वास्तव में यह स्वामी जी महाराज के सात्विक प्रयास और पुरुषार्थ का ही परिणाम है कि उनके वैचारिक मानस पुत्रों के द्वारा इतनी शीघ्रता से आर्य समाज का इतना अधिक विस्तार कर दिया गया। इसके पीछे सात्विक आत्मिक शक्ति लगी हुई थी। जिसने लोगों को हृदय से प्रभावित किया और वह धड़ाधड़ आर्य समाज की विचारधारा के साथ जुड़ते चले गए। जिन-जिन बाहरी देशों में आर्य समाज का इतनी शीघ्रता से प्रचार प्रसार हुआ, ये वही देश हैं जो अपने अतीत में कभी न कभी वैदिक संस्कृति से जुड़े रहे या कहिए कि वैदिक संस्कृति या वैदिक राष्ट्र के ही एक भाग रहे हैं और जिन्हें कालांतर में इस्लाम या ईसाई मत को मानने वाले लोगों ने तलवार के बल पर धर्मांतरित कर लिया था। तलवार के बल पर उन लोगों को धर्मांतरित करने में इस्लाम और ईसाई मत को सैकड़ो वर्ष लग गए, जबकि स्वामी जी महाराज के सात्विक भाव ने यह काम बहुत कम समय में पूर्ण करा दिया।
आर्य समाज ने पश्चिम की अपसंस्कृति के फैलाव को रोकने के लिए भी अपने आप को प्रस्तुत किया । पश्चिम की अपसंस्कृति आर्य समाज के फौलादी इरादों के सामने झुक गई। उसने स्पष्ट रूप से तो हार नहीं मानी पर इतना निश्चित है कि वह आर्य समाज के सामने फीकी अवश्य पड़ गई। इस्लाम के नाम पर जो लोग भारत के हिंदू समाज का धड़ाधड़ धर्मांतरण कर रहे थे ,उनसे भी आर्य समाज ने खुलकर शास्त्रार्थ करने आरंभ किए। उनसे पहली बार किसी संस्था ने यह पूछना आरंभ किया कि हमें अर्थात भारतवर्ष के आर्यजनों को इस्लाम क्यों स्वीकार कर लेना चाहिए ? आखिर ऐसी कौन सी सच्चाई और अच्छाई है जिसके चलते हमें वेद धर्म जैसे पवित्र धर्म को छोड़कर इस्लाम को स्वीकार करना चाहिए ? वास्तव में आर्य समाज के इस प्रकार के प्रश्नों का इस्लाम के पास भी कोई उत्तर नहीं था। इस्लाम ने अपने जन्म काल से लेकर अब तक करोड़ों लोगों का धर्मांतरण कर इस्लाम का प्रचार प्रसार और विस्तार किया था। अनेक देशों की संस्कृतियों को मिटाकर उन्हें भूमिसात कर दिया था। कहीं पर भी उसे शास्त्रार्थ करने की चुनौती नहीं मिली थी। किसी ने भी उससे यह नहीं पूछा था कि आखिर इस्लाम के भीतर ऐसी कौन सी विशेषता है जिसके चलते हमें अपना मौलिक धर्म छोड़कर इस्लाम स्वीकार कर लेना चाहिए ? जब भारत में आर्य समाज ने इस्लाम से यह पूछना आरंभ किया तो ईसाई मत वालों की भांति इस्लाम के मानने वालों को भी पसीना आ गया। इस्लाम को अपना खोखलापन साफ दिखाई दे रहा था। वेद धर्म की वास्तविकता और मजबूती भी उसके सामने सीना ताने खड़ी थी । जिसे वह खुली आंखों से देख रहा था। उसका सामना करना भी उसके लिए असंभव हो गया था।
