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इतिहास के पन्नों से

स्वामी दयानंद ने दिखाया भारतवासियों को उनका सही स्वरूप, भाग 1

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में सबसे अधिक ( 80% ) योगदान आर्य समाज का रहा। आर्य समाज ही वह संस्था थी जिसे भारत को सबसे पहले भारतीय तक साथ जोड़ने का सफल और वंदनीय अभ्यास किया स्वामी दयानंद जी महाराज पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत की आजादी के लिए सबसे पहले यह अनिवार्य किया कि हम सबको मिलकर सर्वप्रथम ‘आर्य’ बनना पड़ेगा। इसलिए वेदों की ओर लौटना समय की आवश्यकता है। स्वामी जी महाराज ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे यह भली प्रकार जानते थे कि विचारधारा का दोगलापन राष्ट्र को लंगड़ा लूला बनाता है। वह उसे उठने नहीं देता । चलने नहीं देता और लक्ष्य तक पहुंचने नहीं देता। उन्होंने यह उचित समझा कि पहले भारतीयों को उनका वास्तविक स्वरूप दिखाया जाए। जब वह अपने आप को, अपने स्वरूप को, अपनी सच्चाई को, अपनी वास्तविकता को पहचान लें कि हमारा सही स्वरूप क्या है? हमारा अतीत क्या है? हमारा इतिहास क्या है? हमारी संस्कृति क्या है? हमारा धर्म क्या है ? तब उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि अपने अतीत के साथ तनिक अपने वर्तमान को खड़ा करके देखो। जब अलसाए हुए भारत के आर्यजन अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ अपने वर्तमान को खड़ा करके देखेंगे तो निश्चित रूप से वह वर्तमान के विरुद्ध विद्रोह के लिए उठ खड़े होंगे? स्वामी जी ने जितना विदेशी सत्ताधारियों को भारत के लिए गलत और अवैधानिक होना बताना उचित समझा, उतना ही उन्होंने भारतवासियों को यह बताना भी उचित समझा कि आप लोगों का अतीत क्या है?
भारत को भारत के गौरवपूर्ण अतीत के साथ जोड़ना समकालीन परिस्थितियों का तकाजा भी था। जिसे स्वामी दयानंद जी महाराज ने ही पहली बार सही ढंग से समझने का प्रयास किया था। उस समय जिस प्रकार ईसाइयत और इस्लामिक मूलतत्ववाद का प्रचार प्रसार जोर शोर से किया जा रहा था ,उससे हिंदू समाज का बहुत भारी अहित हो रहा था। स्वामी जी महाराज ने देखा कि इन दोनों प्रकार की आंधियों का प्रतिरोध करने के लिए हिंदू को मजबूत करने की आवश्यकता है। इस मजबूती को देने के लिए उन्होंने हिंदू का नाम आर्य करते हुए उसे उसके वैदिक अतीत से जोड़ने का कार्यारंभ किया। वैदिक अतीत हिंदू के लिए वास्तव में एक पावर स्टेशन था। जहां से हाई वोल्टेज का करंट उसके भीतर दौड़ना आरंभ हुआ।
जब कोई व्यक्ति या समाज अपने वर्तमान से विद्रोही बन जाता है, तब वह नवीनता की ओर कदम बढ़ाता है। जब वह अपने वर्तमान के विरुद्ध विद्रोही होते-होते उसे पूर्णतया परिवर्तित कर देता है, तब वह स्वयं भी चमत्कृत होता है। क्योंकि उस समय उसका वर्तमान का सारा धुंधलका समाप्त हो गया होता है और वह एक ऊंची छलांग लगाने के लिए अपने आप को एक स्वतंत्र और पुरुषार्थी समाज के रूप में खड़ा देखता है।
स्वामी जी महाराज ने 1857 की क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान दिया उन्होंने भारतवासियों को उसी समय यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत को स्वाधीन होने में अभी 100 वर्ष का समय लग सकता है। हमने देखा कि 1857 की क्रांति के 90 वर्ष पश्चात जाकर भारत स्वाधीन हुआ। इस 90 वर्ष के कालखंड में आर्य समाज ने एक-एक दिन और एक-एक पल देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए समर्पित किया। यद्यपि आर्य समाज की स्थापना 1875 में हुई, परंतु उससे पहले स्वामी जी महाराज और उनके अन्य सहयोगी इस कार्य की नींव बहुत मजबूती के साथ रख चुके थे। वास्तव में आर्य समाज की स्थापना तत्कालीन हिंदू समाज में आई अनेक प्रकार की विषमताओं विसंगतियां शिथिलता प्रमाण और आलस के बादलों को छंटनी के लिए की गई थी इस प्रकार आर्य समाज एक हिंदू सुधार आंदोलन के रूप में जाना जाता है स्वामी जी महाराज ने इस संगठन की स्थापना मथुरा निवासी स्वामी बिरजानंद जी महाराज की प्रेरणा से की थी।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने देखा कि तत्कालीन समाज में धर्म को लेकर बहुत प्रकार के पाखंड फैल चुके थे । धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोग भूलकर अनेक प्रकार के पाखंडों में फंस चुके थे। फलस्वरूप स्वामी जी महाराज ने इस बात को बड़ी गंभीरता से अनुभव किया कि जब तक लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझेंगे, तब तक उनके भीतर वीरता के भावों का संचार नहीं हो सकता। तब तक लोग अज्ञान अंधकार में भटकते रहेंगे। वे मानवीय समाज की संवेदनाओं को समझकर मानव के उत्थान के लिए सही दिशा में सही कार्य करने में अक्षम बने रहेंगे। हिंदू समाज को अज्ञान अंधकार से बाहर निकालने के लिए स्वामी जी महाराज ने अनेक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। उसके उपरान्त उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश जैसे अमर ग्रंथ की रचना की। इसे स्वामी जी महाराज ने बीज रूप में तैयार किया। जिसे पढ़कर अनेक लोगों के जीवन का कल्याण हो गया। स्वामी जी महाराज का मूल उद्देश्य समस्त संसार को आर्य बनाने का था। इसके पीछे उनकी मान्यता यही थी कि यदि संपूर्ण संसार आर्य बन गया तो अनेक प्रकार के मत मतांतर अपने आप ही भस्मीभूत हो जाएंगे। स्वामी जी का मानना था कि विभिन्न मत मतांतर ही लोगों के बीच सहयोग और सद्भाव की पवित्र भावना का विकास नहीं होने देते हैं। ये मनुष्य को मनुष्य से जोड़ते नहीं है , अपितु तोड़ते हैं। लोक कल्याण की इसी पवित्र भावना से प्रेरित होकर स्वामी जी महाराज ने कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, का उद्घोष किया। इसका अभिप्राय था कि संपूर्ण भूमंडल के आर्य जनो अर्थात भद्र पुरुषो ! एक हो जाओ। संपूर्ण भूमंडल की सज्जन शक्ति एक हो जाए।
इन सबका एक होना किसी प्रकार के उपद्रव या अशांति को उत्पन्न करने का आवाहन नहीं था। इसके विपरीत इन सबका एक होने का अभिप्राय केवल यह था कि इनके एक होने से सारे संसार से दुष्टता अपने आप पलायन कर जाएगी।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज के अतिरिक्त आर्य समाज ने स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, पंडित गुरुदत्त, स्वामी आनन्दबोध सरस्वती, चौधरी छोटूराम, स्वामी अभेदानंद ,महात्मा आनंद स्वामी , महात्मा अमर स्वामी ,स्वामी ब्रह्ममुनि, स्वामी समर्पणानंद, डॉ. स्वामी सत्य प्रकाश , स्वामी विद्यानंद सरस्वती, स्वामी दीक्षानंद , स्वामी आनंद बोध सरस्वती, चौधरी चरण सिंह, पंडित वन्देमातरम, रामचन्द्र राव जैसी अनेक विभूतियों को जन्म दिया जिन्होंने सामाजिक, राजनीतिक सभी क्षेत्रों में भारत की वैदिक संस्कृति के माध्यम से लोगों का मार्गदर्शन किया।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संसार के सभी लोगों को आर्य बनाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर10 अप्रैल सन् 1875 ई. (चैत्र शुक्ला 5 शनिवार सम्वत् 1932 विक्रमी) को मुम्बई में आर्यसमाज की विधिवत स्थापना की। स्वामी जी ने संसार के लोगों के मानस पर पड़ी जाति, संप्रदाय, लिंग, क्षेत्र ,भाषा आदि की संकीर्णताओं को विनष्ट करने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने संपूर्ण संसार के निवासियों का संसार के सभी संसाधनों पर समान अधिकार माना। ‘आर्य समाज का इतिहास’ प्रथम भाग के लेखक इंद्र विद्यावाचस्पति जी पृष्ठ संख्या 99 पर लिखते हैं ‘स्वामी जी मनुष्य मात्र के हितैषी थे। वह चाहते थे कि हिंदू हो या बौद्ध, ईसाई हो या मुसलमान, भारतवासी हो या विदेशी, मनुष्य मात्र वैदिक धर्म को स्वीकार करें । अन्य धर्मावलंबियों को धर्म संबंधी भ्रांतियों में से निकालने के लिए ही स्वामी जी ने खंडन का कार्य आरंभ किया था। खंडन का उद्देश्य आर्य जाति की रक्षा नहीं था, अपितु अन्य मतवादियों का खंडन ही था ।…… सामान्य रूप से उन्हें मनुष्य मात्र से प्रेम था, परंतु आर्य जाति से विशेष प्रेम था। उस प्रेम का केवल यह कारण नहीं था कि वह आर्य जाति में उत्पन्न हुए थे, यह भी कारण था कि वह आर्य जाति को सब जातियों की अपेक्षा सत्य के समीप समझते थे। वेद धर्म का स्रोत है, केवल आर्य जाति ही है जो वेदों को प्रमाणिक मानती है।’

क्रमश:

डॉ राकेश कुमार आर्य

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