ओ३म् “वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है जो ज्ञान-विज्ञान पर आधारित होने सहित संसार का प्राचीनतम धर्म है”

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वैदिक धर्म वेदों पर आधारित संसार का ज्ञान व विज्ञान सम्मत प्राचीनतम धर्म है। यह सनातन धर्म है क्योंकि यह परमात्मा प्रदत्त वैदिक ज्ञान पर आधारित होने के कारण संसार का आदि व प्रथम धर्म है। सनातन एवं नित्य शब्दों में समानता है। नित्य उसे कहते हैं जो इस सृष्टि व पूर्व सृष्टियों सहित भावी सृष्टियों में भी एक समान रूप से विद्यमान रहता है। सनातन वह है जो सत्य होता है तथा जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता। सत्य की विशेषता यह होती है कि इसे धर्म के मानक ग्रन्थ वेद को सामने रख कर तथा तर्क व वितर्क कर सत्य सिद्ध किया जा सकता है। सनातन शब्द व धर्म में भी यही भावना विद्यमान है। सनातन वह है जो इससे पूर्व सृष्टि में भी था, वैसा ही इस सृष्टि में है तथा भावी कल्पों में भी वैसा ही रहेगा। परमात्मा प्रदत्त सत्य सिद्धान्तों व नियमों पर आधारित होने से यह अपरिवर्तनशील होता है। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक यही सत्य, सनातन वैदिक धर्म ही इस अखिल संसार में विद्यमान था। महाभारत काल के बाद इस सनातन वैदिक मत में कुछ विकार व अवैदिक मान्यताओं का सम्मिश्रण होने इस सनातन धर्म का वास्तविक सत्य स्वरूप विलुप्त हो गया था। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने वेद, उपनिषदों, दर्शनों, मनुस्मृति आदि अनेकानेक ग्रन्थों का अध्ययन करने सहित योगसाधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर सत्यासत्य का विवेचन किया तथा पूर्ण सत्य पर आधारित सनातन वा वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया था। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य एवं इतर वैदिक ग्रन्थों में इसी सनातन व वैदिक धर्म का निरुपण हुआ है। यही विश्व के सभी लोगों के लिए मानने योग्य है। वैदिक धर्म के विपरीत मान्यतायें त्याज्य है। यह भी उल्लेखनीय है कि आत्मा की उन्नति विद्या से तथा अवनति वा पतन अविद्या से होता है। वेद अविद्या से रहित विद्या के ग्रन्थ हैं जिनके प्रदाता स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अनादि व नित्य परमेश्वर है। हमारे सभी वेदज्ञ ऋषि-मुनि तथा राम व कृष्ण आदि महापुरुष इसी सनातन वैदिक धर्म का पालन किया करते थे। ऋषि दयानन्द जी व आर्यसमाज के सभी भक्त वा अनुयायी भी सत्य सनातन वैदिक धर्म का ही पालन करते हैं।

वैदिक धर्म का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा द्वारा अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को वेदों का ज्ञान देने के साथ आरम्भ हुआ था। वेद के मर्मज्ञ ऋषियों सहित ऋषि दयानन्द के अनुसार वेद सब सत्य विद्याओं वा ज्ञान का पुस्तक है। इन वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब मनुष्यों वा सनातन वैदिकधर्मी आर्यों का परम धर्म है। मनुष्य के अनेक धर्म होते हैं। धर्म शब्द से कर्तव्य का बोध होता है। माता-पिता का आज्ञाकारी होना प्रत्येक सन्तान का धर्म है, वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना भी मनुष्य का धर्म है, ईश्वर की उपासना सहित देवयज्ञ अग्निहोत्र का करना भी धर्म होता है, विद्या की प्राप्ति तथा अविद्या का नाश, शुभ कर्मों का करना तथा अशुभ व पाप कर्मों का त्याग करना भी मनुष्यों का धर्म होता है। इस प्रकार से मनुष्यों के अनेक धर्म होते हैं। ऐसे सभी धर्मों का संग्रह व उन्हें करने की प्रेरणा वेदों में विद्यमान है। वेदों में ज्ञान व विज्ञान के विरुद्ध कोई कथन व मान्यता नहीं है। वेदों के इसी महत्व के कारण वेदों का अध्ययन व स्वाध्याय तथा वेदानुकूल आचरण ही मनुष्य का सत्य व परमधर्म सिद्ध होता है। जो इस वेदमत व धर्म का पालन करते हैं उनका निश्चय ही कल्याण होता है तथा जो वेदों से दूर अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों में फंसे हुए हैं, उनको इस कारण से जन्म-जन्मान्तरों में अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार नाना प्राणी योनियों में जन्म पाकर अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इस कारण से अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के लोग वेदों के स्वाध्याय, वेदानुसार ईश्वरोपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र, वेदानुकूल कर्तव्यों के पालन से होने वाले लाभों व सुखों से वंचित हो जाते हैं। वेदों के अध्ययन व उसके आचरण से मनुष्य को जन्म-जन्मान्तरों में जमा धन व पूंजी के अनुरूप ही लाभ होते जाते हैं। इसी कारण से हमारे समस्त ऋषि, मुनि, योगी, महात्मा, राम-कृष्ण महापुरुषों सहित सभी पूर्वज संसार के श्रेष्ठतम वैदिक धर्म का पालन करते थे और अपना व समाज के सभी लोगों का कल्याण करते थे।

वेदों का प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से हुआ था। ऋषि दयानन्द ने वेदों के प्रादुर्भाव की प्रक्रिया पर अपने विश्व प्रसिद्ध ‘‘सत्यार्थग्रन्थ” में प्रकाश डाला है। इसे सभी जिज्ञासुओं को पढ़ना चाहिये और लाभ उठाना चाहिये। यह ज्ञान सत्यार्थप्रकाश से इतर किसी ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता। सृष्टि के आरम्भ में वेदों का प्रादुर्भाव होने और वेदों की शिक्षाओं के अनुसार ही सद्धर्म प्रचलित व प्रवर्तित होने से वैदिक धर्म निःसन्देह संसार का प्राचीनतम धर्म है।

वेदों का अध्ययन करने पर इसकी कोई बात सत्य ज्ञान एवं विज्ञान के विपरीत दृष्टिगोचर नहीं होती। वेदों की सभी मान्यताओं का ज्ञान व विज्ञान से पोषण होता है। वेदों की सभी मान्यतायें व सिद्धान्त तर्क एवं युक्तियों से सत्य सिद्ध किये जा सकते हैं व ऋषि दयानन्द ने अपने व्याख्यानों सहित अपने सभी ग्रन्थों में इनकी युक्तियुक्तता पर प्रकाश भी डाला है। पृथिवी गोल अर्थात् भूगोल है का रहस्य भी प्रथम वेद व वेद-ऋषियों से ही संसार को ज्ञात हुआ था। सृष्टि की उत्पत्ति का सत्य सिद्धान्त भी वेद सहित वेदों के व्याख्या ग्रन्थ दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि के आधार पर विश्व की समस्त मानव जाति को प्राचीन काल में ही हो गया था। हमारे ऋषियों व वैदिक विद्वानों का आचरण व व्यवहार भी वेदों सहित सत्य व न्याय के पथ के अनुगमन पर आधारित होता था। उपनिषद एवं दर्शन सहित्य सहित प्रक्षेप रहित विशुद्ध मनुस्मृति में ऐसा कोई कथन, मान्यता व सिद्धान्त नहीं है जो ज्ञान व विज्ञान के विरुद्ध हो। इसी कारण महाभारत युद्ध-पर्यन्त वेद ही विश्व के सभी मनुष्यों का एकमात्र धर्म था। आज भी वेद अपने सत्य वेदार्थ सहित सुलभ हैं। इनका अध्ययन कर तथा सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर एक साधारण हिन्दी पाठी मनुष्य भी धर्म के सभी मर्मों को समझ कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। मनुष्य जीवन में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति से बढ़कर कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है। इस कारण से वेद व वैदिक धर्म की विश्व के सभी मनुष्यों के लिये महत्ता व उपयोगिता निर्विवाद है।

वैदिक धर्म के पालन से मनुष्य अंधविश्वासों, पाखण्डों, मिथ्या सामाजिक परम्पराओं, भेदभावों व दूसरों पर अन्याय व अत्याचारों से बचता है। इससे इन बातों का लाभ परमात्मा उन आत्माओं व मनुष्यों को सुख प्रदान कर करते हैं। जो मनुष्य वैदिक धर्मी नहीं हैं, उनको यह लाभ प्रायः नहीं मिलते। वैदिक धर्मियों को सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह होता है कि उन्हें ईश्वर, आत्मा तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप सहित इनके गुण, कर्म, स्वभाव के ज्ञान जैसे अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। मनुष्य वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन से जीवन में करने व जानने योग्य सभी विद्याओं व पदार्थों के गुण व दोषों को जानकर इनसे यथायोग्य लाभ लेता है। यह लाभ मत-मतान्तरों के लोगों को प्राप्त नहीं होते। मनुष्य सन्ध्या, अग्निहोत्र, मातृ-पितृ की सेवा, आचार्यों तथा अतिथियों की सेवा, सभी प्राणियों के प्रति प्रेम व अहिंसा के व्यवहार, उनके सुखमय जीवन में सहायक बनकर तथा शुद्ध शाकाहारी, गोदुग्ध, घृत, दधि, छाछ, मक्खन, फल, साग-सब्जियों तथा परमात्मा प्रदत्त अनेक गुणों से युक्त ओषधियों एवं वनस्पतियों का सेवन कर स्वस्थ रहते हुए सुख व दीर्घ आयु को प्राप्त होते हंै। वैदिक धर्मी मनुष्य योगाभ्यास द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार के सुख व आनन्द को प्राप्त करता है जो अन्य कहीं उपलब्ध होना सम्भव ही नहीं है। अतः वेद व वैदिक धर्म के पालन में सभी मनुष्यों को लाभ ही लाभ होते हैं। इससे यह निश्चय होता है कि हमें व अन्य सबको भी अपने हित व कल्याण के लिये वेदों की ही शरण में आना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने यह भी बताया व सिद्ध किया है कि सभी मत-मतान्तर अविद्या से युक्त हैं। अविद्या मनुष्य का अकल्याण करती है। अविद्या के कारण मनुष्य की जन्म व जन्मान्तरों में अवनति व दुःखों की प्राप्ति होती है। अतः मनुष्य को अविद्या का त्याग कर इससे मुक्त होना चाहिये। इसका एक मात्र व सरल साधन यही है कि सब मनुष्य सनातन वा वैदिक धर्म का ही पालन करें।

सनातन वैदिक धर्म की यह विशेषता है कि मनुष्य को ईश्वर व आत्मा सहित प्रकृति व सृष्टि के सत्यस्वरूप व इनके उपयेाग विषयक ज्ञान की प्राप्ति वेद व वैदिक साहित्य से ही होती है। वेद सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य सभी अनादि, सनातन, नित्य पदार्थों के अविनाशी स्वरूप सहित सांसारिक पदार्थों के सत्य तथा विनाशी स्वरूप से परिचित हो जाता है। इस ज्ञान का लाभ उठा कर वह सत्य का सेवन तथा असत्य का त्याग कर अपनी आत्मा व जीवन की उन्नति करता है। ईश्वर का ज्ञान होने से उसे एक ऐसा मित्र, बन्धु, सखा, पिता, माता, आचार्य, राजा, न्यायाधीश व शुभचिन्तक मिल जाता है जो सदैव उसके साथ रहता है व उसकी हर प्रकार से रक्षा व सहायता करता है। यह ज्ञान व लाभ सभी सांसारिक सुखों व लाभों से कहीं अधिक है। अतः वेद व वैदिक धर्म की शिक्षाओं का पालन करने से ही मनुष्य लाभान्वित, सुखी व उन्नति को प्राप्त होता है।

वैदिक धर्म अर्थात् सनातन धर्म ने सृष्टि की आदि में ही संसार को आत्मा के अविनाशी होने तथा जन्म-मरण धर्मा होने का ज्ञान कराया व इसके पुनर्जन्म व आवागमन का सिद्धान्त दिया। आत्मा का अविनाशी होना तथा पुनर्जन्म का सिद्धान्त वेद सहित ज्ञान-विज्ञान व तर्क एवं युक्तियों से भी सिद्ध है। हमें यह पता है कि हमारे जन्म से पहले भी हमारा अस्तित्व व जीवन था तथा मरने के बाद भी हमारा पुनर्जन्म होगा जिसके लिये हमारे इस जन्म में अर्जित ज्ञान व कर्म हमारे पुनर्जन्म का आधार बनेंगे। इस ज्ञान के होने से हम पाप कर्मों को करने से बच जाते हैं जिससे हमारी परजन्म में भी उन्नति होती है। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ व उपदेशों में पुनर्जन्म वा आवागमन के सिद्धान्त को अनेक युक्तियों व प्रमाणों से समझाया है जिसके बाद पुनर्जन्म होने में किसी प्रकार की कोई शंका नहीं रहती। अतः वैदिक धर्मी बनने से पुनर्जन्म का वास्तविक व यथार्थ सिद्धान्त भी हमें प्राप्त होता है जिससे हमारी आत्मा की उन्नति होती है।

जीवात्मा अनादि, नित्य तथा अविनाशी सत्ता है। यह जन्म-मरण धर्मा है। जन्म का कारण मनुष्य के इससे पहले के अनेक जन्म व उनमें किए हुए वह कर्म होते हैं जिनका भोग किया जाना शेष रहता है। जन्म व पुनर्जन्म मनुष्यों को ज्ञान प्राप्ति व सद्कर्मों को करने के लिये मिलते हैं। शुद्ध ज्ञान व शुद्ध कर्मों को प्राप्त होने से मनुष्य जन्म-मरण से छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है जिससे जन्म व मरण से होने वाले दुःख समाप्त हो जाते है। मोक्ष की प्राप्ति समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार करने पर होती है। यह स्थिति वैदिक धर्म जिसे हम सनातन धर्म के नाम से भी जानते हैं, का पालन करने से ही सम्भव है। अतः मनुष्य का सर्वविध कल्याण एवं उन्नति वैदिक धर्म की शरण में आने से ही होती है। सभी मनुष्यों को अविद्या को छोड़कर वेदमत की शरण में आकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिये। मोक्ष की प्राप्ति ही अमृत है। इसकी प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। कुछ लोग सनातन धर्म को वेद धर्म वा वैदिक धर्म से भिन्न मानते हैं। उनसे हमारा निवेदन है कि यह दोनों धर्म एक हैं। अट्ठाराह पुराणों के आधार पर जिन कर्तव्य व कर्मों को किया जाता है तथा जो वेद, वैदिक धर्म व सनातन के विपरीत हैं, उन्हें सनातन व वैदिक धर्म नहीं कहा व माना जा सकता। इस अन्तर को हमें जानना स समझना चाहिये। सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर धर्म विषयक सभी जिज्ञासाओं एवं शंकाओं का समाधान होता है। अतः सबको इस ग्रन्थ को पढ़ना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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