स्वामी दयानंद जी ने दिखाया भारतवासियों को उनका वास्तविक स्वरूप, भाग 2
स्वामी जी महाराज जिस समय आर्य समाज की स्थापना कर रहे थे, उससे पहले से ही वे आर्य जाति के बिगड़े हुए किले की मरम्मत के कार्य में लग गए थे। वह अपने किले को सुदृढ़ करना चाहते थे, तभी विदेशी और विरोधी मतावलंबियों से लड़ना चाहते थे। देखा जाए तो स्वामी जी का यह व्यवहारिक दृष्टिकोण था। वह अंधी वीरता के विरोधी थे । तैयारी पूरी की जाए और तैयारी से पहले अपनी सभी कमियों को पूर्ण कर लिया जाए, ऐसा उनका मानना था। 1857 की क्रांति की असफलता से सबसे बड़ी शिक्षा स्वामी जी ने ही ली थी। इस बार वह बिना तैयारी के या बिना कमियों को दूर किये युद्ध का आरंभ करना नहीं चाहते थे। उस समय इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले लोगों ने जहां अपनी मनुष्य कृत किताबों को अपने लिए प्रेरणा का स्रोत मान लिया था, वहां स्वामी जी ने आर्य जाति को संसार का सबसे प्राचीन धर्म ग्रंथ वेद नये किले अर्थात आर्य समाज की आधारशिला रखते समय ही प्रदान कर दिया। वेद को नये किले की आधारशिला के रूप में स्वीकृति प्रदान करवाना स्वामी जी का संपूर्ण मानव जाति पर बहुत बड़ा उपकार था।
राजकोट में आर्यसमाज की स्थापना के सम्बन्ध में पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित से विशेष जानकारी मिलती है-
“स्वामीजी ने यह प्रस्ताव किया कि राजकोट में आर्यसमाज स्थापित किया जाए और प्रार्थना समाज को ही आर्यसमाज में परिणत कर दिया जाए। प्रार्थना-समाज के सभी लोग इस प्रस्ताव से सहमत हो गये। वेद के निर्भ्रान्त होने पर किसी ने आपत्ति नहीं की। स्वामीजी के दीप्तिमय शरीर और तेजस्विनी वाणी का लोगों पर चुम्बक जैसा प्रभाव पड़ता था। वह सबको नतमस्तक कर देता था। आर्यसमाज स्थापित हो गया, मणिशंकर जटाशंकर और उनकी अनुपस्थिति में उत्तमराम निर्भयराम प्रधान का कार्य करने के लिए और हरगोविन्ददास द्वारकादास और नगीनदास ब्रजभूषणदास मन्त्री का कर्तव्य पालन करने के लिए नियत हुए।’
डॉ मानिकचंद जी की वाटिका में आर्य समाज की स्थापना हुई थी। उस समय आर्य समाज के 28 नियम बनाए गए थे । जिन वर्तमान 10 नियमों को हम देखते हैं, वे कालांतर में लाहौर में बनाए गए थे। मुंबई आर्य समाज का पहला नियम था – ‘सब मनुष्यों के हितार्थ आर्य समाज का होना आवश्यक है। आर्य समाज का उद्देश्य सब मनुष्यों का हित करना है।’ आर्य समाज के इस पहले नियम से ही आर्य समाज को स्थापित करने के संबंध में स्वामी जी का वास्तविक मंतव्य स्पष्ट हो जाता है।
दूसरे नियम में स्वामी जी ने स्पष्ट करवाया कि ‘इस समाज में मुख्य स्वत: प्रमाण वेदों को ही माना जाएगा।’ इसने स्पष्ट कर दिया कि स्वामी जी महाराज आर्य समाज रूपी नए किले की आधारशिला वेद को ही मान रहे थे।
आर्यसमाज के नियमों के विषय में पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित में लिखा है कि- “स्वामीजी ने आर्यसमाज के नियम बनाये, जो मुद्रित कर लिये गये। इनकी 300 प्रतियां तो स्वामी जी ने अहमदाबाद और मुम्बई में वितरण करने के लिए स्वयं रख लीं और शेष प्रतियां राजकोट और अन्य स्थानों में बांटने के लिए रख ली गई जो राजकोट में बांट दी र्गइं, शेष गुजरात, काठियावाड़ और उत्तरीय भारत के प्रधान नगरों में भेज दी गईं। उस समय स्वामी जी की यह सम्मति थी कि प्रधान आर्यसमाज अहमदाबाद और मुम्बई में रहें। आर्यसमाज के साप्ताहिक अधिवेशन प्रति रविवार को होने निश्चित हुए थे।”
इंद्र विद्या वाचस्पति ‘आर्य समाज का इतिहास’ प्रथम भाग के पृष्ठ संख्या 106 पर हमें बताते हैं कि ‘1875 के जुलाई मास के आरंभ में प्रसिद्ध सुधारक श्रीयुत महादेव गोविंद रानाडे के निमंत्रण पर स्वामी जी पुणे गए। पुणे महाराष्ट्र का केंद्र है। वह उन दिनों सनातन धर्म का गढ़ था। पुणे के ब्राह्मण राज्यों की स्थापना कर चुके हैं और राजाओं का शासन कर चुके हैं। उनसे भिड़ना साहस का कार्य था। पुणे में स्वामी जी के 15 बड़े प्रभावशाली व्याख्यान हुए। यह व्याख्यान संग्रह रूप में (उपदेश मंजरी के रूप में) छप भी चुके हैं। पुणे गढ़ में इन व्याख्यानों के प्रहारों ने हलचल मचा दी। रानाडे महोदय के उद्योग से शहर में स्वामी जी की सवारी निकली। एक पालकी में रखे हुए वेद आगे आगे थे और स्वामी जी को लिए हाथी पीछे-पीछे था। सवारी बड़ी धूमधाम से निकली।’
मुम्बई में 10 अप्रैल, सन् 1875 को आर्यसमाज की स्थापना से सम्बन्धित विवरण पं. लेखराम रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र से प्रस्तुत है-
“स्वामीजी के गुजरात की ओर चले जाने से आर्यसमाज की स्थापना का विचार जो बम्बई वालों के मन में उत्पन्न हुआ था, वह ढीला हो गया था। परन्तु स्वामी जी के पुनः आने से फिर बढ़ने लगा और अन्ततः यहां तक बढ़ा कि कुछ सज्जनों ने दृढ़ संकल्प कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, बिना (आर्यसमाज) स्थापित किए हम नहीं रहेंगे। स्वामीजी के लौटकर आते ही फरवरी मास, सन् 1875 में गिरगांव के मोहल्ले में एक सार्वजनिक सभा करके स्वर्गवासी रावबहादुर दादू बा पांडुरंग जी की प्रधानता में नियमों पर विचार करने के लिए एक उपसभा नियत की गई। परन्तु उस सभा में भी कई एक लोगों ने अपना यह विचार प्रकट किया कि अभी समाज-स्थापन न होना चाहिये। ऐसा अन्तरंग विचार होने से वह प्रयत्न भी वैसा ही रहा (आर्यसमाज स्थापित नहीं हुआ)।’
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य