जब जब कांग्रेस के नेताओं पर भाजपा के नेताओं और विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी की ओर से हमला बोला जाता है और किसी बात को लेकर कहा जाता है कि अमुक गलती नेहरू के जमा जमाने में हुई थी, तब तब कांग्रेस को बड़ी मिर्ची लगती है । कांग्रेस को आज भी यह लगता है कि नेहरू जी एक देवदूत थे और उन्होंने जो कुछ सोचा था – वह सही था, जो कुछ किया- वह भी सही था। जिस समय देश आजाद हुआ उस समय देश में अशिक्षा बहुत अधिक थी। बहुत लोग थे जो अशिक्षित होने के कारण यह मानते थे कि नेहरू के बिना देश नहीं चलेगा। जबकि सच यह है कि सनातन राष्ट्र भारत की यदि किसी कारण से कभी गोद खाली भी हो जाए तो कोख कभी खाली नहीं होती। कांग्रेस के लोगों ने नेहरू जी को ‘बेताज का बादशाह’ कहना आरंभ किया था, जो कि कांग्रेस के लोगों की सामंती सोच को झलकाता था। नेहरू के जमाने में यह माना जाता था कि यदि वह किसी खंबे को भी चुनाव में खड़ा कर देंगे तो वह भी चुनाव जीत जाएगा। नेहरू के प्रशंसकों ने उन्हें देश में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा करने का श्रेय दिया। यह बताने का प्रयास किया कि उनसे बड़ा कोई लोकतांत्रिक नेता उस समय नहीं था। जबकि सच यह है कि नेहरू जी के रहते हुए कई चुनावी धांधलियां होती रही थीं। पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अबुल कलाम आजाद रामपुर से चुनाव लड़ रहे थे, जबकि हिंदू महासभा से विशन चंद्र सेठ चुनाव मैदान में थे।
नेहरू जी ने अपने मित्र अब्दुल कलाम आजाद को संसद में लाने के लिए जीते हुए विशन चंद्र सेठ को जिलाधिकारी पर दबाव बनवाकर जबरदस्ती हरा दिया था। नेहरू जी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरोधी थे। उन्होंने संविधान में पहला संशोधन करके अपने विरुद्ध हो रही आलोचनाओं पर रोक लगाने का काम किया था। जबकि मोदी जी को ऐसा कुछ करने की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई है। उनके विरोधी उन पर कितना कीचड उछालते हैं, इसके उपरांत भी वह कीचड़ में कमल की भांति खिले रहते हैं।
नेहरू जी अपने आपको एक विश्व नेता दिखाने के लिए अधिक चिंतित रहते थे। उन्होंने अपने आप को अंतरराष्ट्रीय नेता दिखाने के लिए ही कश्मीर का भी अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया था। उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन में रुचि दिखाई तो केवल अपने आप को बड़ा नेता दिखाने के लिए। इसके उपरांत भी वह रूस और अमेरिका के बीच चल रहे शीत युद्ध को समाप्त नहीं कर पाए थे। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के हितों की रक्षा करने में भी वह असफल रहे। उन्होंने कश्मीर की समस्या का समाधान संविधान में धारा 370 को स्थापित करके ही मान लिया था। देश को और अपने मंत्रिमंडल को बिना विश्वास में लिए धारा 35 ए को चोरी से संविधान में स्थापित कराया। इधर मोदी जी हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय नेता बनने की चिंता नहीं है। इसके उपरांत भी वह विश्व नेता के रूप में अपने आप स्थापित हो गए हैं । वह काम करने में विश्वास रखते हैं । उन्हें देश के हितों को गिरवी रखकर किसी अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार को लेने की आवश्यकता नहीं है।उनके लिए देश के हित सबसे पहले हैं। इसलिए उन्होंने धारा 370 को समाप्त किया और संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के हितों की रक्षा के लिए नई नीति रणनीति बनाकर सारे विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। नेहरू के भीतर बड़े बाप का बेटा होने का घमंड था। इसलिए वह लोगों के साथ जुड़ते नहीं थे। उनकी बात को सुनते भी नहीं थे। जबकि मोदी जी लोगों के साथ घुल मिल जाते हैं और उनकी बातों को बड़े गौर से सुनते हैं। इतना ही नहीं देश को आगे बढ़ाने के लिए लोगों के पास जितने भी विचार होते हैं उन्हें भी वह सुनना चाहते हैं।
मोदी देश विरोधियों के साथ किसी भी प्रकार के तुष्टीकरण के विरोधी हैं। वह देश विरोधियों से और देश के शत्रुओं से उन्हीं की भाषा में जवाब देने में विश्वास रखते हैं। जबकि नेहरू जी एक काल्पनिक गांधीवाद की छाया से घिरे रहे और देश विरोधी शक्तियों का भी वह तुष्टीकरण करते रहे। जिस प्रकार गांधी जी के ऊपर एक काल्पनिक और वाहियात आदर्शवाद का साया मंडराता रहता था, जिसके भंवर जाल से कभी वह निकल नहीं पाते थे उसी प्रकार उनके शिष्य नेहरू पर भी एक काल्पनिक आदर्शवाद का साया बना रहा और वह उसी के भंवरजाल में फंसे रहे। नेहरू जी आदर्शवादी बनते बनते संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद में भारत को मिलने वाली स्थाई सीट को दुनिया के सबसे बड़े राक्षस देश चीन को परोस देते हैं । वह अपने पड़ोसी देश तिब्बत की परवाह नहीं करते और उसे चीन को हड़प लेने देते हैं। वह नेपाल ,तिब्बत, भूटान के उस प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर देते हैं जो इन देशों ने आजादी की बेला में भारत के साथ मिलने के लिए दिया था।
जबकि मोदी दूसरी सोच के नेता हैं। वह भारत को मित्रविहीन बनाए रखकर या गुटनिरपेक्षता के नाम पर अलग थलग करने की सोच के खिलाफ हैं । जब सारी दुनिया ईसाई और मुस्लिम देशों में बंटी हो तब वैश्विक मंचों पर मित्र ढूंढना बड़ा मुश्किल होता है। नेहरू जी जहां अपने समय में भारत को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ईसाई और मुस्लिम समाज का शिकार होने देने के समर्थक थे वहीं मोदी जी सावधानी के साथ देश के बहुसंख्यक समाज की सुरक्षा के लिए खड़े दिखाई देते हैं। नेहरू जी जहां प्रधानमंत्री के पद को अपने आने वाले वंशजों के लिए सुरक्षित कर देना चाहते थे वहीं मोदी जी इस प्रकार की सोच के विरोधी हैं। नेहरू जी स्वयं को ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ कहा करते थे। जबकि मोदी जी अपने आप को हिंदू कहने में गर्व की अनुभूति होती है।
नेहरू जी दिखाने के लिए लोकतांत्रिक थे परंतु उन्होंने देश में पूंजीवादी लोकतंत्र को बढ़ावा दिया। जिससे देश की पूंजी का 70% हिस्सा मुट्ठी भर लोगों के हाथों में आ गया। मोदी जी इस प्रकार की विचारधारा के भी विरोधी हैं।
नेहरू जी के समर्थक उन्हें मोदी जी की अपेक्षा अधिक लोकतांत्रिक दिखाने के लिए और साथ ही मुसलमानों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए (राम मंदिर निर्माण को दृष्टिगत रखते हुए )आज भी यह कहते हैं कि उन्होंने मंदिर मस्जिद के निर्माण पर ध्यान नहीं दिया। इसके विपरीत उन्होंने औद्योगिक संस्थानों, स्कूलों, कॉलेजों और बांध आदि को बनाने पर ध्यान दिया । उनके लिए कहा जाता है कि वह औद्योगिक संस्थानों को ही आधुनिक भारत के मंदिर कहा करते थे। इसके विपरीत मोदी जी भारत की आत्मा के साथ सहकार स्थापित कर उसकी आध्यात्मिक चेतना को उकेरने का काम भी उतनी ही शिद्दत से करते हैं जितनी शिद्दत से वह औद्योगिक संस्थानों या कॉलेज आदि के निर्माण और स्थापना की ओर ध्यान देते हुए करते हैं।
वास्तव में, नेहरू जी ने जिन मंदिरों का निर्माण किया वह हृदयहीन मंदिर थे। नेहरू जी ने व्यक्ति को लेकर यह मान लिया कि उसे किसी प्रकार की आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। निरा भौतिकवाद नेहरू जी पर हावी था। इसलिए वह मनुष्य को हृदयहीन मशीनों कल कारखानों में लगाए रखने में विश्वास करते रहे। एक प्रकार से नास्तिक बने नेहरू जी ने मनुष्य की आध्यात्मिक भूख को मिटाने का काम किया। जिससे सारा समाज अस्त व्यस्त हो गया। इसके विपरीत मोदी जी व्यक्ति को किसी आध्यात्मिक शक्ति के साथ जोड़कर चलने में विश्वास रखते हैं। जिससे वह नैतिकता को अपनाकर समाज व राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों पर ध्यान देने वाला बने। वास्तविक सामाजिक समरसता इसी प्रकार के दृष्टिकोण से पैदा होगी। इससे स्पष्ट है कि मोदी जी कहीं व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाने वाले नेता हैं, जबकि नेहरू जी इस क्षेत्र में भी कल्पना लोक में काम करने वाले नेता ही साबित हुए।
नेहरू भारतीयता के विरोधी हैं। उन्होंने भारतीय इतिहास का विकृतिकरण करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। अपने आप को अधिक विद्वान दिखाने के चक्कर में उन्होंने भारतीय इतिहास के तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर इतिहास का ही गुड़ गोबर कर दिया। ‘हिंदुस्तान की खोज’ नामक पुस्तक को कांग्रेस आज भी देश के युवाओं के लिए गीता के रूप में प्रचारित करती है पर वास्तव में वह भारतीय इतिहास का कूड़ा ही है। इसके विपरीत मोदी जी भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण पक्ष को दोबारा लिखने के समर्थक हैं। वह भारतीयता के साथ जुड़े रहने में गर्व और गौरव की अनुभूति करते हैं। वह अपने देश के महान पुरुषों के त्याग, तपस्या, साधना ,पुरुषार्थ को समय-समय पर सराहते हैं। जबकि नेहरू जी बाहरी लोगों को अपने लिए प्रेरणा का स्रोत मानते थे। वह हिंदू इतिहास को भुला देना चाहते थे और मुगल इतिहास को ही इस देश की सबसे बड़ी विरासत मानने में विश्वास रखते थे। नेहरू जी भारतीय भाषा, भूषा , खान-पान रहन-सहन सबको भूल कर अंग्रेजी और इस्लामी संस्कृति को हम पर लाद देना चाहते थे, जबकि मोदी जी इन सभी क्षेत्रों में भारतीयता के समर्थक हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं)