Categories
संपादकीय

घटता हिंदू – मिटता हिंदू , कौन सुनेगा पुकार ?

सचमुच यह खबर दु:खी करने वाली है कि भारतवर्ष में पिछले 65 वर्ष में हिंदुओं की जनसंख्या 8% कम हो गई है। जबकि इस दौरान मुस्लिम जनसंख्या 9.84 प्रतिशत से बढ़कर 14.09% हो गई है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की रिपोर्ट में ‘धार्मिक अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी का देशभर में विश्लेषण’ नामक विषय के माध्यम से बताया गया है कि पारसी और जैन समुदाय को छोड़ दें तो भारत के सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी में कुल 6.58% की वृद्धि हुई है।
भारतवर्ष के सनातनी हिंदुओं को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है कि अनेक हिंदूवादी संगठनों के शोर मचाने के उपरांत भी हिंदू अपनी जनसंख्या के प्रति इतना बेपरवाह क्यों है ? वर्तमान उपस्थित परिस्थिति का सामना करने के लिए हिंदू को या तो अपनी जनसंख्या अधिक बच्चे पैदा करके बढ़ानी होगी या फिर सरकार पर इस बात का दबाव बनाना होगा कि वह समान नागरिक संहिता लागू करके सभी देशवासियों के लिए यह कानून लाए कि किसी को भी दो से अधिक बच्चा पैदा करने की अनुमति नहीं होगी। जब एक वर्ग के लोग बार-बार यह कहते हों कि लोकतंत्र वोटों की गिनती के आधार पर टिका है और हम अधिक बच्चे पैदा करके देश की जनसंख्या के आंकड़ों में गड़बड़ी पैदा कर यहां पर निजी कानून लागू करेंगे तो यह चिंता और भी अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि जिस दिन यह स्थिति आएगी उस दिन वर्तमान संविधान ताक पर रख दिया जाएगा। इस संविधान के द्वारा हमें समानता,न्याय और सामाजिक समरसता का जो पाठ पढ़ाया जाता है उसे भी उठाकर एक ओर रख दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त भाईचारे का जो संदेश वर्तमान संविधान देता है, उसके अर्थ भी परिवर्तित हो जाएंगे।
उपरोक्त रिपोर्ट का अध्ययन हमें स्पष्ट करता है कि बहुसंख्यक हिंदुओं की आबादी 1950 और 2015 के बीच 7.82% घट गई है। जबकि मुस्लिमों की आबादी में 43.15% की वृद्धि हुई है। मुस्लिमों की 1950 में 9.84% रही आबादी 14.09% पर पहुंच गई है। ईसाई धर्म के लोगों की आबादी की हिस्सेदारी 2.24% से बढ़कर 2.36% हुई है। ठीक ऐसे ही सिख समुदाय की आबादी 1.24% से बढ़कर 1.85% हो गई है।
इन आंकड़ों से भारत के भयावह भविष्य की तस्वीर जब उभर कर सामने आती है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हम किसी भी संप्रदाय के विरोधी नहीं हैं, पर किसी संप्रदाय की उन निजी मान्यताओं और धारणाओं के विरोधी हैं जो कथित सांप्रदायिक नैतिकता के आधार पर सारे देश को बंधक बनाने या देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को उजाड़ कर जंगल राज कायम करने की 14वीं शताब्दी की योजनाओं में आज भी व्यस्त हो। आज के सभ्य समाज द्वारा यदि देश के बहुसंख्यक समाज को फिर उसी दौर में धकेला जा रहा है जिससे लाखों बलिदान देने के पश्चात वह बाहर निकल कर आया है तो ऐसा सभ्य समाज भाड़ में जाए। हमें किसी भी प्रकार के तुष्टीकरण या इतिहास के उन प्रेत पिशाचों की छाया से मुक्त होना ही पड़ेगा जिन्होंने हमारे पूर्वजों को खून के आंसू रोने के लिए मजबूर किया था।
प्रधानमंत्री मोदी की सरकार को चलते हुए अब 10 वर्ष हो चुके हैं। जिस प्रकार मोदी के आने से पहले भारत की जनसंख्या के आंकड़ों को बिगाड़ कर देश के संविधान देश की मान्यताओं और देश के सनातन के मूल्यों के साथ उलटफेर करने की तैयारी की जा रही थी, वह किसी से छिपा नहीं है। प्रश्न यह है कि यह उलटफेर क्या था और इसकी रीति-नीति क्या हो सकती थी? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए इतिहास की समीक्षा करनी आवश्यक है। जिससे पता चलता है कि जिस प्रकार आज के अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश का हिंदू वैदिक स्वरूप मिटाकर वहां इस्लाम स्थापित कर दिया गया है, उसी सोच को अपने लिए आदर्श मानकर एक वर्ग भारत में भी इस्लामीकारण की प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ा रहा था। ऐसा नहीं है कि उस प्रक्रिया पर आज पूर्णतया रोक लग गई है, उसे हल्का सा झटका ही लगा है। माना जा सकता है कि प्रतिशोध का भाव कुंठा के रूप में दबा हुआ है ,जब वह उभर कर बाहर आएगा तो ऊंची छलांग भी ले सकता है।
