णुता’ की चर्चा-परिचर्चा को बढ़ावा देने वाले बौद्धिक बेईमानों ने अकाट्य बनाने का हर संभव कार्य किया। ऐसे में हंसराज रहबर का उपरोक्त तात्विक चिंतन सबके लिए स्मरणीय और अनुकरणीय है।

हमें ‘कड़वी दवा’ और ‘कड़वे सत्य’ के लिए सतत तत्पर रहना चाहिए, भ्रमों को दूर कर अपने जीवन को सुंदर और ‘ताज़ादम’ बनाने में सतत प्रयासरत रहना चाहिए। जो ये सीख भूल जाते हैं, उन्हें धार्मिक अतिवादी उन्माद में रंगे दगाबाज़ों द्वारा या तो मौत के घाट उतार दिया जाता है या वे अपनी अस्मिता और अस्तित्व खो बैठते हैं।

कश्मीर में पंडितों के साथ जो हुआ (किया गया!), वह उपरोक्त दो चिंतनीय वक्तव्यों के आलोक में पुनः स्मरणीय है, अतः अनुकरणीय है। अतिवादी धर्मोन्मादी तत्वों का निरंतर शनैः-शनैः भारत ग्रास करते जाना यह आभास करा जाता है कि ‘शेष’ जो भी है, वह ‘अवशेष’ मात्र है!

इन दिनों संपूर्ण देश में क़ानूनन ‘लॉकडाउन’ घोषित है यद्यपि कुछ (?) बिगड़ैल शैतानों की हरक़तों से भारत को आपदा की दुर्जेय और घनीभूत परिस्थितियों में धकेलने का निरंतर प्रयास हुआ है (हो रहा है!)। यह शत प्रतिशत सत्य है कि समस्या इस देश (भूमि) के साथ नहीं, इस देश के लोगों के चरित्र के साथ है!

इस समस्या का मूल आधार खोजने के प्रयासों से यह निश्‍चित हो जाता है कि शिक्षा में ‘चरित्र निर्माण’ और भारतीय ‘आध्यात्मिक पक्ष’ को अत्यंत चतुराई से केवल नज़रंदाज़ ही नहीं किया गया अपितु योजनाबद्ध तरीक़े से अनुपयोगी एवं अनुपयोज्य घोषित कर पाठ्यक्रमों में हाशिए से बाहर धकेल दिया गया है।

इस देश ने अखिल विश्‍व को ‘मनुष्यत्व’ का वास्तविक अर्थ समझाया– विद्या, विनय, विवेक, प्रकृति, प्रेम, शांति, समभाव, सद्‍भाव का पाठ पढ़ाया– “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।”; “विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय। खलस्य साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।”; “विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाध्दनमाप्नोति धनाध्दर्मं ततः सुखम्” आदि।

किंतु भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुसरणकर्ताओं को ‘आयातित विचारधारा’ का अनुसरण करने वाले राष्ट्रद्रोही ग़ुलामों ने प्रायः भारत-व्याकुल को दक्षिणपंथी, राष्ट्रवादी ही नहीं कहा अपितु उससे आगे बढ़ कर एक संज्ञा विशेष से सृजित-प्रचारित-प्रसारित कर दिया– ‘भगवाधारी सांप्रदायिक’ और जो अतिवादी मज़हबी जुनून का विरोध-प्रतिरोध करता है, उसे ‘सांप्रदायिक’, ‘हिंदू आतंकवादी’, ‘इस्लामोफोबिक’ कहकर उसमें हीनता-ग्रंथि विकसित करने का सतत प्रयास किया।

बर्फीली सर्दी रात में चारों ओर से रेगिस्तान में फँसे ‘अरब और ऊँट की कथा’ तो सुनी ही होगी? रात के प्रहर बीतते-बीतते अरब के तंबू में पहले ऊँट की गर्दन आई, फिर क्या, धीरे–धीरे अरब तंबू के बाहर और ऊँट तंबू के भीतर पूरी तरह जम गया।

अरब पहले तो रात भर ठंड में ठिठुरता रहा, फिर उसका शरीर अकड़ता ही गया और फिर वह धीरे–धीरे इस मर्त्यलोक से विदा हुआ। हमारी घटी हुई सीमाएँ, विखंडित भारत और निरंतर टुकड़े-टुकड़े करने वालों के मनसूबों को इस कहानी के आलोक में देखने की आज नितांत आवश्यकता है।

यद्यपि हमें स्मरण करना (रखना!) होगा कि हमारी प्राचीन शिक्षा का मूल आधार किन्हीं अन्यान्य बातों के होते हुए भी, विशेष रूप से ‘चरित्र निर्माण’ रहा है तथापि हमारी नीतिगत शिक्षाएँ यह भी बताती हैं कि जो अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता, वह राष्ट्र की भला रक्षा कैसे कर सकेगा?

आश्‍चर्य नहीं कि उद्दंड और मनोविकारग्रस्त दुर्योधन की धृष्टता और कदाचार के बावजूद भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और युधिष्ठिर उसके पापयुक्त मन-मस्तिष्क में सतत संयम, सदाचार और सदसदविवेक को रोपित करते रहने से नहीं चूकते।

यह भी स्मरण रखना होगा कि किसी भी चारित्रिक पतन के लिए ‘गांधार’ (वर्तमान अफगानिस्तान का पूर्वोत्तर और पाकिस्तान का उत्तर–पश्‍चिम प्रांत जो कि इस्लामिक आक्रांताओं के ज़द में आकर प्रत्याहार के कारण पराजित होकर इस्लामिक राष्ट्र में तब्दील हो गया) प्रांत के शकुनी जैसे इने-गिने दुरभिसंधि रचने वाले महापातकी शठों ने राष्ट्र को भीषण संकटों में फाँस दिया और ‘भारतवर्ष’ को क़तरा-क़तरा काटकर विभाजित कर देने में अपना संपूर्ण योगदाय किया।

हमें इतिहास पढ़ाया भी गया तो आक्रांताओं के महिमामंडन वाला इतिहास ही ठूँस-ठूँसकर परोसा गया। नतीजतन राजनीतिक वर्चस्व से सत्ताहस्तागति की भावना से लबालब मनोवांछित नैरेटिव निर्माण पर बल दिया जाता रहा।

ऐसे चारण चरित्र वाले इतिहासकारों द्वारा रचे-गढ़े हुए इतिहास को पढ़कर आप जानेंगे कि हिंदुओं का पद-दलन करने वाले पिशाच को ‘दीन-ए-इलाही’ और ‘मुहब्बत का बादशाह’ के रूप में महिमामंडित किया गया और ‘ताजमहल’ को प्रेम-प्रतीक के रूप में प्रस्तुत-प्रचारित किया गया।

हमें बताया-पढ़ाया गया कि भारतवर्ष के राजाओं ने जनता से कर वसूली कर मंदिर बनवाये और धर्म को बढ़ावा दिया तथा जो भारत को 17 बार लूट गया, उसने उस लूट के पैसे से ग़ज़नी शहर को रचाया-बसाया। हमें यह शिक्षा दी गयी कि हम लुटेरों का सम्मान करें और अपनी सांस्कृतिक-आध्यात्मिक धरोहर की अवहेलना करें। (इस पक्ष पर शीघ्र ही तथ्यात्मक लेख प्रस्तुत करुँगा।)

ऐसी पंगु शिक्षा का परिणाम यह हुआ कि हमें अपने हिंदू धर्म में विकृतियाँ दिखायी देती हैं। उच्चादर्शों की स्थापना करने वाले प्रभु श्रीराम के चरित्र में खोट निकाले जाते हैं और उन्हें येन-केन-प्रकारेण अपमानित करने का उद्यम रचा-गढ़ा जाता है। हमें यथाशीघ्र इस स्थिति से ऊपर उठना होगा। यही आज के समय का ‘हितोपदेश’ है।

कश्मीर में जो पंडितों के साथ हुआ, उसे बहुत लंबे समय तक भारत के अन्य हिस्सों में पहुँचने ही नहीं दिया गया। कश्मीरी पंडितों की हत्याओं के साथ-साथ उनका प्राण बचाकर अपनी मातृभूमि से पलायन कर जाना और भेड़-बकरियों की तरह एक छोटी-सी जगह में ठूँस-ठूँसकर भरा जाना, घुट-घुटकर जीना, उनके आराध्यों के पावन स्थलों का तोड़ा जाना उससे कम भयानक नहीं था।

ऐसा केवल इसलिए हुआ क्योंकि वे हिंदू थे तिस पर सहिष्णू थे तथा सभी कौमों के साथ सामुदायिक जीवन बिताने में विश्‍वास करते थे। जो भी आता गया उसे भातृ-भाव से बसने-रचने दिया। ‘हिंदुत्व’ के इसी संवेदनशील और सहिष्णु पक्ष ने हिंदुओं की स्थिति उस अरब की तरह हो चुकी है।

