आर्य मुसाफिर पंडित लेखराम लाहौर के पास एक गांव में आर्य समाज के एक समारोह में प्रवचन कर रहे थे। उन्होंने वैदिक धर्म और कर्म के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा, ‘जो भी शुभ या अशुभ कर्म मनुष्य करता है, उसका फल उसे अवश्य मिलता है। चोरी, हत्या, हिंसा आदि पाप कर्म करने वालों को किए का दंड अवश्य भोगना पड़ता है। कोई भी उसे बचा नहीं सकता।’
पंडित जी के प्रभावशाली प्रवचन को सुनने वालों में उस क्षेत्र का कुख्यात अपराधी डाकू मुगला भी था। पंडित जी की इस चेतावनी ने उसका हृदय झकझोर डाला। मुगला ने प्रवचन के बाद उन्हें प्रणाम किया और बोला, ‘मैं आपसे एकांत में कुछ बातें करना चाहता हूं। आप कहां ठहरे हुए हैं?’ पंडित जी ने बताया, ‘आर्य समाज मंदिर में ठहरा हुआ हूं। वहां आकर मिल सकते हो।’
मुगला रात को पंडित जी के बताए हुए पते पर पहुंचा। वहां उपस्थित लोग उसे देखते ही कांपने लगे। वे एक-एक कर खिसकने लगे। पर इन सबसे अविचलित मुगला ने श्रद्धापूर्वक पंडित जी के चरण स्पर्श किए और कहा,’महाराज, मैं वर्षों से डाके डालता रहा हूं। कई हत्याएं कर चुका हूं। आपने प्रवचन में कहा कि हर आदमी को अपने पाप कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। मुझे अपने पापों की माफी का रास्ता दिखाइए।’
पंडित जी ने समझाया, ‘यदि अपराध करना आज से ही छोड़ दो, लोगों की सेवा, हर मौके पर उनकी सहायता करने और बाकी का जीवन भगवान की उपासना में लगाने का संकल्प ले लो, तो तुम अपने पापों से मुक्ति पा सकते हो।’ पंडित जी की बात मुगला को समझ में आ गई। उसने उसी समय पंडित लेखराम जी के बताए मार्ग पर चलने का दृढ़ संकल्प ले लिया। कुछ ही दिनों में सत्संग ने उसे अपराधी की जगह भगत और भले आदमी के रूप में ख्याति दिला दी।
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