आप तनिक कल्पना करें । एक नदी है । उस नदी के एक छोर पर एक विशाल टीला स्थित है । नदी बरसात की ऋतु में बार बार उस टीले को काटने व मिटाने का प्रयास करती है । उसे एक चुनौती देती है, और उसकी थोड़ी बहुत मिट्टी हर बार वर्षा ऋतु में अपने साथ बहाकर ले जाती है और उसकी जड़ों को कमजोर कर उससे दूर हो जाती है । लोगों को लगता है कि टीले का कुछ नहीं बिगड़ा और टीला जैसा पहले था , वैसा ही खड़ा है । परंतु धीरे-धीरे टीला अपने विशाल स्वरूप को गंवाता चला जाता है , और एक दिन हम देखते हैं कि वह टीला हमारी आंखों के सामने देखते – देखते मिट जाता है , बह जाता है , हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है , उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है । नदी के साथ टीला बहकर कहां चला गया ? – यह पता ही नहीं चलता अर्थात टीला अपने अस्तित्व और स्वरूप को पूर्णतया विलीन कर चुका होता है ।
धीरे धीरे कितना परिवर्तन आ जाता है ? सौ पचास वर्ष पश्चात आने वाली पीढ़ी यह भी भूल जाती है कि कभी यहां पर कोई टीला था और अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए उस टीले ने कितनी देर तक इस नदी से संघर्ष किया था ?
कुछ देर लोगों के मानस पर ये स्मृतियां अंकित रहती हैं कि कभी यहां पर कोई टीला था और उस टीले ने कितने समय तक इस नदी से अपना सीना तान कर संघर्ष किया था ? परंतु एक समय ऐसा भी आता है कि जब टीले और नदी के संघर्ष की इस कथा को कहने वाले लोग भी नहीं रहते । तब इस कथा को याद रखने वालों का तो प्रश्न ही नहीं उठता ? तब रह जाता है केवल नदी का अहंकार । जो लोगों को बड़ी शान से एक कहानी सुनाती है कि मैंने अच्छे-अच्छे ‘ टीलों ‘ को अपने प्रवाह में बहाकर समाप्त कर दिया । बहुतों का अस्तित्व मिटा दिया , बहुतों की कहानी मिटा दी और बहुतों का गर्व और गौरव समाप्त कर दिया ।
मित्रो ! विदेशी आक्रमणकारियों और भारत के वैदिक धर्म , वैदिक संस्कृति और वैदिक मान्यताओं की भी नदी और टीले जैसी ही कहानी है । कभी जब ईरान हमारे साथ था तो वहां पर इस्लामिक या विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण होते रहे और धीरे-धीरे ईरान नाम का टीला आक्रमणकारियों की नदी में गिरकर विलीन हो गया । इसी प्रकार अफगानिस्तान भी काल के प्रवाह में उसी प्रकार बह गया जैसे एक टीला नदी में बहकर अपना अस्तित्व मिटा देता है । उसके पश्चात वर्त्तमान पाकिस्तान की बारी आती है । यहां के प्राचीन निवासियों के धर्म , संस्कृति और इतिहास को भी मिटाने का इस नदी ने वैसा ही प्रयास किया जैसा वह पहले अफगानिस्तान और ईरान में करके आई थी । फलस्वरूप एक नए देश का जन्म हुआ जिसे हम आजकल पाकिस्तान के नाम से जानते हैं । यहां भी वह सारे टीले बह गए जो कभी वैदिक धर्म , संस्कृति और इतिहास की रक्षा के लिए अपना सीना तान कर इस काली नदी के सामने खड़े हुए थे । शोक ! महाशोक !! भारत निरंतर घटता चला गया ।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के टीलों को खोद – खोदकर वहां पर मानव सभ्यता के अवशेष खोजकर हम अपने अतीत पर कौतूहल , आश्चर्य और जिज्ञासा के भावों से भर जाते हैं , परंतु भारत के जितने भी टुकड़े हुए हैं , उन टुकड़ों के टीलों को खोद – खोदकर हम कभी भी अपने अतीत के वैदिक धर्म , संस्कृति और इतिहास को खोजने के लिए अपने भीतर कौतूहल व जिज्ञासा के भाव उत्पन्न नहीं करते ? अपने – अपने कामों में , अपने – अपने व्यवसाय में और धर्मनिरपेक्षता की चादर को ओढ़े ओढ़े हम इतने निष्क्रिय और निकम्मे हो चुके हैं कि अतीत में हमारे कितने ‘ टीले ‘ नदियों के प्रवाह में बह गए ?- उस ओर सोचने और कुछ खोजने का हमारे पास समय ही नहीं है।
