कलियुगी जीवन का विनाशकारी उपभोक्तावाद क्या है?
दानाय मनः सोमपावन्नस्तु तेऽर्वांचा हरी वन्दनश्रुदा कृधि।।
यमिष्ठासः सारथयो य इन्द्र ते न त्वा केता आ दभ्नुवन्ति भूर्णयः।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.55.7
(दानाय) दान देने के लिए, कल्याण के लिए (मनः) मन (सोम पावन) शुभ गुणों, महान् दिव्य ज्ञान का पान करने वाला (अस्तु) हो (ते) आपका (अर्वांचा) अन्तर्मुखी (हरी) सब इन्द्रियाँ (वन्दनश्रुत) परमात्मा की महिमागान सुनने वाला (आकृधि) पूरी तरह करने वाला (यमिष्ठासः) पूर्ण नियंत्रण (सारथयः) सारथी, बुद्धि (य) जो (इन्द्र) इन्द्रियों का नियंत्रक (ते) आप (न) नहीं (त्वा) आपके लिए
(केताः) ज्ञान (आदभ्नुवन्ति) हिंसक, सब तरफ से विपत्ति पैदा करने वाला (भूर्णयः) पालन-पोषण से सम्बन्धित।
व्याख्या:-
वैदिक विवेक से परिपूर्ण जीवन के आधारभूत लक्षण क्या होते हैं?
ऐसा व्यक्ति जो शुभ गुणों तथा महान् दिव्य ज्ञान का पान करने में इच्छुक है, वह अपना मन दान करने और कल्याण करने में लगाये रखे।
ऐसा व्यक्ति जो परमात्मा की महिमा सुनने का इच्छुक है, वह अपनी इन्द्रियों को पूरी तरह से अन्तर्मुखी रखे, इन्द्र अर्थात् इन्द्रियों के नियंत्रक, एक अच्छे सारथी की तरह तुम्हारी बुद्धि तुम्हारी इन्द्रियों को पूरी तरह नियंत्रण में रखे।
तुम्हारे भरण-पोषण से सम्बन्धित तुम्हारा ज्ञान तुम्हारे लिए हिंसक या बाधा उत्पन्न करने वाला न हो।
जीवन में सार्थकता: –
कलियुगी जीवन का विनाशकारी उपभोक्तावाद क्या है?
वर्तमान कलियुग का व्यक्ति जो भी ज्ञान या विकास कर रहा है वह अन्ततः उसके स्वयं के लिए हिंसक और कठिनाईयाँ उत्पन्न करने वाला बन जाता है, यदि उसके जीवन में वैदिक विवेक का अभाव हो।
(क) यदि व्यक्ति दूसरों के कल्याण के लिए अपनी सम्पदा दान करने का अभ्यस्त नहीं है।
(ख) यदि उसकी इन्द्रियाँ और मन अन्तर्मुखी नहीं हैं।
(ग) यदि उसकी बुद्धि अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करने के लिए अभ्यस्त नहीं हैं।
इन अवस्थाओं में व्यक्ति स्वयं के लिए ही विनाशक बन जाता है। देखने में वर्तमान युग का आदमी प्रगतिशील है परन्तु वास्तव में वह एक शांतिपूर्ण और श्रेष्ठ जीवन के लिए आवश्यक मूल लक्षणों का नाश करता जा रहा है। यह न तो प्रगति है और न ही विकास है। यह कलियुगी जीवन का विनाशकारी उपभोक्तावाद है।
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टीम
पवित्र वेद स्वाध्याय एवं अनुसंधान कार्यक्रम
द वैदिक टेंपल, मराठा हल्ली, बेंगलुरू, कर्नाटक
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