विनम्र प्रशंसकों के द्वारा ही परमात्मा की प्रशंसा क्यों होती है?

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लोगों के गहरे हृदय से हम सम्मान कैसे प्राप्त करें?
सभी सन्त वनों अर्थात् तपस्या के लिए भक्तिपूर्ण एकान्तवास को क्यों चुनते हैं?
अपने मन में वनों जैसी अवस्था कैसे पैदा करें?

स इद्वने नमस्युभिर्वचस्यते चारु जनेषु प्रबु्रवाण इन्द्रियम्।
वृषा छन्दुर्भवति हर्यतो वृषा क्षेमेण धेनां मघवा यदिन्वति।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.55.4

(स इत्) केवल वह (वने) एकान्त स्थान पर, एकाग्र मन के साथ (नमस्युभिः) विनम्र प्रशंसा करने वालों से (वचस्यते) प्रशंसित, स्तुति किया जाता है (चारु) सुन्दर (जनेषु) लोगों के लिए (प्रबु्रवाण) प्रगट किया गया (इन्द्रियम्) उसका ज्ञान और शक्ति (वृषा) वर्षा करने वाला (छन्दुः) आनन्दित एवं मुक्त (भवति) वह है (हर्यतः) उत्तम कार्य करने वालों के लिए (वृषा) वर्षा (क्षेमेण) शक्ति तथा संरक्षण के लिए (धेनाम्) उत्तम वाणियाँ (ज्ञान एवं प्रेरणा के लिए) (मघवा) यशस्वी सम्पदा (यत् इन्वति) जब व्याप्त करता है, जब प्राप्त करता है।

व्याख्या:-
विनम्र प्रशंसकों के द्वारा ही परमात्मा की प्रशंसा क्यों होती है?

उसकी प्रशंसा और महिमा केवल विनम्र प्रशंसक ही एकान्त स्थान में और एकाग्र मन के साथ करते हैं, क्योंकि वह अपना सुन्दर ज्ञान और दिव्य शक्तियाँ ऐसे लोगों के लिए व्यक्त करता है। वह उत्तम कार्य करने वालों के लिए आनन्ददाता है और अपार वर्षा करने वाला है। जब वह सबके बल और संरक्षण के लिए अपनी उत्तम वाणियों और यशस्वी सम्पदाओं की वर्षा करता है तो वह सब जगह व्याप्त हो जाता है और सब तरफ से प्रशंसाएँ और महिमा मंडन प्राप्त करता है।

जीवन में सार्थकता: –
लोगों के गहरे हृदय से हम सम्मान कैसे प्राप्त करें?
सभी सन्त वनों अर्थात् तपस्या के लिए भक्तिपूर्ण एकान्तवास को क्यों चुनते हैं?
अपने मन में वनों जैसी अवस्था कैसे पैदा करें?

यह मन्त्र सभी मानवों के लिए एक दिव्य पथ का निर्धारण करता है जिससे वे सबके कल्याण के लिए उत्तम कार्यों को कर सकें और सबके संरक्षण के लिए उत्तम ज्ञान, दिव्य वाणियाँ और यशस्वी सम्पदा प्राप्त कर सकें। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति भी सबके हृदय में व्याप्त हो जाता है और सबके द्वारा एकाग्र मन से प्रशंसित और महिमा मंडित होता है, यह औपचारिक नहीं होता। वह लोगों गहरे हृदय से सम्मान प्राप्त करता है।
हमें परमात्मा की तरह सम्मानित और प्रशंसित होने के लिए परमात्मा के पथ का ही अनुसरण करना चाहिए। परमात्मा जैसे बनने के लिए परमात्मा का अनुसरण करो। दिव्य शक्तियाँ प्राप्त करने के लिए दिव्य मार्ग का अनुसरण करो।
इस मन्त्र का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू है – ‘वने’ अर्थात् जंगल, एकान्त, अलग जीवन, मन और हृदय की गहराई में एकाग्रता। दिव्यता को लोगों के द्वारा महिमा मंडित होने की आवश्कता नहीं होती। सच्ची दिव्यता को सच्चा और मूल समर्पण चाहिए। सभी महान् सन्त और ऋषि जंगलों अथवा एकान्त स्थानों पर जाते थे जिससे उन्हें मन और हृदय की एकाग्रता प्राप्त हो और दिव्यता प्राप्त करने के लिए वे परमात्मा का महिमागान कर सकें। ‘वने’ के दो पहलू हैं – शारीरिक और मानसिक अर्थात् मन में वन जैसे अकेलेपन का निर्माण करना।
इस मन्त्र के निष्कर्ष के रूप में हमें यह प्रेरणा प्राप्त होती है कि हम उत्तम कार्य करें और अपने सारे मानसिक विभागों को सर्वोच्च दिव्यता की महिमा में लगा दें। यह कार्य तभी हो सकता है जब हमारा मन एक सूत्रीय लक्ष्य पर हो कि हमें सर्वोच्च दिव्यता के साथ एकता की अनुभूति करनी है। श्रद्धाभाव से किया गया एकान्तवास मन का संतुलन बनाने में सहायक होता है।


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