जिस प्रकार विदेशी आक्रमणकारियों की एक काल्पनिक नदी का अभी हमने चित्रण किया है , उसी प्रकार थोड़ी देर के लिए हम यह भी सोचें कि हमारी वैदिक धर्म की पवित्र गंगा , जो कि सृष्टि प्रारंभ में बहनी आरंभ हुई और अद्यतन बहती चली आ रही है , उसका प्रवाह अवरुद्ध या बाधित करने के लिए भी लोगों ने कितने षड्यंत्र रचे हैं और उसका अस्तित्व मिटाने के लिए किस – किस प्रकार की चालें चली हैं ? – यदि इस पर चिंतन , शोध और विचार किया जाए तो विश्वधरा पर पिछले 2000 वर्ष का कालखण्ड इस वैदिक धर्म की पवित्र गंगा को मिटाने का इतिहास बन कर रह जाएगा। संसार में जितने भर भी धर्मयुद्ध लड़े गए , वह सारे के सारे वैदिक धर्म को मिटाने के लिए लड़े गए । इतिहासकार इस सत्य को बड़ी चालाकी से छुपाकर आगे बढ़ जाते हैं , परंतु हमारा यह दावा है कि पिछले 2000 वर्ष के इतिहास पर इतिहासकारों और लेखकों की यदि निष्पक्ष लेखनी चले तो संसार में इस कालखण्ड में जितने भर भी उपद्रव हुए हैं , या युद्ध आदि हुए हैं वे सबके सब वैदिक धर्म को मिटाने के लिए किए गए उपद्रव या युद्ध हैं । संसार में जितने भर भी प्राचीन पुस्तकालय जलाए गए ,वे सारे के सारे वैदिक धर्म के साहित्य से भरे हुए पुस्तकालय थे । इसलिए उनको जलाने के काम को भी समझो कि वह पुस्तकालय नहीं जलाए गए थे , अपितु वहां पर भी वैदिक धर्म को ही जलाया गया था ।
हमारे वैदिक धर्म की पवित्र गंगा को संकरी करते – करते आज भारतवर्ष के क्षेत्र में ही प्रवाहित होने के लिए विवश कर दिया गया है ।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अफ़गानिस्तान तो एक झलकी सी है , आर्यावर्त का विस्तृत स्वरूप यदि चिंतन में उतारा जाएगा तो निश्चय ही आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित हो चलेगी । वैदिक धर्म की जिस पवित्र गंगा को काटते – काटते और मिटाते – मिटाते वर्त्तमान भारत के संकरे क्षेत्र में प्रवाहित होने के लिए बाध्य किया गया , वही पवित्र गंगा हमारी अश्रुधारा के रूप में जब प्रवाहित होगी तो पता चलेगा कि संस्कृति प्रेम क्या होता है ,और राष्ट्रप्रेम किस वस्तु का नाम है ?
इस प्रकार की टीस को उत्पन्न करना इस लेख का विषय है ।
अंत में इन शब्दों के साथ इस लेख का समापन करता हूं : ——
” प्रवाहमान होती रही सदा वेद की गंगा जहां ।
अफगान में उसके बचे , अवशेष अब हैं कहां ?
ढूंढ लो परतें हटाकर अब सूक्ष्मदर्शी से वहां ।
सचमुच संस्कृति वेद की अब मृत पड़ी है वहां ।।
तुम भूल करते हो सदा अहंकार के वशीभूत हो ।
ज्ञानी समझते आपको पर तुम तो कूप मंडूक हो ।।
कलेजा खिलाते शत्रु को और कहते शक्तिदूत हो ।
मिटाते अपने अस्तित्व को तुम कैसे अवधूत हो ?
तनिक सोचो ! इतिहास के उन महानायकों के लिए ।
बलिदान जिन्होंने हैं दिए तुम्हारे भविष्य के लिए ।।
फांसी के फंदे को जिन्होंने चूम लिया वतन के लिए । तुमने उन्हें क्या दिया जो सर्वस्व लुटा गए देश के लिए।।
आदर्श के लिए आदर्श को भुलाना नहीं आदर्श है । आदर्श हेतु आदर्श को दृष्टि में रखना ही आदर्श है।।
‘राकेश ‘ यह भारतवर्ष है इसका ध्येय भी उत्कृष्ट है । इसको न समझेगा वह जो स्वयं में ही निकृष्ट है । । ”
राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत