मन खो – जा प्रभु नाम में , पा अतुलित आनन्द ।

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सब प्रकार के शोको से मुक्ति कैसे मिले :-

मन खो – जा प्रभु नाम में ,
पा अतुलित आनन्द ।
रसानुभूति ब्रह्म की,
काटे सारे फन्द ॥2615॥

चित्त की कुटिलता भक्ति में सबसे बड़ी बाधा

जिनके चित्त में कुटिलता,
प्रभु से कोसों दूर।
सहज सरल उर में बसे,
सारे जग का नूर॥2616॥

नागफनी है कुटिलता,
हृदय लई बिछाय।
आसान कांटेदार है,
कैसे प्रभु आ जाय ?॥ 2617॥

आत्मा परमात्मा के तद्‌रूप कब होता है ?

मानव तेरा चित्त जब,
हरि-जैसा हो जाय।
बूँद मिले ज्यों सिन्ध में,
फिर सिन्धु कहलाया॥2618॥

जीव अकाम होने पर ही आवागमन के क्रम से मुक्त हो सकता है ,अन्यथा नहीं : –

कामनाएँ तो अनन्त है ,
ज्यों नीला आकाश।
मृगतृष्णा पालै मति,
नहीं बुझेगी प्यास॥2619॥

शरणागति कैसे मिले ?

शरणागति तो तब मिले,
पहले हो निष्काम।
निर्विकार निर्बेर हो,
ओ३म् जपो अभिराम॥2620॥

आहार और व्यवहार के प्रति सदा सतर्क रहो :-

आहार और व्यवहार में,
शुचिता कभी न भूल।
या तो तुम्हें रोगी करे,
या दे झगड़े का शूल॥2621॥

अभीष्ट लक्ष्य प्राप्ति का सूत्र :-

जितना बड़ा संकल्प हो ,
उतना हो पुरषार्थ।
अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त हो,
मन होवै कृतार्थ॥2622॥

विशेष – परम पिता परमात्मा को कौन जानता है और कौन उसक परम प्रिय है ?

राग-द्वेष और काम से ,
जो हो गया अतीत।
वो ही उस‌को जानता ,
वो ही उसका मीत॥2623॥

तत्त्वार्थ :- उपरोक्त दोहे के संदर्भ में कुछ कहने से पहले मैं अपने प्रिय पाठको को यह समझाना चाहता हूँ कि एक तो तैराक होता और एक गोताखोर होता है,जल में दोनो उतरते है किन्तु दोनो की अनुभूति भिन्न होती है। तैराक तो जल की सतह पर तैरता है जबकि गोताखोर जल की है गहराई तक जाता है इतना ही नहीं वह समुद्र की गहराई से मोती लेकर लौटता है। ठीक इसी प्रकार जो साधक परमपिता परमात्मा को वाचिक रूप से जानता है , वह परमपिता परमात्मा के विराट स्वरूप से अवगत नहीं होता उसके विराट स्वरूप को तो केवल वही साधक जानता है। जो उसमें रमण करता है , जो साधक राग, द्वेष, इच्छा (कामना),द्वंद , मोह इत्यादि से ऊपर उठे है वे ही परमपिता परमात्मा को जानते है और उसकी कृपा के प्रिय पात्र होते है।

साफ-सुथरी छवि किसकी अच्छी लगती है और सेवा किसकी अधिक फलदायिक होती है:-

ये तीनों उजले भले ,
गुरु ,वैध , न्यायाधीश ।
मात – पिता और गुरु की,
सेवा कर लेयो आशीष॥2624॥
क्रमशः

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