गुरुकुलों की शिक्षा को लागू करके आर्य समाज ने पश्चिम की ओर तेजी से बढ़ते हुए भारतीय युवा को रोकने में सफलता प्राप्त की। जिन लोगों ने भारत के भीतर रहते हुए अनेक संप्रदायों में भारत के वैदिक धर्मावलंबियों को बांट लिया था और अपनी-अपनी दुकान चलाकर अपना अपना स्वार्थ सिद्ध करते जा रहे थे, उनको भी स्वामी जी महाराज ने खुली चुनौती दी। आर्य समाज ने अनेक प्रकार के पाखंडी तांत्रिक पुराणपंथी लोगों का भी विरोध किया। लोगों को समझाया कि तुम्हारी प्रगति, आत्मिक उन्नति और सामाजिक विषमताओं के लिए यह पुराण पंथी पाखंडी तांत्रिक और मठाधीश लोग भी जिम्मेदार हैं। विदेशी शासकों की राजनीतिक हुकूमत से अधिक खतरनाक हुकूमत इन मठाधीशों की थी। जिसे तोड़ने में हमारे लोगों को कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। आर्य समाज ने उन असहाय, निर्बल, असक्त बने लोगों को नई ताकत प्रदान की। लोगों ने स्वामी दयानंद जी महाराज और उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज के विद्वानों की बातों को सुनकर आंखें खोलने आरंभ की। जिससे पुराणपंथी लोगों के पाखंडों की दीवारें भी धड़ाधड़ करने लगीं। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने गुरुकुल कांगड़ी के माध्यम से अनेक ब्रह्मचारियों को इन पाखंडों के विरुद्ध खड़ा करना आरंभ किया। जिन्होंने स्वामी दयानंद जी के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए अपने जीवन को होम कर दिया। आज भी जब हम स्वामी दयानंद जी महाराज की 200 वीं जयंती मना रहे हैं तो पूरे देश में लगभग 200 ही गुरुकुल स्वामी दयानंद जी महाराज के दर्शन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। स्वामी जी महाराज के मिशन को आगे बढ़ाने वाले इन गुरुकुलों में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं गुरुकुल ज्वालापुर, देहरादून, मेरठ, झज्जर, पौंधा, लुधियाना, सुन्दरगढ़ (उड़ीसा) आदि। स्त्री शिक्षा को भी आर्य समाज ने ही देश में पहली बार लागू कराया। आर्य समाज ने लोगों को बताया कि इस देश में गार्गी, मैत्रेयी,अपाला, घोषा जैसी सन्नारियां हुआ करती थीं। जिन्हें वेद आदि पढ़ने का पूर्ण अधिकार था। जिन लोगों ने नारियों से पढ़ने का अधिकार छीना उन्हें आर्य समाज ने स्पष्ट शब्दों में देश धर्म और संस्कृति का शत्रु कहा।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने अपने वेदभाष्य में सर्वत्र आर्य का अर्थ “धर्म युक्त गुण कर्म स्वभाव वाले” “उत्तम गुण कर्म स्वभाव युक्त” उत्तम जन और समस्त शुभ गुण कर्म और स्वभावों में वर्तमान रहना माना है। स्वामी जी का आर्य के संबंध में चिंतन संकीर्ण नहीं था। वह समस्त मानव जाति को आर्य बनाने का सपना देखते थे। उनकी मान्यता थी कि सारा संसार धर्मयुक्त गुर्ण कर्म स्वभाव वाले लोगों का निवास स्थान बन जाएगा तो यहां से समस्त प्रकार के अनाचार , अत्याचार और पापाचार पर विजय प्राप्त की जा सकेगी। स्वामी जी महाराज हथियार के बल पर संसार की विजय की अपेक्षा आत्मविजय को प्राथमिकता देते थे। स्वामी जी संसार को अपनी उसी प्रारंभिक अवस्था में ले जाना चाहते थे जब सभी लोग इस बात से सहमत थे कि समस्त संसार के जन एक ही मानव जाति से संबंध रखते हैं, उनका एक ही पिता है। एक ही माता है। एक ही गुरु ( परमपिता परमेश्वर) है ।इसलिए सब एक परिवार के जन सिद्ध होते हैं। स्वामी जी महाराज के मत में सृष्टि के प्रारंभ में केवल एक मनुष्य जाति थी। मानव समाज विभिन्न जातियों, वर्गों, संप्रदायों आदि में विभाजित नहीं था। सभी एक दूसरे के साथ आत्मीयता पूर्ण व्यवहार करते थे। आत्मीयता के संबंध रखते हुए एक दूसरे की उन्नति में स्वाभाविक रूप से सम्मिलित होकर सहयोग देते थे। धीरे-धीरे जब इस प्रकार की व्यवस्था में घुन लगने लगा तो कुछ काल उपरांत श्रेष्ठों का नाम आर्य और दुष्टों का नाम दस्यु हुआ। आर्य नाम धार्मिक विद्वान आप्त पुरुषों का और इससे विपरीत जनों का नाम दस्यु अर्थात डाकू दुष्ट अधार्मिक और अविद्वान है। पश्चिम के व्याख्या करो और लेखक कौन है भारत के ऋषियों की इस सच्चाई को न समझकर आर्य और दस्यु का विवाद आर्य और द्रविड़ के नाम पर भारत में खड़ा करने का प्रयास किया। उनकी इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण अवधारणाओं का स्वामी दयानंद जी महाराज और उसके पश्चात के अनेक आर्य विद्वानों ने मुंह तोड़ जवाब दिया।
‘आर्य समाज का इतिहाससी( प्रथम भाग) में विद्वान लेखक इंद्र विद्यावाचस्पति जी पृष्ठ संख्या 109 पर लिखते हैं कि स्वामी दयानंद जी महाराज जब दिल्ली दरबार में उपस्थित हुए और उन्हें बोलने का अवसर प्राप्त हुआ तो उनके विचार का सार यह था कि देश का अभ्युदय और मनुष्य का कल्याण तब तक नहीं हो सकता, जब तक देश भर का एक धर्म न हो जाए। वह एक धर्म वैदिक धर्म है। यदि उस पर कोई आप में से किसी को कोई शंका हो तो स्वामी जी ने उसके समाधान के लिए अवसर देने की इच्छा प्रकट की। स्वामी जी झगड़ों को मिटाना चाहते थे। इसके लिए उनका एक ही संकल्प था कि संपूर्ण मानव समाज अपने एक धर्म अर्थात वैदिक धर्म पर लौट आए।
विकिपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार आर्य समाज की हिन्दी पत्रकारिता ने देश को राष्ट्रीय संस्कृति, धर्मचिन्तन, स्वदेशी का पाठ पढ़ाया। आर्यसमाज के माध्यम से ज्ञानमूलक व रसात्मक दोनों प्रकार से साहित्य की अभूतपूर्व वृद्धि हुई। स्वामी दयानन्द पत्रकारिता द्वारा धर्म प्रचार व्यापक रूप से करना चाहते थे। वे स्वयं कोई पत्र नहीं निकाल सके परन्तु आर्य समाजियों को पत्र-पत्रिकाएँ निकालने के लिए प्रोत्साहित किया। आर्य समाज की विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रसारित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में ‘पवमान’, ‘आत्म शुद्धि पथ’, ‘वैदिक गर्जना’, ‘आर्य संकल्प’, ‘वैदिक रवि’, ‘विश्वज्योति’, ‘सत्यार्थ सौरभ’, ‘दयानन्द सन्देश’, ‘महर्षि दयानन्द स्मृति प्रकाश’, ‘तपोभूमि’, ‘नूतन निष्काम पत्रिका’, ‘आर्य प्रेरणा’ , ‘आर्य संसार’, ‘सुधारक’, ‘टंकारा समाचार’, ‘अग्निदूत’, ‘आर्य सेवक’, ‘भारतोदय’, ‘आर्य मुसाफिर’, ‘आर्य सन्देश’, ‘आर्य मर्यादा’, ‘आर्य जगत’, ‘आर्य मित्र’, ‘आर्य प्रतिनिधि’, ‘आर्य मार्तण्ड’, ‘आर्य जीवन’, ‘परोपकारी’, ‘सम्वर्द्धिनी’ आदि मासिक, पाक्षिक व वार्षिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं जिससे हिन्दी पत्रकारिता को नव्य आलोक मिल रहा है।
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