भारत को भारत के रूप में ही समझना होगा
भारत को भारत के रूप में ही समझना होगा
भारत को समझने के लिए भारत के अतीत को समझना आवश्यक है । जी हां , भारत का वह गौरवपूर्ण अतीत जब यह देश संपूर्ण भूमंडल पर निवास करने वाली मानव जाति का धर्मगुरु था । जब इसकी राजनीतिक , सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था से सारा संसार शासित और अनुशासित होकर जीवन का आनंद ले रहा था। संपूर्ण भूमंडल पर केवल भारत ही एकमात्र ऐसा देश था और आज भी है , जो युद्ध में भी नीति बनाता है , युद्ध में भी धर्म का पालन करता है । कभी किसी निहत्थे , असहाय व्यक्ति या प्राणी पर हमला करना या अत्याचार करना यह अपनी संस्कृति , सभ्यता , धर्म और विवेक के विरुद्ध मानता है । संसार में वास्तविक शांति स्थापित करने के लिए इसी मार्ग का अनुसरण करना आवश्यक है । संसार के गंभीर चिंतकों , मनीषियों ,विद्वानों , लेखकों ने भारत का लोहा केवल इसलिए माना कि इस देश के पास वास्तविक अर्थों में विश्व शांति स्थापित करने की एक व्यवस्था है , एक योजना है , गम्भीर चिंतन है , उसका एक आधार है , उसका एक ढांचा और एक सपना इसके पास में है ।
डकैतों और लुटेरों का गिरोह बनाकर दूसरे के घरों पर जाकर हमला करना मानव सभ्यता में नहीं आता । ऐसा आचरण मानव संस्कृति का तो कभी अंग हो ही नहीं सकता।
हमने इस पुस्तक में अभी तक जितना कुछ पढ़ा , समझा है या जिन तथ्यों पर विचार किया है उन सबसे यही स्पष्ट होता है कि संसार में एक समय ऐसा आया जब अव्यवस्थित होकर लोग दूसरों के शान्त घरों में जाकर ईंट – पत्थर फेंकने को ही मानव धर्म समझने लगे । इतना ही नहीं , उन्होंने और भी कई कदम आगे बढ़कर मानव समूहों को एकत्र किया और दूसरे के घरों पर जाकर चढ़ाई की। नरसंहार , लूट , हत्या , डकैती के ऐसे कीर्तिमान स्थापित किए कि जिन्हें देखकर मानवता का सिर शर्म से झुक गया ।
यह कुछ वैसा ही था , जैसे जंगल में कुछ डकैत इकट्ठे हों और दूसरे के घरों में जाकर डकैती डालें । चाहे अरब के खलीफा थे , चाहे ईरान के शाह और चाहे मंगोलिया से आने वाले मंगोल या और दूसरे लोग थे ,यदि उन्होंने अपने आचरण से ऐसा आभास दिलाया है कि उन्होंने केवल अपने डकैतों के गिरोह बनाकर दूसरों को लूटने और समाप्त करने का कार्य किया तो यह मानवता के विरोध में किया गया कार्य था । इससे इतिहास भूषित नहीं होता ,अपितु कलंकित होता है । ऐसे लोगों को इतिहास में स्थान देना या उनके गुणगान करना तो मानवता को और भी अधिक लज्जित कर देना है ।
मर्यादाएं टूटती हैं तो उनका प्रभाव दूर तक मानवता का पीछा करता है । हमने महाभारत में मर्यादाएं टूटती देखीं तो उसके दुष्परिणाम सारा संसार आज तक भुगत रहा है । ज्ञान विज्ञान को फिर से उसी ऊंचाई पर ले जाने में संसार को हजारों वर्ष लग गए हैं । इसके उपरांत भी वह हृदयहीन भौतिक विज्ञान तो विकसित कर पाया है , परंतु उसके साथ – साथ उसे मानवोपयोगी बनाने के लिए आध्यात्मिकता का उतना सुंदर विकास नहीं कर पाया , जितना अपेक्षित था ,अर्थात ब्रह्माबल और क्षात्रबल के मध्य उचित समन्वय संसार आज तक स्थापित नहीं कर पाया है । जिससे संसार में आज भी वही नादिरशाही , या गजनवी , गौरी और अब्दाली की कुसंस्कृति आतंकवाद के रूप में सर्वत्र आग लगा रही है , जिसे इस पुस्तक में हमने स्थान -स्थान पर दिखाने का प्रयास किया है ।
दूसरे के घरों में आग लगाने की प्रवृत्ति यदि मानव के भीतर आज भी वैसी ही है , जैसी गजनवी , गौरी , अब्दाली आदि के समय में थी तो समझना चाहिए कि हमने इतिहास से कुछ शिक्षा नहीं ली है । माना कि अफगानिस्तान को भारत से काटकर एक अलग देश बना दिया गया , परंतु क्या उसे विश्व शांति स्थापित करने के एक ऐसे केंद्र के रूप में इस्लाम या किसी भी मजहब ने विकसित करने में सहायता की यह सफलता प्राप्त की है जो आज की सारी मानव जाति को एकता के सूत्र में बांधकर उसे विश्वशांति का पाठ पढ़ा सकती हो ? यदि नहीं , तो अफगानिस्तान को भारत से अलग करने का प्रयोग , परीक्षण और प्रयास सब कुछ व्यर्थ ही तो रहा ?
