भागवत कथा रहस्य* भाग-४
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डॉ डी के गर्ग
निवेदन: कृपया अपने विचार बताये और शेयर करें।
वराह अवतार कथा
पौराणिक कथा : पुरातन समय में दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया तब ब्रह्मा की नाक से भगवान विष्णु वराह रूप में प्रकट हुए। भगवान विष्णु के इस रूप को देखकर सभी देवताओं व ऋषि-मुनियों ने उनकी स्तुति की। सबके आग्रह पर भगवान वराह ने पृथ्वी को ढूंढना प्रारंभ किया। अपनी थूथनी की सहायता से उन्होंने पृथ्वी का पता लगा लिया और समुद्र के अंदर जाकर अपने दांतों पर रखकर वे पृथ्वी को बाहर ले आए। जब हिरण्याक्ष दैत्य ने यह देखा तो उसने भगवान विष्णु के वराह रूप को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। अंत में भगवान वराह ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। इसके बाद भगवान वराह ने अपने खुरों से जल को स्तंभित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। इसके पश्चात भगवान वराह अंतर्धान हो गए।
विश्लेषण: ये है अज्ञानियों की कथा ,जो एक समझदार कथाकार अपने भोले भाले अंधविस्वास से परिपूर्ण शिष्यों को संगीत की धुनों के साथ सुनाता है और ये विस्वास दिलाता है की इस प्रकार की कथाओं को सुनने मात्रा से पाप नष्ट हो जायेंगे और मुक्ति की गारंटी भी।
कथा को लेकर कुछ प्रश्न : क्या ये कथा प्रामाणिक है ? दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा रहा था तब क्या के पृथ्वी पर नहीं था ? क्या समुन्द्र पृथ्वी पर नहीं है ? ये पृथ्वी से अलग है ?जब पृथ्वी को ही गायब कर दिया तब ऋषि मुनि क्या पृथ्वी से अलग दुनिआ में थे ? ईश्वर को वराह यानि सूअर की कोख से जन्म लेने की कहानी कहने वाले क्या ईश्वर की शक्ति और उसके अस्तित्व को नहीं समझते है ? जब केवल समुन्द्र ही रह गया और पृथ्वी गायब हो गयी तो वराह क्या समुन्द्र के अंदर पैदा हुआ ?
कुल मिलाकर ये कथा झूट का पुलिंदा है।
सत्य क्या है ? वेद क्या कहते है?
ओ३म । ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोsध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोsअर्णवः ।। १।।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोsअजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ।। २ ।।
सूर्यचन्द्र्मसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। ३ ।।
उपरोक्त सूक्त के मंत्रों के शब्दों के अर्थ:
अभि इद्धात ज्ञानमय तपसः अनन्त सामर्थ्य से ऋतं सृष्टि रचना व उसके उद्देश्य के सभी आधारभूत नियम। क्योंकि, ये सभी नियम वेद में निहित हैं, इसलिए इस शब्द का अर्थ सत्य-ज्ञान के भण्डार वेद भी किया जाता है। च और सत्यम सत्व-रज-तम-युक्त कार्यरूप प्रकृति अधि अजायत पूर्व कल्प के समान उत्पन्न हुए रात्रीः महाप्रलयरूप रात्रि अजायत उत्पन्न हुए ततः उसके पश्चात उसी ज्ञानमय सामर्थ्य से समुद्रः अर्णवः पृथ्वी और अंतरिक्ष में विद्यमान समुद्र उत्पन्न हुआ, अर्थात पृथ्वी से लेकर अन्तरिक्ष तक समस्त स्थूल पदार्थों की रचना हुई
समुद्रात अर्णवात अधि अन्तरिक्ष से पृथिवीस्थ समुद्र की रचना करने के पश्चात संवतसरः सवंत्सर, अर्थात क्षण, मुहूर्त, प्रहर, मास, वर्ष आदि काल की वशी सम्पूर्ण जगत को वश में रखने के कारण ईश्वर को वशी भी कहा जाता है। मिषत अपने सहज स्वभाव से अहः रात्राणि दिन और रात्रि के विभागों, अर्थात घटिका, पल और क्षण आदि की विदधत रचना की
धाता जगत को उत्पन्न कर- धारण, पोषण और नियमन करने वाले ईश्वर सूर्य-चन्द्रमसौ सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों-उपग्रहों को दिवम द्युलोक को च और पृथिवीम पृथ्वीलोक को, च और अन्तरिक्षम अन्तरिक्षलोक को अथ तथा स्वः ब्रह्माण्ड के अन्य लोक-लोकान्तरों, ग्रहों, उपग्रहों को तथा उन लोकों में सुख विशेष के पदार्थों को यथापूर्वम पूर्व सृष्टि के अनुसार अकल्पयत बनाया
