महर्षि दयानन्द द्वारा बताया गया वह मार्ग जिस पर चलकर वेद-धर्म को अभी भी बचाया जा सकता है ●
दि० ३ अगस्त १८७५ को पूना में दिए गए अपने भाषण में महर्षि दयानन्द ने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा –
“हमारे भाई शास्त्री लोग हठ करते हैं, यह हम सबका दुर्भाग्य है । हमारे भरत-खण्ड देश से वेदों का बहुत-सा धर्म लुप्त हो गया है और रहा-सहा हम लोगों के प्रमाद से नष्ट होता जा रहा है; और उसकी जगह पाखण्ड, अनाचार और दम्भ बढ़ता जा रहा है । सदाचार और सच्चाई से हम लोग दूर होते जा रहे हैं – तभी तो हम सबकी दुर्दशा हो रही है, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? सनातन आर्ष ग्रन्थ वेदादि को छोड़कर पुराणों में लिपट रहे हैं और उनकी कल्पित और असम्भव गाथाओं को अपना धर्म समझ रहे हैं । यदि मुझसे कोई पूछे कि इस पागलपन का कोई उपाय भी है या नहीं ? तो मेरा उत्तर यह है कि यद्यपि रोग बहुत बढ़ा हुआ है, तथापि इसका उपाय हो सकता है । यदि परमात्मा की कृपा हुई तो रोग असाध्य नहीं है । वेद और छः दर्शनों की सी प्राचीन पुस्तकों के भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनुवाद करके सब लोगों को जिससे अनायास प्राचीन विद्याओं का ज्ञान प्राप्त हो सके, ऐसा यत्न करना चाहिए, और पढ़े-लिखे विद्वान् लोगों को सच्चे धर्म का उपदेश करने की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए । और गांव-गांव में आर्यसमाज की स्थापना करके तथा मूर्तिपूजादि अनाचारों को दूर करके एवं ब्रह्मचर्य से तप का सामर्थ्य बढ़ाकर सब वर्णों और आश्रमों के लोगों को चाहिए कि शारीरिक और आत्मिक बल को बढ़ावें तो सुगमता से शीघ्र लोगों की आंखें खुल जावेंगी और दुर्दशा दूर होकर सुदशा प्राप्त होगी । मेरे जैसे एक निर्बल मनुष्य के करने से यह काम कैसे हो सकेगा ? इसलिए आप सब बुद्धिमान् लोगों से आशा रखता हूं कि आप मुझे इस शुभ कार्य में सहयोग देंगे । – ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।”
(‘उपदेश-मंजरी’, चौदहवाँ उपदेश)
Presented: by – Bhavesh Merja