— राकेश कुमार आर्य
कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी राष्ट्रपति के अभिभाषण के समय उनके प्रति लापरवाही का प्रदर्शन करते हुए मोबाइल से खेलते रहे । उनका यह आचरण न केवल निंदनीय है , अपितु भविष्य के लिए बड़े-बड़े प्रश्नचिन्ह खड़े करने वाला भी है । श्री गांधी देश के युवाओं में उपहास और उपेक्षा का कारण बराबर बनते रहते हैं। उसका कारण यही है कि वह अपने चिंतन में सदा चलायमान रहते हैं , वह कभी भी भीतर से स्थिर चित्त की अवस्था में रहने वाले नहीं दिखते । उनकी चाल भी ऐसी है जैसे वह कुछ गलत करके भाग रहे हों । जब वह बोलते हैं तो उनके बोलने में उतावलापन झलकता है , मजबूती नहीं । यद्यपि कांग्रेस उनके संबोधन को निरंतर ऐसा प्रचारित करती है जैसे वह बहुत ही मजबूती से गंभीरता के साथ बोल रहे हैं । राहुल गांधी स्वयं ही अपने किए पर उस समय पानी फेर देते हैं , जब वह दो चार महीने में कुछ ना कुछ ऐसा कर देते हैं जिससे देश की जनता भरपूर मनोरंजन करती है ।
कांग्रेस चुनाव क्यों हारी ?- इस पर अभी तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है , बहुत कुछ लिखा जा रहा है । निश्चित रूप से इस पर पार्टी के भीतर भी गंभीर मंथन होना चाहिए था । परंतु राहुल गांधी ने पार्टी को चिंतन और मंथन का समय न देकर दूसरी स्थिति में उलझा कर रख दिया है । अब नये पार्टी अध्यक्ष के लिए मंथन हो रहा है ना कि चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन पर । इस प्रकार एक महत्वपूर्ण बिंदु जो पार्टी के लिए इस समय चिन्तनीय था , वह कहीं पीछे छूट कर रह गया है और पार्टी किसी नए बिंदु पर जाकर उलझ गई है ।
पार्टी की हार के लिए राहुल गांधी का उतावलापन और लोगों को निरंतर झूठ परोसते रहने की उनकी भाषण शैली भी उत्तरदायी है । राहुल गांधी के भीतर साहस होना चाहिए था कि वह इन सब चीजों को या तो स्वयं स्वीकार करते या फिर पार्टी के लोगों को अपने विरुद्ध बोलने देने का अवसर देते । चुनाव के समय वह राफेल पर फेल हुए , क्योंकि कोई सबूत उनके पास नहीं था । पर वह समझे ही नहीं , उन्होंने चुनाव के बीचो-बीच राफेल पर जिस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय को अपने साथ खड़ा हुआ दिखाया , उससे उनकी भरपूर किरकिरी हुई और उसका लाभ भाजपा उठा गई ।उसके उपरांत भी वह सुधरे नहीं । अब भी ‘ राफेल सॉन्ग ‘ उन्हें अच्छा लग रहा है । नोटबंदी की बात करें , तो उसको भी राहुल गांधी ने चुनावी हथियार बनाना चाहा , पर उसमें भी वह असफल रहे । देश की जनता नोटबंदी को देशहित में मोदी सरकार का उठाया गया कदम मानकर उस पर अपनी सहमति की मुहर लगा चुकी थी । देश में पिछले 5 वर्ष में जितने भर भी विधानसभा चुनाव हुए उन सब में अधिकांश प्रदेशों में भाजपा की सरकारें आईं । जिससे स्पष्ट हो गया कि देश की जनता नोटबंदी पर भी प्रधानमंत्री मोदी के साथ थी । इसके उपरांत भी राहुल गांधी ने सत्य को स्वीकार नहीं किया । वह नोटबंदी के मोदी सरकार के निर्णय को उसी प्रकार गले लगाए घूमते रहे जिस प्रकार एक बंदरिया अपने मृत बच्चे को छाती से लगाए घूमती रहती है ।
पाकिस्तान के विरुद्ध मोदी सरकार ने जिस प्रकार का कड़ा दृष्टिकोण अपनाया था और ‘सर्जिकल स्ट्राइक ‘ कर भारत की कठोरता का परिचय दिया था , उस पर भी राहुल गांधी फंस गए । वह स्पष्ट नीति बनाकर प्रधानमंत्री मोदी को देश की जनता के सामने नंगा नहीं कर पाए। वह जितना ही इस पर बोलते थे , उतना ही देश की जनता मोदी के साथ बंधती जाती थी । कुल मिलाकर कांग्रेस के नेता को ‘ महाभारत ‘ के लिए ‘चक्रव्यूह ‘ की रचना करनी नहीं आई । उन्होंने जो चक्रव्यूह रचा उसमें वह स्वयं ही घिर गए । यदि वह वायनाड न भागते तो बहुत संभव था कि अमेठी से वह फिर जीत जाते , परंतु उन्होंने अमेठी को छोड़कर अमेठी वालों का भरोसा तोड़ दिया । फलस्वरूप अमेठी ईरानी की हो गई।
अब चुनावोपरांत परिवर्तित परिस्थितियों व परिवर्त्तित परिदृश्य में उन्हें स्वयं का त्यागपत्र न देकर अपनी प्रवृत्तियों से त्यागपत्र देना चाहिए था । उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वह उस देश के संवैधानिक प्रमुख का भाषण सुनते और अपनी गंभीरता का प्रदर्शन करते । आज तक विपक्ष के किसी भी नेता ने ऐसी उदासीनता और उपेक्षा का प्रदर्शन राष्ट्रपति के अभिभाषण के समय नहीं किया , जैसा उन्होंने वर्तमान राष्ट्रपति श्री कोविंद के भाषण के समय अभी – अभी किया है । यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है।
देश को कांग्रेस ने भी राष्ट्रपति दिए हैं । जिनके काल में केंद्र में बड़े बड़े परिवर्तन हुए हैं , परंतु विपक्ष के लिए वे सदा ही समादरणीय रहे हैं । एक दो अपवाद को छोड़कर राष्ट्रपतियों ने भी अपनी निष्पक्ष भूमिका का निर्वाह किया है । वर्तमान राष्ट्रपति श्री कोविंद की निष्पक्षता पर भी किसी को संदेह नहीं है । उनका व्यक्तित्व शालीन है । अतः राहुल गांधी को ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए था। विशेषत: तब जबकि वह पीएम श्री मोदी पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि वह अपने बड़ों का सम्मान नहीं करते हैं । श्री गांधी ने अभद्र शैली में मंचों पर यह करके दिखाया है कि श्री मोदी ने आडवाणी के साथ क्या किया है ? यद्यपि वह डॉ मनमोहन सिंह के साथ क्या करते रहे हैं या क्या करते हैं ? यह सभी जानते हैं । पीएम श्री मोदी आडवाणी और कई वरिष्ठ भाजपा नेताओं सहित पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाशसिंह बादल के भी पैर छूते दिखाए गए हैं , परंतु राहुल गांधी ने कभी भी डॉ मनमोहन सिंह के साथ ऐसी शालीनता का प्रदर्शन नहीं किया । अब उनके पास एक अवसर था राष्ट्रपति के भाषण को ध्यानपूर्वक सुनकर उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने का । पर वह इस अवसर को भुना नहीं सके । ऐसे अवसरों को न भुनाना भी उनकी असफलता है ।
देश को मजबूत विपक्ष और मजबूत राहुल गांधी की आवश्यकता है । ध्यान रहे जब कांग्रेस की तूती बोल रही थी तो कांग्रेस के ही एक नेता ने इंदिरा जी के लिए कहा था ‘ इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा ‘ तब यह कांग्रेस का चरमोत्कर्ष था । चरमोत्कर्ष के उसी बिंदु पर जाकर कांग्रेस का ढलान आरंभ हुआ । क्योंकि उस बिंदु पर रहते इंदिरा ने कभी किसी नेता को पनपने नहीं दिया । सबके ‘ पर कैच ‘ कर दिए गए थे । ‘ पर कैच ‘ किए मुख्यमंत्री उन्हें पसंद थे और ऐसे ही मंत्री भी उन्हें प्रिय लगते थे । फलस्वरुप कांग्रेस में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व पनपा ही नहीं ।
भाजपा के भीतर भी ऐसी प्रवृत्ति इस समय बढ़ रही है। पर अभी एक बात अच्छी है कि किसी मुख्यमंत्री को मोदी हटाते नहीं है । वह किसी भी गैर भाजपा सरकार को गिराते भी नहीं है । अपनी ही पार्टी के किसी मुख्यमंत्री के विरुद्ध विरोधी गुट तैयार कर उसे तंग नहीं करवाते । वह उन्हें काम करने देते हैं । जबकि इंदिरा जी ऐसा नहीं करती थीं । वह अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को भी तंग करती थीं । उनकी उस प्रवृत्ति से कांग्रेस का पतन हो गया । भाजपा जिस दिन इन कामों को करना आरंभ कर देगी, उस दिन इसका भी पतन निश्चित है ।
मजबूत राहुल गांधी के लिए आवश्यक है कि वह अमेठी से ही सांसद बनते , वायनाड से नहीं । सांप्रदायिक राजनीति के दिन अब लद चुके हैं । यदि उनकी उपस्थिति में वायनाड में पाक झंडे लहराए गए तो यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं था । भारत की सर्व समन्वयी संस्कृति का अभिप्राय है कि सब उसके लिए काम करें । यदि बौद्ध , जैन ,पारसी , सिख ,हिंदू सभी उसके लिए काम करते हैं और अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखकर भी मां भारती के प्रति और उसके सर्व समन्वयी समाज के प्रति अपनी संदिग्ध निष्ठा बनाए रखते हैं , तो ऐसा ही मुस्लिम लोगों को भी करना अनिवार्य होना चाहिए । इसकी आवाज कांग्रेस के नेता यदि उठाएं तो वह मोदी का विकल्प एक दिन में बन सकते हैं । क्योंकि देश की जनता हिंदुत्वनिष्ठ ऐसी राजनीति की समर्थक है जो सब के साथ और सब के विकास में विश्वास रखती हुई भी देश को सर्वप्रथम मानती हो । सबकी पहचानो को अलग-अलग करके देखने की प्रवृत्ति राष्ट्रघाती होती है । उचित यही है कि सब की पहचान एक में निहित हो जाए । ‘अल्लाह हू अकबर ‘ मुस्लिम समाज का व्यक्तिगत नारा हो सकता है , परंतु हमारा सामूहिक राष्ट्रीय नारा तो ‘ वंदेमातरम ‘ ही हो सकता है । राहुल गांधी से अपेक्षा की जाती है कि वह इस सामूहिक नारे के प्रति अपना लचीला दृष्टिकोण स्पष्ट कर इसे स्वीकार करें । क्या उसके विवाद को राहुल गांधी यह कहकर मिटवा सकते हैं कि हम वंदेमातरम को राष्ट्रीय नारा स्वीकार करते हैं । संभवत कदापि नहीं और जब तक कांग्रेस अपनी इस प्रवृत्ति में सुधार नहीं करेगी तब तक राहुल गांधी देश के नेता नहीं बन पाएंगे।
समय सुधरने का है न कि लकीरों को पीटने का । यदि राहुल गांधी परिवर्तित परिस्थितियों में भी लकीर पीटते रह गए तो उनके हाथ ( पंजे )की लकीरों जनता मिटा देगी ।