प्रश्न यह है कि यदि हिंदू इसी तरीके से घटते रहे और मुस्लिम आबादी इसी अनुपात से बढ़ती रही तो अभी कितने वर्ष और लग जाएंगे जब मुस्लिम आबादी 50% हो जाएगी ? वैसे हमें भारत की सामाजिक स्थिति पर विचार करते हुए यह भी सोचना चाहिए कि आज भी इस्लाम के व्याख्याता और पैरोकारों ने जिस प्रकार कहीं जय भीम जय भीम को तो कहीं पिछड़ों के साथ मिलकर हिंदू समाज को क्षतिग्रस्त करने की सोच को विकसित किया है, वह मुस्लिम आबादी को 50% होने देने की प्रतीक्षा नहीं करने देगी। उससे पहले ही महाउपद्रव की महाविभीषिका के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। हमें मुस्लिम विद्वानों की ही इस मान्यता को स्वीकार करना चाहिए कि इस्लाम का भाईचारा अन्य मजहब वालों के लिए नहीं है। उसका भाईचारा केवल उन लोगों के लिए है जो इस्लाम को मानते हैं। कहने का अभिप्राय है कि हमें किसी भी प्रकार से भाईचारा शब्द को विस्तृत और सही संदर्भ में स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसका वही अर्थ लेना चाहिए जो इस्लाम मानता है।
सोए हुए बहुसंख्यक सनातन समाज को जगाने की आवश्यकता है। बिना किसी का अहित किये अपनी सुरक्षा करना ही वास्तविक समझदारी होती है। सनातनी समाज को यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि कभी यह संपूर्ण भूमंडल आर्यों के अधीन हुआ करता था। इस समाज को यह बीमारी लगी कि हम सारे संसार में सबसे अधिक हैं। इसलिए हमको कोई नहीं मिटा सकता। इसी पाखंडी सोच के कारण संपूर्ण भूमंडल से मिटते मिटते भारत के सनातनी आज केवल भारत में ही सुरक्षित दिखाई देते हैं। यह भी तब तक है जब तक कि मोदी जी जैसे शासक यहां पर हैं। जिस दिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सरकार आएगी, उस दिन स्थिति में आमूल चूल परिवर्तन आ जाएगा। देश के बहुसंक्षक समाज को कबूतरी धर्म से परहेज करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए तैयार होना चाहिए।
यह बात ध्यान रखने वाली है कि ईरान कभी आर्यों का अर्थात पारसियों का देश था। इराक, सऊदी अरब ,पश्चिम एशिया के समस्त मुस्लिम देश 1400 वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति और सभ्यता को मानने वाले देश थे। तलवार के बल पर 57 देश इस्लाम को स्वीकार कर चुके हैं इनमें से कोई भी ऐसा देश नहीं है जो 1400 वर्ष पहले से अर्थात सनातन की भांति सृष्टि के प्रारंभ से मुस्लिम देश था। सब 1398 में ईरान भारत से अलग हुआ, 1739 में अफगानिस्तान नादिरशाह ने अपने लिए एक अलग रियासत के रूप में प्राप्त कर लिया, बाद में 1876 में यह एक स्वतंत्र देश के रूप में अस्तित्व में आ गया,1937 में म्यांमार बर्मा अलग हुआ। 1911 में श्रीलंका अलग हुआ। 1904 में नेपाल अलग हुआ। सांप्रदायिक आधार पर देश विभाजन का यह सिलसिला यहीं नहीं रुक इसके पश्चात 1947 में पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान देश बना । पूर्वी पाकिस्तान आज बांग्लादेश के रूप में मानचित्र पर उपलब्ध है।
सनातनी हिंदू इसी प्रकार कटता मिटता गया। उसने इतिहास से शिक्षा नहीं ली। कभी यह नहीं सोचा कि कटने मिटने का यह सिलसिला कब से चला? क्यों चला और कब तक चलता रहेगा? आलस्य और प्रमाद जब किसी जाति पर हावी हो जाते हैं तो वह अकर्मण्यता का शिकार हो जाती है। यही वह रोग है जो उसके अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर देता है। निश्चित रूप से देश के बहुसंख्यक सनातनी समाज को अपना अंतरावलोकन करने की आवश्यकता है। जिससे वह रोग का निदान कर सके। घटता हिंदू – मिटता हिंदू , कौन सुनेगा पुकार ?