मन्त्रार्थ– हे परमेश्वर! आपके ज्ञानमय अनन्त सामर्थ्य से सत्य-ज्ञान के भण्डार वेद और सत्व-रज-तम-युक्त कार्यरूप प्रकृति पूर्व कल्प के समान उत्पन्न हुए। हे ईश्वर! आपके उसी सामर्थ्य से महाप्रलयरूप रात्रि उत्पन्न हुई। उसके पश्चात उसी ज्ञानमय सामर्थ्य से पृथ्वी और अंतरिक्ष में विद्यमान समुद्र उत्पन्न हुआ, अर्थात पृथ्वी से लेकर अन्तरिक्ष तक समस्त स्थूल पदार्थों की रचना हुई ।। १।।
-हे ईश्वर! आपने अन्तरिक्ष से पृथिवीस्थ समुद्र की रचना करने के पश्चात सवंत्सर, अर्थात क्षण, मुहूर्त, प्रहर, मास, वर्ष आदि काल की रचना की। आपने अपने सहज स्वभाव से दिन और रात्रि के विभागों, अर्थात घटिका, पल और क्षण आदि की रचना की ।। २।।
-हे परमेश्वर! आप जगत को उत्पन्न कर- धारण, पोषण और नियमन करने वाले हैं। आपने अपने अनन्त सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों-उपग्रहों को, द्युलोक को, पृथ्वीलोक को, अन्तरिक्षलोक को तथा ब्रह्माण्ड के अन्य लोक-लोकान्तरों, ग्रहों, उपग्रहों को तथा उन लोकों में सुख विशेष के पदार्थों को पूर्व सृष्टि के अनुसार ही इस सृष्टि में बनाया ।। ३।।
विशेष विवरण– स्वामी दयानन्द जी ने इनको पाप से बचाने वाले मंत्र कहा है, परन्तु यह नहीं कहा कि ये पाप के दण्ड से बचाने वाले मंत्र हैं। इन मंत्रों में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। जब हम इन मंत्रों के अर्थों पर विचार करते हैं, तो हमें परमात्मा की अनन्त शक्तियों का ध्यान आता है। अहंकार को पाप का मूल कहा जाता है। इतनी विशाल सृष्टि के सृजनकर्त्ता का चिन्तन करने से हमारा अहंकार नष्ट हो जाता है, जिससे हम पाप करने से बच जाते हैं।
पाप का अर्थ है, परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध चलना। यदि मैं चोरी करने लगूँ और उस समय यदि मेरा अधिकारी मेरे सामने आ जाए, तो क्या चोरी का विचार मेरे दिल से भाग नहीं जाएगा? इसी तरह परमात्मा की महानता को अनुभव करने से हम पाप नहीं कर पाते।
पापी और पुण्यात्मा में एक भेद है। वह यह कि पापी पाप करता जाता है और पाप के संस्कार को दूर करने का प्रयत्न नहीं करता, परन्तु पुण्यात्मा यदि कभी पाप कर बैठे, तो पश्चाताप करता है और आगे के लिए अपने मन को उस पाप के संस्कार से बचाने का प्रयत्न करता है।
हमारे प्रत्येक सांसारिक कर्म की छाप हमारे मन पर पड़ती है, जिन्हें संस्कार कह दिया जाता है। हमारे प्रत्येक कर्म, चाहे वह पाप हो या पुण्य, का फल अवश्य मिलता है। फल मिलने का समय ईश्वर की न्याय-व्यवस्था ही जानती है।
हमारा मोहल्ला, शहर, देश, दुनिया और हमारा सौर-मंडल इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आगे अत्यन्त तुच्छ हैं, तो फिर आप ही बताएं कि इस ब्रह्माण्ड-पति के सामने इस छोटे से मनुष्य की क्या औकात है?
ईश्वर पवित्र है, उसकी पवित्रता का चिन्तन करने से हम पवित्र बनते हैं। वह महान है, उसकी महानता का चिन्तन करने से हम महान बनते हैं। वह पापों से परे है, हमारे पापों को जानने वाला और उनकी सजा देने वाला है। उसका चिन्तन करने से हम अपने पापों की संख्या को न्यून करते जाते हैं।
इन मंत्रों में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य का वर्णन है। ईश्वर ने इस सृष्टि को पहली बार नहीं रचा। सृष्टि की रचना करना ईश्वर का स्वभाव है। क्योंकि जो पदार्थ नित्य होता है, उसका स्वभाव भी नित्य ही होता है, इसलिए ईश्वर अनन्त सृष्टियों को पहले रच चुका है और भविष्य में भी अनन्त सृष्टियों की रचना करेगा।
ईश्वर सब को उत्पन्न करके, सब में व्यापक होके, अन्तर्यामी रूप से सब के पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़ के सत्य न्याय से सब को यथावत फल दे रहा है। ऐसा निश्चित जान के, हम पापकर्मों का आचरण सर्वथा छोड़ दें।
सभी मनुष्यो को चाहिए की असत्य छोड़कर सत्य के मूल को समझे।