आवागमन ( कविता )
प्रख्यात विद्वान प्रोफेसर डॉ श्याम सिंह शशि किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं , वे एक ऐसे हस्ताक्षर हैं जो अस्सी पार करने के पश्चात भी असीम ऊर्जा से भरे हुए हैं और अपनी लेखनी के माध्यम से निरंतर राष्ट्र का मार्गदर्शन कर रहे हैं । ऐसे तेजोपुंज की लेखनी से निकली यह कविता हमसे बहुत कुछ कह रही है । सचमुच इस कविता में बहुत कुछ समझने के लिए है । आप भी इस कविता का रसास्वादन लीजिए और करिए थोड़ा गंभीर चिंतन कि कवि आखिर कहना क्या चाहता है ? कवि का ज्ञान गाम्भीर्य सचमुच हमको झकझोर जाता है , जीवन के सच को उद्घाटित करता है , और मन को आंदोलित कर डालता है। — श्रीनिवास आर्य ( वरिष्ठ सह संपादक )
आवागमन
ओह , तुम भी चले गए मित्र !
यह कैसा आवागमन है
जिसमें न आने का पता है
और न जाने का समय
कौन कब चला जाए कोई नहीं जानता
मैं भी पंक्तिबद्ध हूँ
कभी सोचा भी न था
अस्सी में आकर भी
सीना तान कर चलना है
लकुटिया हाथ लेकर नहीं
नहीं जानता कब कौन सा कल होगा ?
कई मित्र हाथ में छड़ी थामे ‘ हैं ‘
कुछ दुहरे हो गए हैं
सभी प्रतीक्षारत हैं महाप्रस्थान के लिए
कैसा होगा वह लोक
कैसी होगी दूसरी दुनिया
नाते रिश्ते टूटने लगे हैं
केवल आसक्ति शेष है
अब न मित्रों के जाने का गम है
और न अपने जाने का गम
गम है तो केवल इतना
कि यहां अपनों ने जीते जी मारा है
गैरों ने गले लगाया है
अब तो स्वयं पर भी विश्वास नहीं रहा
सब कुछ नाटक लगता है
एक पर्दा उठता है
एक पर्दा गिरता है
कभी तमाशा देखते थे दूसरों का
अब अपना ही तमाशा बन गए हैं
पर इस तमाशे में भी एक आशा शेष है
विश्वास का सृजन है – अभिषेक है
कल जब नया सूरज आएगा
प्रकाश व शांति ध्वज विश्व पर लहराएगा ।
प्रोफेसर डॉ श्याम सिंह शशि
मुख्य संपादक, उगता भारत