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हम मनुष्य कहलाते हैं। हम वस्तुतः सदाचार को धारण कर मनुष्य बन सकते हैं परन्तु सदाचारी व धर्मात्मा मनुष्य बनने के लिये सदाचरण रूपी पुरुषार्थ करना होता है। पुरुषार्थ सहित विद्यार्जन कर विद्या के अनुकूल आचरण करना होता है। क्या हम सब विद्यावान हैं? इसका उत्तर ‘न’ अक्षर में मिलता है। जब हम विद्यावान ही नहीं बने तो हम विद्या के अनुकूल व अनुरूप कर्म कैसे कर सकते हैं? आश्चर्य तो इस बात का है कि संसार की वर्तमान जनसंख्या 7 अरब से अधिक है और इसके 99 प्रतिशत से अधिक लोगों को यह पता नहीं है कि उन्हें विद्या का अर्जन करना है और विद्यानुसार कर्म करते हुए अपने दुःखों के बन्धनों को काटना है। दुःखों से मुक्त होना तथा सुख एवं आनन्द की अवस्था को प्राप्त करना ही जीवात्मा जो चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, अनादि, नित्य, अजर, अमर व अविनाशी है, उसका मुख्य कर्तव्य है। मनुष्य के दुःखों की निवृत्ति ज्ञान एवं आचरण दोनों को करने से होती है। अतः बुद्धियुक्त प्राणी कहे जाने वाले आकृति मात्र से मनुष्यरूपी प्राणी को ज्ञान की खोज में प्रयत्न करना चाहिये और इस सृष्टि के बनाने वाली सत्ता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उसके साक्षात्कार में प्रवृत्त होना चाहिये। वर्तमान समय में ज्ञान की प्राप्ति पुस्तकों व विद्वानों से होती है। इसको जानकर व आचारण में लाकर मनुष्य बन्धनों से मुक्त होकर जन्म-मरण से छूटता है और सुदीर्घकाल 31 नील 10 खरब 40 अरब से अधिक वर्षों तक ईश्वर के सान्निध्य में रहकर सुखों व आनन्द का भोग करता है।
ईश्वर ने हमारी जीवात्मा को मनुष्य का शरीर दिया है। सभी जीवात्माओं को मनुष्यों के शरीर नहीं मिले हैं। मनुष्येतर अनेक योनियां हैं। जिन जीवात्माओं को मनुष्यों के शरीर नहीं मिले उन्हें पशु व पक्षियों आदि के अनेकानेक शरीर प्राप्त हुए हैं। इसका कारण व आधार क्या है? इसके लिये हमें यह जानना है कि हमें व सभी जीवात्माओं को जन्म ईश्वर के कर्म-फल सिद्धान्त व विधान के अनुसार मिलता है। कर्म-फल सिद्धान्त में मनुष्य शुभ व अशुभ कर्म जिन्हें पुण्य व पाप कर्म कहते हैं, उन्हें मनुष्य योनि का प्राणी करता है। मृत्यु के समय जिस मनुष्य आत्मा के पुण्य कर्म आधे से अधिक होते हैं उन्हें मनुष्य शरीर मिलता है और जिनके आधे से अधिक कर्म पाप कर्म होते हैं उन्हें अन्य पशु, पक्षी आदि योनियां मिलती हैं जहां मनुष्यों को अपने पाप कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इसे अधिक सूक्ष्म रूप में जानने के लिये दर्शन ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। दर्शन ग्रन्थों में अनेक विषयों सहित जीवात्मा के जन्म का विश्लेषण भी किया गया है जिससे जन्म के साथ कर्म का सम्बन्ध होना सिद्ध होता है। इस अध्ययन से ईश्वर का विधान भी समझ में आ जाता है। जिन जीवात्माओं को बुद्धि से युक्त मनुष्य का शरीर मिला होता है, उनसे परमात्मा की अपेक्षा होती है कि वह सद्कर्मों को करें। कोई भी व्यक्ति दुष्कर्म न करें। इसके लिये मार्गदर्शन हमें शास्त्रों के अध्ययन वा ज्ञान से प्राप्त होता है। शुद्ध शास्त्र ज्ञान ही विद्या कहलाता है। शास्त्र ज्ञान को प्राप्त मनुष्य ही यथार्थ रूप में मनुष्य होता है। ज्ञान व अज्ञान से युक्त मनुष्य, मनुष्य की आकृति होने पर भी, आर्य, देव, विद्वान, अनार्य, अनाड़ी, असुर, राक्षस, अधम आदि अनेक श्रेणी के मनुष्य होते हैं। इन सबका आधार मनुष्य के इस जन्म के कर्म होते हैं। देव विद्वानों को कहते हैं। विद्वान धर्म एवं कर्म के स्वरूप को जानता है। उसे शुभ, अशुभ, पाप-पुण्य वा सद्-असद् व्यवहार का भेद पता होता है। इन्हीं को आर्य भी कहा जाता है। इतर मनुष्य, मनुष्य रूप में, अनार्य, अनाड़ी, अज्ञानी, असुर आदि ही होते हैं।