एक-एक भेड़ रोज मूंडी जाती रहे और शेष भेड़ें यह भी ना समझ पाएं कि कल को हमारी बारी है तो कहना पड़ेगा कि भेड़ों में विवेक नहीं है । इतिहासबोध नहीं है। राष्ट्र बोध नहीं है। जातिबोध नहीं है। स्वाभिमान नहीं है। इन सब चीजों के लिए हमारे क्रांतिकारी पूर्वजों ने राष्ट्र का आवाहन किया था, राष्ट्र को ललकारा था, पुकारा था, ऊंची आवाज में उसे सोते से जगाया था। उसे आसन्न खतरों से अवगत कराया था कि सावधान हो जा, अन्यथा अस्तित्व मिट जाएगा। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद के 65 वर्ष में जिन लोगों ने सत्ता संभाली उन्होंने तुष्टिकरण और धर्मनिरपेक्षता की भांग पिलाकर देश के सनातनी समाज को फिर सुला दिया। आज उस सोए हुए भारत को और भारत की आत्मा के सच्चे सपूतों को जगने जगाने की आवश्यकता है।
गफलत की नींद सोते रहना मानो मातृभूमि और अपने लोगों को खोते रहना है ।आगामी पीढ़ियों के लिए बीज होते रहने के समान है। कोई भी जीवन्त राष्ट्र और उसके सजग प्रहरी अपनी आने वाली पीढियों के लिए जानबूझकर कांटे नहीं बीता। हर जागरुक व्यक्ति , हर जागरूक समाज और हर जागरूक राष्ट्र आने वाली पीढियों के रास्ते को सुगम करके जाना चाहता है। बात स्पष्ट है कि आज के सनातनी हिंदू समाज को आने वाली पीढियों के लिए रास्ता सुगम करने के अपने कर्तव्य को पहचानना ही होगा।
अन्यथा समझ लीजिए कि वह दिन दूर नहीं जब भारत एक मुस्लिम देश होगा। देश के भीतर ही जहां-जहां इस्लाम को मानने वाले लोगों की संख्या बहुलता को प्राप्त हो गई है, वहां वहां पर अनेक प्रकार की सामाजिक विसंगतियां ,दलन, दमन और शोषण के नए-नए स्वरूप देखे जा रहे हैं। केरल ,कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत, बंगाल जहां उनकी संख्या बहुलता में है , वहां -वहां दूसरे धर्म और जाति के लोग परेशान हैं। उपस्थित तथ्यों से सत्य को समझना चाहिए। इन आंकड़ों के आलोक में हमें समझना चाहिए कि हमारी बहू ,बेटियां,महिलाओं की इज्जत कब तक सुरक्षित रह सकती है ? निश्चित रूप से तब तक जब तक कि भारतवर्ष सनातनी हिंदुओं के हाथ में है। हमें इतिहास से शिक्षा लेनी चाहिए कि अब हम सांप्रदायिक आधार पर देश का पुनः विभाजन नहीं होने देंगे। नोवाखाली जैसे नरसंहारों की पुनरावृत्ति अब हमारे देश में नहीं होगी। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय जिस प्रकार लाखों करोड़ों लोगों को घर से बेघर होना पड़ा था, उस इतिहास को अब दोहराया नहीं जाएगा।
हम दोहराएंगे अपने रामराज्य को, ऋषियों के उस पवित्र संकल्प को जो वसुधैव कुटुंबकम को वैश्विक शांति के लिए अनिवार्य घोषित करता है। हम दोहराएंगे उन सभी समाधानों को जो मानव से मानव को जोड़ते हैं। हम अपनाएंगे संविधान के उस आदर्श को जो समानता ,न्याय और विश्व बंधुत्व के आदर्श पर टिका हुआ है और उसी को भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद घोषित कर उसे अपनाने के लिए सभी को प्रेरित करता है।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
अध्यक्ष : उगता भारत समाचार पत्र

Comment:Cancel reply

Exit mobile version