एक समय था, कश्मीर घाटी हिंदुओं की धर्म और उपासना स्थलि हुआ करती थी। धीरे-धीरे इस्लाम के आतंक ने उसे जहन्नुम में तब्दील कर दिया। कश्मीरी पंडितों की हत्या और पलायन की कहानी दिल दहला देने वाली है। वहाँ के हिंदुओं ने धीरे-धीरे समझा कि सौहार्द से यहाँ अब जीना दुभर है तो पलायन कर अपना आशियाना छोड़ अस्तित्व और अस्मिता बचाने में जुट गए। आज इस्लाम के खिलाफ़ बोलने की ही नहीं अपितु उनके मनोरोग का इलाज़ करने की भी ज़रूरत है।

कश्मीर के ‘शैववाद’ (सिद्धांत) को लोगों ने भुला दिया है। सोमानंद, उत्पलदेव, अभिनव गुप्त और क्षेमराज को भी लोग भुला ही चुके हैं। यह सब हुआ क्योंकि ‘कश्मीर हमारा है’ नारों के निनाद में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ ने अपनी गहरी पैठ बनाई और हिंदुओं को बेदखल-बेघर कर दिया।

आज भी ‘अल्पसंख्यक’ शब्द में रचे कुचक्र को ढाल बना कर जो अराजकताएँ हो रही हैं, उन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। उदारवादी मुसलमान कट्टरपंथी मुसलमानों की आलोचना नहीं करते और न जाने कितने ही कश्मीरी पंडित, कितने ही परमशिवम और रामलिंगमों की हत्याएँ इस देश में आए दिन होती हैं, इसकी शुमार नहीं!

कट्टरपंथी इस्लामी जिहादी अराजकता से तथा ईसाई मिशनरियाँ सुनियोजित रूप से लालच प्रलोभन की सहायता से हिंदुओं का सफ़ाया करने में जुटी हुई हैं। गिर चुके और निरंतर गिरते हुए मंदिर, बढ़ते हुए चर्च और मस्जिदों से भी इस सफ़ाया का अनुमान लगाया जा सकता है। सद्भावना और सौहार्द की भावना वाला हिंदुत्व अपने अंत की ओर है। स्वलिखित कविता ‘छोटी नदी की बड़ी कहानी-1’ की आरंभिक पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं–

“नदी के इस छोर पर- एक मंदिर है कमनसीब
और मंदिर के भीतर एक मूर्ति है, अपनी छिन्न-भिन्न अवस्था में
बेसहारा-बेबस-लाचार मूर्ति (ईश्‍वर) की नाक और तर्जनी कटी हुई है
यह कैसा समय चक्र कि ईश्‍वर के चेहरे पर निरीहता झलक रही है
अभेद्य मंदिर प्राचीर भी अब लड़खड़ा रहा है
और ईश्‍वर के एकाकीपन का एकमात्र साथी, अभेद्य सन्नाटा, पहरा दे रहा है
यहाँ के पुरखे-पुरखिन बताते हैं, इस मंदिर ने झेले हैं कई आक्रमण
नानाविध झंझावात कि पुरोहितों ने भी किया इस मंदिर का त्याग, कहा- मंदिर है यह अभिशप्त”

हिंदू समाज में इस मानसिकता का अनुकूलन किया गया है कि इस्लाम बहुत ही उम्दा कौम (शांतिप्रिय!) है। जाहिल यदि कोई है तो सनातनी हैं और उनमें सांप्रदायिकता कूट-कूटकर भरी हुई है। इस आरोप के कारण बहुतांश हिंदुओं को ‘हिंदू’ कहलाने में शर्म का अनुभव होता है। यह मनोग्रंथि बहुत गहरे पैठ कर अक्षयवट की भाँति विकसित कर दी गई है।

हम ‘सेक्यूलर’ कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं और कश्मीरी पंडितों की सी स्थिति पर वही तक़िया क़लाम भिड़ाए रहते हैं कि कुछ बुरे लोगों ने यह कृत्य किया था। जबकि कट्टरता प्रवाही इस्लाम के विस्तार के सत्य से कोई भी अनजान नहीं है। यह सर्वत्र प्रसारित-प्रचारित भी किया गया है कि कोई मज़हब बुरा नहीं होता, कुछ-कुछ इंसान हर मज़हब में बुरे होते हैं।

ऐसे ही तर्कवान बेईमान बौद्धिक एवं राजनेताओं ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के तर्ज पर ‘हिंदू आतंकवाद’ भी ईजाद कर दिया। इस्लामिक आतंकवाद की ज़द में कुछ ही उदारवादी मुसलमान शेष रह गए हैं और उन्हें भी निरंतर जिहाद का पाठ पढ़ाते हुए मौलानाओं को हाल ही में देश ने देखा-परखा है।

…क्रमशः

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