हम यह जानना चाहते हैं कि परमात्मा ने हमें मनुष्य क्यों बनाया और जो अन्य योनियों के प्राणी हैं उन्हें मनुष्यों का शरीर क्यों नहीं दिया? इसका सत्य ज्ञान से युक्त वैदिक ग्रन्थों में जो उत्तर मिलता है वह यह है कि परमात्मा ने जीवात्मा के पूर्वजन्म के प्रारब्ध वा उन कर्मों के आधार पर हमें मनुष्य जन्म दिया है जिनका भोग शेष है अथवा हमें भोग करना है। मनुष्य का जन्म पुण्य व पाप दोनों प्रकार के कर्मों का भोग करने तथा नये कर्म करने के लिये होता है। मनुष्य अपने आधे से अधिक पुण्य कर्मों के कारण मनुष्य जन्म का अधिकारी बनता है और पुण्य-पाप कर्मों के अनुसार उसे अपना पारिवारिक व सामाजिक परिवेश मिलता है। हमारे कर्म जितने अधिक पुण्यकारी होंगे उतना ही अधिक अच्छा व अनुकूल परिवेश जीवात्मा को प्राप्त होता है। पाप कर्मों के कारण हो सकता है कि हम किसी निर्धन व रोग ग्रस्त परिवार में जन्म लें। वहां हमें भी उन पापों के कारणों से रोग प्राप्त हों तथा हमारे जीवन की परिस्थितियां अत्यन्त जटिल व संघर्षमय हों। जब हम किसी बहुत सुखी व निश्चिन्त मनुष्य को देखते हैं तो हमारे मुख से अनायास यह निकलता है कि यह पिछले जन्म में मोती दान करके आया है। दान भी एक पुण्य कर्म होता है। हम सत्य बोलते हैं जिससे दूसरों का हित होता है तो वह भी सद्कर्म व पुण्य कर्म होता है। हम सन्ध्या व यज्ञ करते हैं तो यह भी श्रेष्ठ व पुण्यकारी कर्म होते हैं जिनका लाभ हमें इसी जीवन में और जो बच जाते हैं उनका लाभ व सुख परजन्म में प्राप्त होता है। हम देखते हैं कि बहुत सी जीवात्मायें पशु, पक्षी आदि अनेक निम्न योनियों में जन्म प्राप्त करती हैं। इसके कारणों पर विचार करते हैं तो यही ज्ञात होता है कि ऐसी जीवात्माओं के आधे से अधिक कर्म पुण्य न होकर पाप थे। संसार में अनेक मत प्रचलित हैं। अनेक मतों व उनके आचार्यों को ईश्वर के कर्म-फल सिद्धान्त का ज्ञान नहीं था। उनकी बुद्धि इतनी तीव्र व बलवान तथा ज्ञान से युक्त नहीं थी कि वह जान पाते कि मनुष्य व अन्य प्राणियों का उन उन योनियों में जन्म किन कारणों से होता है? वह आचार्य वेद, दर्शन और उपनिषदों के ज्ञान से भी वंचित थे। हमारे दर्शन ग्रन्थों में धर्म व कर्म सिद्धान्त की विवेचना व समीक्षा की गई है और यही इससे निष्कर्ष सामने आया है कि जिस जीवात्मा का जन्म मनुष्य से इतर अन्य प्राणी योनियों में हुआ है, उनके पूर्वजन्म में आधे से अधिक कर्म पाप कर्म थे। उन्होंने पुण्य कम परन्तु पाप कर्म अधिक किये थे।
हमें यह भी जानना चाहिये कि ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी रूप से सब जीवात्माओं सहित मनुष्यों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। किसी प्राणी का कोई कर्म ईश्वर से छुपता नहीं है। ईश्वर को किसी जीव के किसी कर्म की विस्मृति भी नहीं होती। अतः वह जीव के शुभाशुभ कर्मों तथा अपनी सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता के गुण से सभी जीवों को उनके सभी पाप व पुण्य कर्मों का फल देता है। किसी जीवात्मा का कोई कर्म कदापि क्षमा नहीं होता। कुछ मतों में यह सिद्धान्त वा विचार पाये जाते हैं कि उन मतों व उनके आचार्यों की बातों पर बिना विचारे विश्वास करने व उन्हें अपनाने से मनुष्य के सभी पाप कर्म क्षमा हो जाते हैं। यह सर्वथा मिथ्या सिद्धान्त है। यदि ऐसा होता तो उन मतों का कोई अनुयायी रोग आदि कष्टों से दुःखी न होता क्योंकि रोग आदि भी तो अशुभ व पाप कर्मों के कारण ही होते हैं। जब उनके सभी पाप क्षमा हो गये तो फिर उस मत के अनुयायियों में रोग का कारण क्या है? इससे इस मान्यता की असत्यता व वास्वविकता का पता चलता है। ईश्वर यदि पाप क्षमा करने लगे तो जिन लोगों के साथ किसी ने अन्याय किया होता है, ईश्वर उसका अपराधी बन जाता है। ईश्वर द्वारा पाप क्षमा करने की बातें सर्वथा मिथ्या एवं अतार्किक हैं। इस पर विश्वास नहीं करना चाहिये और सभी मनुष्यों को सभी मनुष्यों तथा इतर प्राणियों के प्रति सद्व्यवहार व श्रेष्ठ वेदोक्त कर्मों को करके अपने जीवन को श्रेष्ठ व मोक्ष मार्ग पर प्रवृत्त करना चाहिये जैसा कि हमारे ऋषि मुनि व वेदों के विद्वान आचार्य किया करते थे। आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द का जीवन भी ईश्वर के न्याय से डर कर सदा सद्कर्म करने का आदर्श उपस्थित करता है। ऋषि दयानन्द के जीवन का अध्ययन एवं अनुकरण कर हम अपने जीवन को श्रेय मार्ग पर ले जा सकते हैं।
हमारा सौभाग्य है कि इस जन्म में हम मनुष्य बने हैं। परमात्मा ने हमें बुद्धि दी है तथा वेदों का ज्ञान हमें सुलभ है। हमने पूर्वजन्म में पुण्य कर्मों को अधिक किया था जिसके अनुसार हमें मनुष्य जन्म मिला है। इस जन्म को और अधिक श्रेष्ठ व महत्ता से युक्त करना हमारा कर्तव्य है। इसके लिए वेदाध्ययन सहित ऋषियों के बनाये भ्रान्तियों से सर्वथा मुक्त ग्रन्थों का अध्ययन व स्वाध्याय करना हमारा कर्तव्य है। इन ग्रन्थों का अध्ययन कर हमें ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है। हम ईश्वर की उपासना के महत्व से परिचित होते हैं तथा उसे विधि विधान पूर्वक कर अपना वर्तमान एवं भावी जीवन सुधारते हैं। अग्निहोत्र देवयज्ञ भी एक पुण्यकारी एवं सुख वा कल्याण प्रदान करने वाला कर्म है। इससे वायु, जल, पर्यावरण की शुद्धि तथा रोगों से रक्षा एवं उनका निवारण होता है। मनुष्य स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होता है। यज्ञ करने वाले मनुष्य के यज्ञीय कार्यों से जितने मनुष्यों व इतर प्राणियों को लाभ पहुंचता है, उतना पुण्य इसके कर्म के खाते में जमा हो जाता है जो इस जीवन सहित पुनर्जन्म होने पर प्राप्त होता है। अतः हमें मनुष्य बनकर आकृति मात्र से मनुष्य नहीं रहना है अपितु वेद, दर्शन, उपनिषद, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर सच्चा मानव व धर्मात्मा बनना है। धर्मात्मा ही मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है। हमारे सभी ऋषि मुनि तथा राम, कृष्ण व दयानन्द सच्चे धर्मात्मा थे। इनके जीवन से भी हमें प्रेरणा लेनी चाहिये। हमारे इस लेख में परमात्मा ने हमें मनुष्य क्यों बनाया है, इसका उत्तर देने का प्रयास किया है। हम आशा करते हैं कि इस लेख से हमारे पाठक महानुभाव लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य