भाग 1
डॉ डी के गर्ग
निवेदन : कृपया अपने विचार बताये।
एक पौराणिक मान्यता है की ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए।
किस ब्राह्मण के विषय मे ये कहा गया है,इसका कोई उत्तर किसी के पास नही है,वर्तमान में जो ब्राह्मण समाज है उसके लिए ये कहावत ठीक नहीं है, फिर क्या उनके पूर्वजों के लिऐ ऐसा कहा है?ये दूसरा प्रश्न है।
इसका उत्तर समझना जरूरी है ताकि सत्य समझ आ जाए।
ब्रह्मा का अर्थ=
बृह बृहि वृद्धौ इन दो धातुओं से ब्रह्म शब्द सिद्ध होता है। यानि जो सबके ऊपर विराजमान होय और सबसे बड़ा होय वह ब्रह्म है ,
‘सर्वेभ्यो बृहत्वात् ब्रह्म ‘
सबसे बड़ा होने से ब्रह्म ईश्वर का नाम है
जो सबसे ऊपर विराजमान सबसे बड़ा अनंत बड़ी युक्त परमात्मा है वह ब्रह्म है।
बृंहति वर्धते तद् ब्रह्म:।
वर्धन्तेऽनेन धर्मादाय:।
धर्मादि की वृद्धि करने के कारण धन को भी ब्रह्म कहते हैं।
‘धनाद्धर्म तत: सुखम्
धनादि के परम वर्धक तो भगवान ही है अतः वास्तव में ब्रह्म वे ही हैं।
बृहत्वात् बृंहणात्वाच्चात्मैव ब्रह्मेति गीयते ।
जो स्वयं बृहत है तथा संपूर्ण जगत का बृहण करते हैं इसलिए भगवान ब्रह्म कहाते हैं।
लेकिन ब्रह्मा यानी ईश्वर इन्द्रियों रहित है, दूसरे शब्दों में ईश्वर के मनुष्य,प्राणी की भांति शरीर के अंग जैसे कि आंख ,कान ,नाक ,मुंह आदि नही है। फिर भी ईश्वर श्रृष्टि का रचयिता है।
चारों वेदों में ब्रह्मा और ब्रह्म शब्द अलग -अलग भावार्थों में प्रयोग हुए है। जिसमें मुख्यतः ब्रह्मा का भावार्थ चारों वेद के जानने वाला और ब्रह्म शब्द का भावार्थ मुख्यतः ईश्वर के लिए आया है।
काल्पनिक चित्र में जो ब्रह्मा का व्यक्तित्व दिखाया जाता है उसमें ४ मुँह , चारों दिशाओं में दिखाए जाते है। यही चार मुख वाला चित्र ,इस प्रश्न का उत्तर है। क्योंकि ये चार मुँह का चित्र ईश्वर द्वारा दिए गए चार वेदों के ज्ञान को दर्शाता है।
वेद चार हे :-
१. ऋग्वेद — अग्नि ऋषि –१०५८९ मंत्र –विषय -ज्ञान -इस ऋग्वेद से सब पदार्थों की स्तुति होती है अर्थात् ईश्वर ने जिसमें सब पदार्थों के गुणों का प्रकाश किया है,
२. यजुर्वेद -वायु ऋषि -१९७५ मंत्र -विषय – कर्मकांड -जो कर्मकांड है, सो विज्ञान का निमित्त और जो विज्ञानकांड है, सो क्रिया से फल देने वाला होता है। कोई जीव ऐसा नहीं है कि जो मन, प्राण, वायु, इन्द्रिय और शरीर के चलाये बिना एक क्षण भर भी रह सके, क्योंकि जीव अल्पज्ञ एकदेशवर्त्ती चेतन है।
३. सामवेद- आदित्य ऋषि -१८७५ मंत्र – विषय -उपासना -उपासना को प्रधानता देने के कारण चारों वेदों में आकार की दृष्टि से लघुतम सामवेद का विशिष्ट महत्व है।
४. अथर्ववेद –अंगिरा ऋषि – ५९७७ मंत्र -विषय -विज्ञानं -अथर्ववेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की साधनों की कुन्जी है। जीवन एक सतत संग्राम है। अथर्ववेद जीवन-संग्राम में सफलता प्राप्त करने के उपाय बताता है।
वेद ज्ञान कैसे मिला? : वेद ईश्वर की वाणी है ,सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि की और मनुष्यों के रूप में युवावस्था में स्त्री व पुरूषों को उत्पन्न किया था। इन मनुष्यों में चार ऋषि वा पुरुष अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम के हुए। यह चारों मनुष्य ऋषि अर्थात् उच्च कोटि के विद्वान थे। यह पूर्वजन्म में पवित्र आत्मायें थी जिस कारण इनकी आत्माओं में ज्ञान ग्रहण करने की सर्वाधिक सामर्थ्य थी। सर्वव्यापक परमात्मा ने इन चार ऋषियों को अपना ज्ञान जिसे वेद के नाम से जानते हैं और आज भी वह सृष्टि के आदि काल जैसा ही शुद्ध रूप में उपलब्ध है, उसे इन चार ऋषियों की आत्माओं में स्थापित किया था।
यह समझना आवश्यक है कि ईश्वर व जीवात्मा दोनों चेतन हैं। चेतन में ज्ञान प्राप्त करने व ज्ञान देने की क्षमता वा सामर्थ्य होती है। ईश्वर पहले से ही, अनादि काल से, सृष्टि में ज्ञान व विज्ञान का अजस्र स्रोत है। उसने इस सृष्टि से पूर्व अनादि काल से अनन्त बार ऐसी ही सृष्टि को बनाया है । उसका ज्ञान का स्तर कभी कम व अधिक नहीं होता।
ईश्वर ने हमारे शरीर में बुद्धि, मन व अन्तःकरण आदि अवयवों को बनाया है। उसने हमें बोलने के लिए न केवल जिह्वा वा वाक् दी है अपितु सुनने के लिए श्रवणेन्द्रिय भी दी है। ईश्वर को हमें जो भी बात कहनी व समझानी होती है उसकी वह हमारी आत्मा के भीतर प्रेरणा कर देता है जिसे मनुष्य जान व समझ सकता है। जिस मनुष्य का आत्मा जितना अधिक शुद्ध व पवित्र होता है उतनी ही शीघ्रता व पूर्णता से वह ईश्वर की प्रेरणा को ग्रहण कर सकता व समझ सकता है। ईश्वर ने अपने इस गुण व क्षमता का उपयोग कर सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा की आत्माओं में प्रेरणा कर ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद का ज्ञान उनके अर्थ सहित स्थापित किया था। और इसीलिए ये चार ऋषि ही आरंभिक ब्राह्मण हुए।
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