इतिहास केवल इसीलिए लिखा जाता है कि हम बीते हुए कल में की गई गलतियों , मूर्खताओं और भूलों का प्रायश्चित करें। आज को बेहतर बनाकर आने वाले कल के लिए सुंदर नींव रखें। बीते हुए कल के खलनायक बने लोगों को मानवता का हितचिंतक या शुभचिंतक घोषित न करना इतिहास के लिए आवश्यक होता है । इतिहास को साम्प्रदायिक खेमेबंदियों में विभाजित कर इतिहास के खलनायकों को अपने – अपने मजहब या संप्रदायों का नेता मानना समझो उनके कुसंस्कारों को आज भी हवा देने के समान है । जिनके कारण कल मानवता को खून के आंसू रोना पड़ा था , अच्छा यही होगा कि हम उन खलनायकों को खलनायक और मानवता के लिए भूषण बने लोगों को भूसुर की श्रेणी में रखकर उन्हें वैसा ही सम्मान और स्थान दें जैसे स्थान और सम्मान के वे पात्र हैं । आज के संसार के कलह और क्लेश का कारण यही है कि लोगों ने सांप्रदायिक आधार पर इतिहास के लोगों का ध्रुवीकरण कर लिया है ,और सच को सच कहने या स्वीकारने में उन्हें सांप्रदायिक पूर्वाग्रह की मानसिकता बार-बार दुखी करती है।
हमें ऐसे पूर्वाग्रहों से बाहर निकल कर भारत को भारत के रूप में समझना होगा । जिसके बारे में विद्वानों ने कई स्थानों पर बड़े सरल हृदय से स्पष्ट किया है कि ‘‘यूरोपीय राष्ट्रों के विचार, वाङ्मय और संस्कृति के स्रोत तीन ही रहे हैं- ग्रीस, रोम तथा इज्राइल। अतः उनका आध्यात्मिक जीवन अधूरा है, संकीर्ण है। यदि उसे परिपूर्ण, भव्य, दिव्य और मानवीय बनाना है तो मेरे विचार में भाग्यशाली भरतखण्ड का ही आधार लेना पड़ेगा।‘‘ (‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 51 पर उद्धृत)
जब कोई भी विद्वान लेखक यह कहता है कि संसार को दिव्य और भव्य बनाने के लिए भरतखंड का ही आसरा लेना होगा तो इसका अभिप्राय मात्र किसी भूभाग से नहीं है , अपितु उस भू-भाग की उस दिव्य और भव्य संस्कृति से है ,जिसने उसमें दिव्यता और भव्यता के भावों का संचार किया है। कहना न होगा कि यह शक्ति केवल और केवल भारत की संस्कृति में ही है जिसने इस देश को दिव्यता और भव्यता प्रदान की है। संसार उस दिव्यता और भव्यता को पुनः प्राप्त कर लेना चाहता है । मानो उससे कोई चीज बहुत पीछे कहीं छूट गई है ,जिसका रस की अनुभूति उसके अंतः करण में अभी तक उसे यह आभास करा रही है कि दिव्यता और भव्यता तो कहीं उस भारतीय संस्कृति के अमृतरस में ही थी , इसीलिए वह उसे प्राप्त कर लेना चाहता है।
यह वैसे ही है जैसे पीछे छूटी हुई या अपने ही हाथ से खो गई किसी चीज के लिए उसे पुनः पुनः प्राप्त करने की जिज्ञासा हमारे मन मस्तिष्क में हुआ करती है। संसार की इस भटकन का राज हमें समझना ही होगा ।
इसी पुस्तक का लेखक भारत के विषय में यह भी स्पष्ट करता है कि — ‘‘आचार्य (शंकर) भाष्य का जब तक किसी यूरोपीय भाषा में सुचारु अनुवाद नहीं हो जाता , तब तक दर्शन का इतिहास पूरा हो ही नहीं सकता। भाष्य की महिमा गाते हुए साक्षात सरस्वती भी थक जाएगी। (‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 46-47 पर उद्धृत)
जिसका गीत गाने में सरस्वती भी अपने आपको थकी हुई अनुभव करने लगे , उसके बारे में समझ लेना चाहिए कि ‘ हरि अनंत हरिकथा अनंता ‘- के दिव्य भाव से ओतप्रोत माँ भारती के गुण – गण – चिंतन के लिए कितने परिश्रम की आवश्यकता है ? ऐसी दिव्य मां भारती के समक्ष किसी भी विद्वान का नतमस्तक हो जाना ही अनिवार्य है ।
यही कारण रहा कि विदेशी विद्वानों ने भी मां भारती के गीत गाने में कमी नहीं छोड़ी । ऐसे अनेकों विद्वान पश्चिमी जगत में हुए हैं , जिन्होंने गहराई से यह अनुभव किया है कि यदि यूरोप को पुनः वास्तविक उन्नति करनी है और आत्मोन्नति के मार्ग पर प्रशस्त होना है , तो उसे भारत के वेदों की ऋचाओं में और उपनिषदों के मंत्रों में शांति के गीतों को खोजना ही पड़ेगा । जब तक वह ऐसा नहीं करेंगे और जब तक संयुक्त राष्ट्र में भारत की इस महान वैदिक संस्कृति का डंका नहीं बजेगा , तब तक विश्व अपनी भटकन से उभर नहीं पाएगा ।
मैक्समूलर जैसे विद्वान ने यदि भारत के साथ अपना तारतम्य स्थापित करने का प्रयास किया है तो उसके पीछे उनके चिंतन की गहराई को समझने की आवश्यकता है ।इस संदर्भ में मैक्समूलर का कहना है कि- ‘‘आर्यवर्त्त का प्राचीन देश ही गोरी जाति का उत्पत्ति स्थान है। भारत भूमि ही मानव जाति की माता और विश्व की समस्त परम्पराओं का उद्गम-स्थल है।उत्तर भारत से ही आर्यों का अभियान फारस की ओर गया था।‘‘ (‘इण्डिया, व्हाट इट कैन टीच अस‘)
मैक्समूलर ने यह भी कहा है कि – ” यह निश्चित हो चुका है कि हम सब पूर्व की ओर से आए हैं। इतना ही नहीं हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख और महत्त्वपूर्ण बातें हैं, सबकी सब हमें पूर्व से मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब हम पूर्व की ओर जाएं तब हमें यह सोचना चाहिए कि पुरानी स्मृतियों को संजोए हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं। “(‘इण्डिया, व्हाट इट कैन टीच अस‘, पृ. 29)
कर्जन तो स्पष्ट रूप से कहता है कि- ‘‘गोरी जाति वालों का उद्गम स्थान भारत ही है।‘‘ (जनरल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी‘, खण्ड 16, पृ.172-200)
आज आवश्यकता इस बात की है कि संपूर्ण भूमंडल की सज्जन शक्ति को एक ही श्रेष्ठता के भाव से अर्थात आर्यत्व के भाव से भर दिया जाए । सभी के भीतर यह भाव जब उत्पन्न हो जाएगा कि हम संसार में श्रेष्ठत्व की प्राप्ति के लिए और उसी की स्थापना के लिए आए हैं तो संसार की सारी सृजनात्मक शक्तियां एक ही दिशा में बल लगाने का प्रयास करेंगी और जिस प्रकार के आतंकवाद या किसी भी प्रकार की व्याधियों से आज का संसार ग्रस्त है , उन सब पर हम सामूहिक रूप से विजय प्राप्त कर सकेंगे ।
भारत में ऐसे लोग आज भी बहुत हैं जो अखंड भारत की कल्पना करते हैं और उसी के लिए चिंतन और चिंता करते रहते हैं कि फिर से आर्यवर्त का चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित हो । अफगानिस्तान या किसी भी उस देश के वर्तमान धर्म या संस्कृति को मिटाकर ऐसा नहीं किया सकता जो कभी आर्यावर्त के अंग रहे थे । ऐसा कार्य तभी संभव है , जब हम उस देश के लोगों के भीतर श्रेष्ठत्व अर्थात आर्यत्व के भावों का विकास करें । उन्हें यह आभास कराएं कि आप उसी मानव संस्कृति का एक अंग हैं जो कभी भारत ने संपूर्ण भूमंडल पर फैलाई थी । जिसके फैलाने से आज भी हम संपूर्ण भूमंडल में एक ही विचार से प्रेरित होकर एक ही विचारधारा को लेकर आगे बढ़ सकते हैं और संसार का सामूहिक कल्याण करने में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकते हैं । इस भाव की प्रबलता से ही भारत विश्व गुरु बनेगा और अफगानिस्तान जैसे देश फिर भारत के साथ आने पर सहमत हो सकेंगे । रक्तरंजित इतिहास को अपना संस्कार बना लेना मानवता की हार है , जबकि भारत की संस्कृति को वैश्विक संस्कृति बना देना मानवता की जीत है ।
इसी विचार पर आगे बढ़ने का समय आ चुका है ।
राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत