स्वामी दयानंद जी महाराज ने कराया था भारतवासियों को उनकी वास्तविकता से परिचय , भाग 4
आर्य समाज ने शिक्षा, समाज सुधार और राष्ट्रीयता के प्रचार प्रसार में अपना अप्रतिम योगदान दिया। स्वदेशी आंदोलन का मुख्य सूत्रधार आर्य समाज ही बना । जिन लोगों ने किसी भी कारण से आर्य वैदिक धर्म को त्याग कर धर्म परिवर्तन कर लिया था, उनकी शुद्धि का कार्य भी आर्य समाज ने आरंभ किया। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज जैसे लोग शुद्धि आंदोलन के प्रणेता बने। भारत के प्राचीन वैदिक अभिवादन ‘नमस्ते’ को आर्य समाज ने ही दोबारा प्रचलित किया। इस अभिवादन को स्वयं आर्य वैदिक धर्मी हिंदू की त्याग चुके थे। स्वामी दयानंद जी महाराज ने अपना अधिकांश साहित्य हिंदी में लिखा। यहां तक की सत्यार्थ प्रकाश को भी उन्होंने हिंदी में लिखकर हिंदी की अप्रतिम सेवा की। जिससे प्रेरणा प्राप्त कर अनेक विद्वानों ने हिंदी साहित्य को मालामाल कर दिया। लाला हंसराज जी ने शिक्षा के क्षेत्र में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना सर्वप्रथम 1886 में लाहौर में की थी । उसके पश्चात डीएवी कॉलेजों ने शिक्षा के क्षेत्र में नई क्रांति उत्पन्न की। इन शैक्षणिक संस्थानों से अनेक आर्य विद्वान तैयार होकर समाज को मिले।
शिक्षा के क्षेत्र में इसी प्रकार की क्रांति स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना करने के उपरांत की थी। उन्होंने यह कार्य 1902 में संपन्न किया था। आर्य समाज की विचारधारा से प्रेरित अनेक ऐसे क्रांतिकारी निकले जिन्होंने भारत से बाहर जाकर भारत की स्वाधीनता के आंदोलन को प्रभावशाली ढंग से संचालित किया। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के पक्ष में माहौल बनाने में सफलता प्राप्त की। भारत के पक्ष को उन्होंने बहुत जोरदार ढंग से उठाया और लोगों का ध्यान अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों, सोच और कार्यशैली के प्रति आकर्षित किया। जिससे भारत के सम्मान में आशातीत बढ़ोतरी हुई। आर्य समाज के हजारों विद्वानों ने अलग-अलग समय पर अनेक ऐसी पुस्तकों का लेखन कार्य किया, जिन्हें पढ़कर भारतीय युवाओं को अपने अतीत को समझने में सफलता प्राप्त मिली। विकिपीडिया के अनुसार वेलेन्टाइन शिरोल नामक अंग्रेज ने ‘इंडियन अनरेस्ट’ नामक अपनी पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश को ‘ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाला’ और दयानन्द सरस्वती को ‘भारतीय अशांति का जन्मदाता’ बताया है।
बात स्पष्ट है कि स्वामी दयानंद जी महाराज ने देश के युवाओं के दिलों में देशभक्ति का लावा सुलगाया। यह माना जा सकता है कि स्वामी जी से पूर्व भी देश की आजादी के लिए अनेक आंदोलन हुए। अनेक बलिदान दिए गए। अनेक स्थानों पर विदेशी शत्रुओं को कड़ी चुनौती दी गई । उन्हें पीछे हटने के लिए विवश किया गया। इस सबके उपरांत भी सफलता नहीं मिल रही थी। अब सफलता को सुनिश्चित करने के लिए स्वामी जी ने नई रणनीति बनाई और उसी पर देश को चलने के लिए प्रेरित किया।
स्वामी जी के चिंतन और नए विचार को भारत के अनेक क्रांतिकारियों ने बड़ी तेजी से पकड़ लिया। उन्हें स्वामी जी का संकल्प, स्वामी जी का चिंतन और उनका नया विचार तुरंत पसंद आ गया। यही कारण रहा कि स्वामी जी के परम शिष्य रहे श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इस विचार को पड़कर अनेक क्रांतिकारियों को इस पर चलने के लिए प्रेरित किया। विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, भाई परमानंद, सेनापति बापट ,मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, गोपाल कृष्ण गोखले, सरदार भगत सिंह जैसे अनेक क्रांतिकारियों ने स्वामी जी के विचारों से ऊर्जा लेकर काम करना आरंभ किया। जिससे क्रांतिकारियों के रूप में मां भारती के आंगन में कई कई सौ वाट के बल्ब प्रकाश फैलाने लगे। जिसे अंग्रेजों की आंखें चुंधियां गईं।
बलिदानों का प्रकाश इतना तीव्र था कि अंग्रेज इन प्रकाश स्तंभों की ओर देखने तक का साहस नहीं कर पा रहे थे।
