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कई इतिहासकार अफगानिस्तान में हिंदू धर्म या वैदिक धर्म की मान्यताओं की स्थापना के काल को लेकर प्रश्न करते हैं कि यह वहाँ पर कब आरंभ हुआ ? फिर अपने इस प्रश्न का अपने आप ही वह उत्तर देते हैं कि इसकी कोई तिथि निश्चित नहीं है, ना ही कोई काल निश्चित है कि कब आरंभ हुआ? इस प्रकार वह अपने भ्रांतिपूर्ण प्रश्न का स्वयं ही भ्रान्तिपूर्ण उत्तर देकर अपना समाधान करते से जान पड़ते हैं। जबकि सच यह है कि अफगानिस्तान का सारा अतीत ही हिंदूमय है, वैदिक संस्कृति से ओतप्रोत है। वैदिक संस्कृति से अलग अफगानिस्तान के अतीत की आप कल्पना नहीं कर सकते।
जब इस्लाम और ईसाइयत का दूर-दूर तक भी अता पता नहीं था, तब अफगानिस्तान में कौन था और क्या कर रहा था ? प्रश्न को यदि यहाँ से आरंभ किया जाए तो पता चलेगा कि वहाँ पर केवल वैदिक धर्म ही था और वही अफगानिस्तान या गांधार महाजनपद या उससे पूर्व के इस क्षेत्र का मार्गदर्शन कर रहा था। इस पर हम पूर्व में ही प्रकाश डाल चुके हैं। वास्तव में यह हमारा गौरवमयी अतीत था। जिस पर आज हम सब को गर्व होना चाहिए, परंतु साथ ही इस बात पर शर्म भी आनी चाहिए कि हमारे पूर्वज क्या थे और हम क्या हो गए हैं? अपने अतीत पर चिंतन करना भी हमारे लिए लज्जा की बात हो गई है। सेकुलरिज्म के नाम पर उसे भुला देना यही आज के इतिहासकारों की मानसिकता बन गई है। हम पश्चिमी संस्कृति के प्रवाह में इतनी तीव्रता से बह गए हैं कि धन कमाना हमारे लिए सबसे बड़ी बात हो गई है। यही कारण है कि हम अपने अतीत और अपने महान् पूर्वजों को भूलने में तनिक भी संकोच नहीं कर रहे हैं? क्या हम मरती हुई कौम हैं?
आर्यनों की पवित्र भूमि अफगानिस्तान
इतिहासकारों का मन्तव्य है कि प्राचीन काल में दक्षिण हिन्दूकुश का क्षेत्र सांस्कृतिक रूप से सिंधु घाटी सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ था। ऐसा तर्क देने वाले लोगों का इतिहास का सच वही है जो संसार को केवल पाँच-सात हजार वर्ष पुरानी सभ्यताओं के सीमित क्षेत्र में सिमेटकर देखने के अभ्यासी हैं। इन लोगों ने विश्व इतिहास के विषय में ऐसा कहीं भी स्थापित नहीं किया है कि यह मानव सभ्यता हजारों लाखों नहीं, अपितु लगभग दो अरब वर्ष पुरानी सभ्यता है। अधिकांश इतिहासकारों का कहना है कि वंश परम्परा से अफगानिस्तान प्राचीन आर्यनों का निवास स्थान था, जो 330 ई.पू. सिकंदर महान् और उनकी ग्रीक सेना के आने से पूर्व हखामनी साम्राज्य के अधीन हो गया था। अफगानिस्तान को आर्यनों का निवास स्थान मानने से यह 'आर्यन' शब्द क्या है? इस पर भी विचार करना चाहिए और समझना चाहिए कि आर्य संस्कृति अर्थात् वैदिक संस्कृति के मानने वाले लोग ही आर्यन थे। उन आर्यों का मूल धर्मग्रंथ वेद है। जिस पर केवल और केवल आर्यावर्त का ही अधिकार रहा है। उस आर्यावर्त की सीमाओं के अंतर्गत ही कभी यह अफगानिस्तान ही नहीं, संपूर्ण विश्व था। इतिहासकारों की मान्यता है कि सिकंदर के आक्रमण के तीन वर्ष के पश्चात् यह क्षेत्र सेलयूसिद साम्राज्य का अंग बन गया।
इतिहास का विकृतिकरण
इतिहासकारों का यह भी कहना है कि 305 ईसा पूर्व, यूनानी साम्राज्य ने भारत के मौर्य साम्राज्य के साथ सन्धि करके दक्षिण हिन्दूकुश का नियन्त्रण समर्पित कर दिया। ऐसे वाक्यों को रचकर इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास का विकृतिकरण किया है। यह बड़े सामान्य शब्द हैं, परंतु इन शब्दों में विकृतिकरण के बीज स्पष्ट रूप से अंकुरित होते हुए दिखाई दे रहे हैं।
इस प्रकार के वाक्यों को रचकर ऐसा भ्रम उत्पन्न किया जाता है कि जैसे यूनान का साम्राज्य हमारे लिए एक चुनौती था, जो हमसे अलग स्थापित था और वह उस समय अपने आप में बहुत समृद्धिशाली और शक्तिशाली हो चुका था, जबकि ऐसा नहीं है। यूनान का सिकंदर जब भारत की ओर आया तो वह भारत के एक ही राजा पोरस से हारकर अपने देश लौट गया था। वह विश्व विजेता बनने के लिए चला था, परंतु वह जो कुछ था, भारत आकर वह भी नहीं रह पाया। इसलिए यूनान हमारे लिए कभी कोई चुनौती नहीं था। हाँ, यूनान के लिए हम अवश्य कौतूहल और जिज्ञासा का विषय थे, क्योंकि वह अपने केंद्र से जुड़कर शक्ति और ऊर्जा प्राप्त करना चाहता था जो उसके केंद्र ने अर्थात् भारत ने संपूर्ण विश्व पर शासन स्थापित कर कभी प्राप्त की थी। यदि सिकंदर के भारत पर किए गए आक्रमण को इस दृष्टिकोण से देखा जाए कि वह भारत की केंद्रीय सत्ता को प्राप्त कर चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहता था तो भी दृष्टिकोण कुछ दूसरा हो जाएगा। हमारा मानना है कि उसे भी चक्रवर्ती सम्राट बनने का पूरा अधिकार था, परंतु चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए भारत के कुछ मानक थे। जैसे सम्राट सहृदय हो, वेदों का प्रकांड विद्वान् हो, तेजस्विता को धारण करने वाला हो, मृदुभाषी हो, सहनशील हो, चरित्रवान हो, सत्य भाषी हो, नैतिकता को प्रोत्साहित करने वाला हो। इस प्रकार के अनेकों मानवीय और राजोचित गुणों से विभूषित व्यक्ति ही भारत का सम्राट बन सकता था, इन सारे मानकों पर सिकंदर खरा नहीं उतरता था, इसलिए सिकंदर कभी भी चक्रवर्ती सम्राट बन ही नहीं सकता था।
चीनी यात्रियों के यात्रा वृतांत
चीन के ऐसे कई यात्री रहे हैं जिन्होंने प्राचीन काल में भारत की यात्राएँ कीं और यहाँ के बारे में अपने संस्मरण अपनी किन्हीं विशिष्ट पुस्तकों के माध्यम से लिखे। उनके यह संस्मरण भारत के अतीत के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट करते हैं। इन्हीं संस्मरणों के आधार पर हमें तत्कालीन समाज के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त होती है। साथ ही हमें वृहत्तर भारत के बारे में भी पर्याप्त ज्ञान होता है।
चीन के इन यात्रियों में फाह्यान और ह्वेनसांग का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 5वीं और 7वीं शताब्दी के मध्य में चीनी यात्री फाहियान, गीत यूं और ह्वेन त्सांग ने अफगानिस्तान की यात्रा की थी। इन यात्रियों ने अफगानिस्तान का वृत्तांत भी अपने संस्मरणों में जाकर लिखा। जिससे हमें भारत और तत्कालीन अफगानिस्तान के विषय में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त होती है। उनके यात्रा वृत्तांतों से हमें पता चलता है कि उस काल में उत्तर में अमूदरिया अर्थात् ऑक्सस नदी और सिंधु नदी के मध्य के विभिन्न प्रान्तों में बुद्धधर्म को मानने वाले लोग अधिक रहते थे। कहने का अभिप्राय है कि उस समय तक इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के अनुयायियों का प्राबल्य हो चुका था। इन यात्रियों से पहले यहाँ पर किस धर्म का प्रचलन था या वैदिक धर्म के बारे में लोग कितना जानते थे ?- इस पर इन यात्रियों के द्वारा कोई प्रकाश नहीं डाला गया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि वह यहाँ की भाषा और संस्कृति के बारे में अधिक नहीं जानते थे। दूसरी बात यह भी है कि ये चीनी यात्री स्वयं ही बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। इसलिए वह बौद्ध धर्म के प्रति अधिक रुचि रखते थे-ऐसा माना जा सकता है। यह भी एक कारण हो सकता है कि उन्होंने जो कुछ भी लिखने का प्रयास किया, वह अपने प्रिय बौद्ध धर्म को केंद्रित करके ही लिखा। साथ ही उन्होंने जो देखा, वह लिख दिया। उससे पहले यहाँ पर क्या था, लोग किस धर्म के मानने वाले थे या किस प्रकार की संस्कृति में विश्वास रखते थे ? इस पर उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा। इसके उपरांत भी गीत यूं ने अपने यात्रा संस्मरण में लिखा है कि हेफथलाइट् शासकों ने कभी बौद्ध धर्म को नहीं जाना, किन्तु "उन्होंने छद्म देवताओं का प्रचार किया और पशुओं का उनके मांस के लिए आखेट किया।" जिस समय यह चीनी यात्री यहाँ पर आए थे, उस समय शासन-प्रशासन की पकड़ कमजोर पड़ जाने के कारण समाज में दस्युओं का ही आतंक था। जिसका परिणाम यह निकला कि इन यात्रियों की अपनी यात्रा भी दस्युओं के आतंक के कारण बहुत ही संकटपूर्ण हो गई थी।
चीनी इतिहासकारों की ऐसी मान्यता रही है कि 383 से लेकर 810 ईसवी तक अनेक बौद्ध ग्रंथों का चीनी अनुवाद अफगान बौद्ध भिक्षुओं ने किया था। जिनके अध्ययन से हमें तत्कालीन वैदिक हिंदू समाज और बौद्ध धर्म के बारे में बहुत कुछ जानकारी उपलब्ध होती है।
चीनी इतिहासकारों का यह भी कहना है कि बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रारंभ अफगानिस्तान में ही हुआ था। अफगानिस्तान में स्थित बगराम हवाई अड्डे का नाम बहुत सुना जाता है। वह कभी कुषाणों की राजधानी था। उसका नाम कपीसी था। अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम काबुल, बल्ख आदि स्थानों में अनेक मूर्तियाँ स्तूप और संघाराम, विश्वविद्यालयों और मंदिरों के अवशेष मिलते हैं। इन सबको देखने से अफगानिस्तान के हिंदू अतीत की स्मृतियाँ ताजा हो उठती हैं। काबुल के आसामाई मंदिर के निर्माण को 2000 वर्ष पुराना बताया जाता है। आसामाई पहाड़ पर खड़ी पत्थर की दीवार को हिंदुओं द्वारा निर्मित परकोटे के रूप में देखा जाता है।
मार्बल की गणेश मूर्ति
अफगानिस्तान में ऐसे अनेकों स्थल हैं, जहाँ पर हमारे हिंदू धर्म की अनेक मूर्तियाँ स्थापित रही हैं। वहाँ पर कई ऐसी मूर्तियाँ स्थान-स्थान पर प्राप्त हुई हैं, जिनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है। पाँचवीं शताब्दी में मारबल की गणेश मूर्ति अफगानिस्तान के गरदेज से प्राप्त हुई थी। वह मूर्ति काबुल के दरगाह पीर रतन नाथ में है। शिलालेखों के अनुसार इस 'महागणेश की उत्कृष्ट और सुन्दर मूर्ति' को हेफथलाइट् वंश के शासक खिंगल ने स्थापित किया था।
डॉ पी.एन. ओक अपनी पुस्तक 'भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें' के पृष्ठ 303 पर लिखते हैं कि ईसा की 10वीं शताब्दी तक अफगानिस्तान पर हिंदू सम्राट राज्य करते थे। उसके पश्चात् भी कुछ वर्षों तक अफगानिस्तान के अनेक भागों पर हिंदू राजाओं का राज बना रहा। उस समय रीति यह थी कि यद्यपि काबुल हिंदुओं के हाथ से निकल चुका था, तथापि हिंदू राजाओं को अनुमति थी कि वे अपना राज्य सिंहासनारूढ़ होने का समारोह काबुल में ही संपन कर सकते थे। इसका उल्लेख डॉक्टर एडवर्ड बी सशाक द्वारा संकलित तथा संपादित 'अलबरूनी का भारत' पुस्तक में है। वह सिद्ध करता है कि अफगानिस्तान में सभी प्राचीन राजमहल हिंदुओं द्वारा बनवाए गए थे और यहाँ की सारी जनता हिंदू थी।
अफगानिस्तान की भाषा *'पश्तो'* संस्कृत शब्दों से भरी पड़ी है और 'पश्तो' के विद्वान् बनने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को संस्कृत का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना ही होता है।
ओक महोदय आगे लिखते हैं कि काबुल नगर और काबुल नदी दोनों के ही नाम हमारी संस्कृत भाषा की एक धातु 'कुभ' से व्युत्पन्न हैं। काबुल में आज भी महादेव तथा अन्य भारतीय मत-मतान्तरों के मंदिर विद्यमान हैं। जैसे कि हमें भारत में अजंता, एलोरा, करला, भज तथा नासिक में मूर्तियाँ मिली हैं। उसी प्रकार अफगानिस्तान की बामियान घाटी में पर्वत पार्श्व तथा अनेक चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिरों में खुदाई कर भगवान बुद्ध की अनेक विशालकाय चमत्कारपूर्ण मूर्तियाँ बनाई हुई थीं। स्वयं अफगानिस्तान नाम भी संस्कृत का है।
जलालाबाद नाम उस नगर को दे दिया गया है जो पहले 'नगर हर' अर्थात् भगवान शिव का नगर पुकारा जाता था। इसका निष्कर्ष यह है कि अफगानिस्तान में ईसा की प्रवीं शताब्दी तक के सभी दुर्ग, राजमहल, मस्जिद तथा भवन हिंदू निर्माण कला की वस्तुएँ हैं। वे निर्मित वस्तुएँ भी, जो उस तिथि तक की नहीं मालूम पड़ती, वास्तव में पूर्व कालीन भवनों के विकल्प हैं। पूर्व निर्मित भवन आदि तो आक्रमणों तथा युद्ध आदि में नष्ट हो गए।
इसी प्रकार बलूचिस्तान भी संस्कृत नाम है। क्वेटा से कुछ मील की दूरी पर वाण नामक छोटा सा नगर है। इस नगर के उत्तर-पश्चिम में 40 मील की दूरी पर एक पहाड़ी है, जो हिंदू तीर्थ स्थल रहा है, क्योंकि यही तो वह स्थान है जहाँ से लुढ़का कर प्राण ले लेने की आज्ञा भारतीय पुराणों में वर्णित अपने पुत्र प्रह्लाद के लिए हिरण्यकश्यप ने दी थी।
हिंदूशाही राजाओं के बारे में अरबी लेखकों के विचार
हिंदूशाही राजाओं को लेकर अरबी और फारसी इतिहासकारों ने बहुत अधिक प्रशंसा की है। यह फारसी लेखक हमारे हिंदूशाही राजाओं की पंथनिरपेक्ष शासकीय नीति के दीवाने थे, क्योंकि इन लोगों ने अपने बादशाहों के द्वारा नरसंहार और विपरीत धर्मावलंबियों के विरुद्ध कठोर शासकीय नीतियों का पालन होते देखा था, परंतु हिंदूशाही में उन्हें कहीं भी ऐसा दिखाई नहीं दिया। वह इस बात को लेकर आश्चर्यचकित थे कि भारत में राजशाही की ओर से अपनी प्रजा के मध्य लोगों में किसी प्रकार का सांप्रदायिक भेदभाव नहीं किया जाता और न ही सांप्रदायिक आधार पर किसी के साथ अन्याय या उत्पीड़नात्मक कार्यवाही की जाती है। अलबरूनी और अल उतबी ने लिखा है कि हिंदूशाहियों के राज्य में मुसलमान, यहूदी और बौद्ध लोग मिलजुलकर रहते थे, उनमें भेदभाव नहीं किया जाता था।
इन राजाओं ने अपने शासनकाल में अपनी प्रजा के लिए सोने के सिक्के तक चलाए। सोने के सिक्कों का प्रचलन इस बात का प्रतीक है कि इन हिंदूशाही राजाओं के शासनकाल में अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति बहुत ही अच्छी थी। विद्वानों का मानना है कि हिंदूशाही के सिक्के इतने अच्छे होते थे कि सन् 908 में बगदाद के अब्बासी खलीफा अल मुख्तार ने वैसे ही देवनागरी सिक्कों पर अपना नाम अरबी में खुदवा कर नए सिक्के जारी करवाये थे।
मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार हिंदूशाही की 'लूट का माल' ('लूट के माल' में वे हिंदू महिलाएँ भी हुआ करती थीं, जिन्हें मुस्लिम आक्रांता यहाँ पर उनके राजा या पति आदि को हराकर या मारकर किसी प्रकार प्राप्त कर लिया करते थे, मनचले लोग आज भी महिलाओं को 'माल' कह कर बुलाते हैं। भारत में यह शब्द 'गंगा जमुनी संस्कृति' की देन है। जिससे हमें इस 'गंगा जमुनी संस्कृति' की 'उत्कृष्टता' का बोध होता है) जब गजनी में प्रदर्शित किया गया तो पड़ोसी देशों के राजदूतों की आँखें फटी की फटी रह गयीं। भीमनगर (नगरकोट) से लूटे गए माल को गजनी तक लाने के लिए ऊँटों की कमी पड़ गई थी। महमूद गजनी को सत्ता लूटपाट के अतिरिक्त इस्लाम का नशा भी सवार था, इसलिए वह विजित क्षेत्रों के मंदिरों, शिक्षा केंद्रों और भवनों को नष्ट करता था और स्थानीय लोगों को जबरन मुसलमान बनाया करता था। अपने इस प्रकार के कार्यों से उसे इस्लाम की उत्तम सेवा करने का अवसर प्राप्त होता था। जिससे उसे आत्मिक शांति प्राप्त होती थी। आज वे सभी अफगानी हिंदू मुसलमान हैं। यह बात अलबरूनी, अल उतबी, अल मसूदी और अल मकदीसी जैसे मुस्लिम इतिहासकारों ने भी स्वीकार की है।
हिंदुत्व है सबका मूल
इस्लाम के आक्रमण से एकदम पहले अफगानिस्तान में पारसी, पेगन, बौद्ध और हिंदू धर्म का प्रचलन था। इनमें अधिक संख्या बौद्ध धर्मावलंबियों की थी। फारसी, खलजी, तुर्की और अफगानी जैसे कई समुदाय अफगानी समाज में बन गए थे। कुल मिलाकर अफगानिस्तान के समाज की भीतरी विभिन्नताएँ या विविधताएँ उसे इस्लाम के झंडे के नीचे लाने में सहायक बनीं। विभिन्नताएँ सदा विनाश ही करती हैं। इसलिए जो लोग यह सोचते हैं कि विभिन्नता में एकता हो सकती है, उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि विभिन्नताएँ विनाश का कारण बनती हैं। अफगानिस्तानी समाज में दक्षिणक्षेत्र के हफखाली-वंशी झूनबिल और एपिगोनी लोगों द्वारा दक्षिण हिन्दूकुश पर शासन किया जा रहा था। जबकि अफगानिस्तान के पूर्वी भाग पर काबुल शाहों का एकाधिकार था। अफगानी समाज के भीतर मिलने वाले इन संप्रदायों या समुदायों की अपनी-अपनी सांप्रदायिक मान्यताएँ थीं। यहाँ तक कि पूजा पद्धति तक में भी भिन्नता थी। झूनबिल और काबुल शाहों का सम्बन्ध सभी भारतीय उपमहाद्वीपीय संस्कृति के साथ था। झूनबिल लोग सूर्य भगवान् को अपना आराध्य देव मानते थे और उसी की पूजा करते थे। वे सूर्य की उपासना करते थे और सूर्य को झून कहते थे। इसलिए उनका वंश भी इसी नाम से जाना गया। भारत में भी सूर्यवंशी क्षत्रिय परंपरा रही है। उनके वंशज आज तक भी मिलते हैं। अतः अफगानिस्तान के इन सूर्य उपासक समुदायों का संबंध भारत के सूर्यवंश से भी हो सकता है? इस्लाम से पूर्व अफगानिस्तान में जितने भी मूर्ति उपासक संप्रदाय या समुदाय थे, उन सबका मूल हिंदुत्व ही था। यह सही है कि भारत में बुतपरस्ती या मूर्तिपूजा महात्मा बुद्ध की प्रतिमाओं के पूजन के साथ आरंभ हुई, परंतु बौद्ध धर्म हो या जैन धर्म हो, यह सभी मूल रूप में वैदिक संस्कृति के ही एक अंग रहे हैं। इसलिए एक ही संस्कृति से प्रेरणा भी लेते रहे। यदि विकारग्रस्त होकर इनके भीतर मूर्ति पूजा का दोष भी आया तो वह भी हिंदुत्व का ही एक अंग था। आर्यत्व मूर्ति पूजा का विरोध कर वैदिक संस्कृति का उपासक है। जबकि हिंदुत्व सभी मूर्तिपूजकों को अपने भीतर समाहित करने की शक्ति रखता है।
अतः सभी मूर्ति पूजकों को हिन्दुत्व का भाग ही माना जाना चाहिये। मूर्तिपूजा सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है, जिससे मक्का और साउदी अरब भी अछूते नहीं रहे और इसका कारण यही था कि वहाँ पर भी हिंदुत्व की गहरी छाया थी। अब यह पूर्णतया सिद्ध हो चुका है कि हिन्दू संस्कृति और हिंदू मंदिरों का अस्तित्व मिटाकर ही वहाँ पर इस्लाम अस्तित्व में आया था। इस्लाम का अतीत खोजने के लिए हिंदुत्व का ही सहारा लेना पड़ेगा। विश्व में जहाँ जब हिंदुत्व निर्बल पड़ा, तभी वहाँ पर कोई नया संप्रदाय अस्तित्व में आया है। संपूर्ण विश्व के इतिहास को खोजने के लिए इस तथ्य को अवश्य ही ध्यान में रखना चाहिए।
विद्वानों का निष्कर्ष है कि जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कंधार, बल्या, बाख्खान, बगराम, पामीर, बदख्शाँ, पेशावर, स्वात, चारसद्दा आदि हैं, उन्हें संस्कृत और प्राकृत पालि साहित्य में क्रमशः कुभा या कुहका, गंधार, बाल्हिक, वोक्काण, कपीशा, मेरु, कंबोज, पुरुषपुर (पेशावर) स्वास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता रहा है।
सूर्य मंदिर का किया गया विनाश
अपने से विपरीत मत रखने वाले का विनाश करना इस्लाम का मौलिक संस्कार है। विषयों लोगों को इस्लाम 'काफिर' कहकर पुकारता है। अतः इस्लाम ने मूर्ति पूजा करने बाले लोगों का विनाश कर अपनी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना अपना लक्ष्य बनाया। इस्लाम मूर्ति पूजा का विरोधी था। अतः उसे मूर्ति पूजा का विनाश करना अपने लिए उचित ही जान पड़ता था। अफगानिस्तान के जो लोग मूर्तिपूजक थे उनका विनाश कर उन पर अपनी विचारधारा को थोपना इस्लाम के लोगों ने अपना सर्वोपरि कर्तव्य समझा। यही कारण था कि यहाँ के सूर्य मंदिर का विनाश करने के लिए अब्दुल रहमान बिन समारा ने 653-54 ई. में अपने 6000 दस्यु साथियों के साथ मिलकर उस पर आक्रमण बोल दिया। ऐसा माना जाता है कि अफगानिस्तान में स्थित आज के हेलमन्द प्रान्त में स्थित मूसा कुल नगर से 3 मील दूर झमिनदवार (सूर्यमंदिर का द्वार) था। अरब सेना के सेनापति ने उस मन्दिर की 'सूर्य मूर्ति के हाथ खण्डित कर दिये और मूर्ति की आँखों से कुरुविन्द को निकाल दिया। इस मंदिर में स्थित मूर्ति का विनाश इसलिए किया गया था कि सूर्य उपासक लोग मूर्ति पूजा की निरर्थकता को भली प्रकार समझ लें। अतः स्पष्ट है कि हिंदुत्व के प्रतीकों को मिटाकर ही इस्लाम ने अफगानिस्तान में अपना परचम लहराया।
क्रमशः
मुख्य संपादक, उगता भारत