राजनीतिक क्षेत्र से अलग सामाजिक क्षेत्र में भी उस समय क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। लोगों ने कई प्रकार की रूढ़ियों, पाखंडों और अंधविश्वासों से मुंह मोड़ लिया। या कहिए कि उनसे मुक्ति पाने के लिए मन बना लिया। धड़ाधड़ कई प्रकार के पाखंड और अंधविश्वास मिटते चले गए। लोगों में नई ऊर्जा, नया जोश भर गया। जिन लोगों ने पाखंड और अंधविश्वासों को फैलाया था, वह भी समाज सुधारक आर्य समाजी विद्वानों के सामने से उसी प्रकार भागने लगे जिस प्रकार अंग्रेज हमारे क्रांतिकारियों के सामने से भागने में अच्छाई समझ रहे थे।
भारत में हुए इस प्रकार के तीव्र राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों को पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार के क्रांतिकारी परिवर्तन के चलते भारत के सामाजिक क्षेत्र में जहां समानता का भाव बनाने में सफलता मिली, वहीं लोगों ने एकता की भावना को भी बढ़ाने का काम करना आरंभ किया।
जातीय आधार पर ऊंच नीच और छुआछूत की भावना को दूर करने में सफलता मिली। लोगों ने एक दूसरे को समझना आरंभ किया । तेजी से दूरियां मिटने लगीं और नजदीकियां बढ़ने लगीं । सामाजिक कुरीतियों ने अपना बोरिया बिस्तर बांधना आरंभ कर दिया। जिससे सारे देशवासियों ने सामूहिक प्रयास कर अंग्रेजों को भगाने का संकल्प लिया। जातीय अहंकार के कारण जो लोग दूसरी जातियों पर अत्याचार कर रहे थे, उनके व्यवहार में भी परिवर्तन देखा गया। इस प्रकार जिन विषमताओं को पैदा कर अंग्रेज भारत में अपना राज करने में सफल हो रहे थे, उन पर अब बहुत अधिक सीमा तक नियंत्रण स्थापित कर लिया गया था। आर्य समाज ने वास्तविक अर्थों में भारत के राष्ट्र को जागृत कर दिया। उसमें नई चेतना का संचार किया। इसी को देखकर अंग्रेजों ने स्वामी दयानंद जी महाराज को भारत में अशांति का जनक कहना आरंभ किया।
‘आर्य समाज का इतिहास’ भाग – 1, के निवेदन में आर्य स्वाध्याय केंद्र नई दिल्ली की ओर से लिखा गया है कि ‘सर्दियों की मोह निद्रा के पश्चात 19वीं सदी के मध्य भाग में पुनःजागरण और धार्मिक सुधारणा के जिन आंदोलनों का सूत्रपात भारत में हुआ, महर्षि दयानंद सरस्वती तथा आर्य समाज का उनमें प्रमुख कर्तृत्व था। दयानंद आधुनिक भारत के सबसे महान चिंतक थे। धर्म, दर्शन , समाज संगठन, राज्यसंस्था और आर्थिक व्यवस्था आदि के संबंध में जो विचार उन्होंने अपने ग्रंथों में प्रतिपादित किए हैं उनसे न केवल भारत अपितु संपूर्ण विश्व और मानव समाज का वास्तविक कल्याण हो सकता है। उन्होंने आर्य समाज की स्थापना इसी प्रयोजन से की थी कि उसके द्वारा ‘संसार का उपकार’ व ‘सब मनुष्यों का हित’ किया जाए। पर वह यह भी मानते थे कि भारत संसार का सर्वश्रेष्ठ देश है । किसी समय यह विश्व का शिरोमणि रहा है और सत्य सनातन वैदिक धर्म के पुनर्स्थापन द्वारा यह देश एक बार फिर संसार का नेतृत्व कर सकता है और मानव मात्र को सुख शांति ,उन्नति एवं समृद्धि का मार्ग प्रदर्शित कर सकता है। 19वीं शताब्दी में ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज आदि सुधार के जिन अन्य आंदोलनों का भारत में सूत्रपात हुआ था, उनका क्षेत्र अत्यंत सीमित रहा। विश्वव्यापी आंदोलन के स्वरूप की प्राप्ति का तो प्रश्न ही क्या ? वे भारत के भी बहुत थोड़े ही प्रदेश तथा जनता के बहुत थोड़े वर्ग को प्रभावित कर सके, लेकिन आर्य समाज ने शीघ्र ही एक जन आंदोलन का रूप प्राप्त कर लिया। भारत का कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं रहा जहां आर्य समाजों की स्थापना न हुई हो। भारत के बाहर अफ्रीका, मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा, हॉलैंड ,सिंगापुर, थाईलैंड आदि कितने ही देशों में आर्य समाज स्थापित हो चुके हैं और देश-विदेश के इन आर्य समाजों की संख्या अब 5000 के लगभग पहुंच गई है। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा प्रारंभ किए गए वैदिक धर्म के पुनरुत्थान तथा समाज सुधार के आंदोलन के इस विस्तार और प्रसार में केवल एक शताब्दी के लगभग का स्वल्प समय लगा है, जो वस्तुतः अत्यंत आश्चर्य की बात है।’
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत