…..तो क्या इतिहास मिट जाने दें अध्याय 17 ओरछा के प्रसिद्ध ऐतिहासिक भवन और किले से

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आज अपने समाचार पत्र “उगता भारत” की टीम के साथ ओरछा के प्रसिद्ध ऐतिहासिक भवन और किले को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां पर झांसी में रहने वाले अपने शुभचिंतक श्री मुन्ना लाल जी सेन के द्वारा इस ऐतिहासिक स्थल को दिखाने के लिए विशेष रूप से व्यवस्था की गई और हमारा प्रतिनिधिमंडल इस किले के भ्रमण के लिए दोपहर 1:00 बजे वहां पर पहुंचा। टीम में श्रीनिवास आर्य , रविंद्र आर्य एवं अजय कुमार आर्य मेरे साथ विशेष रूप से सम्मिलित रहे।
  इस ऐतिहासिक भवन और किले के बारे में मैं बताना चाहूंगा कि ओरछा से इतिहास प्रसिद्ध रानी सारंधा (जिनका बचपन का नाम लालकुंवरी था) और उनके पति चंपत राय का रोमांचकारी इतिहास भी जुड़ा है। रानी सारंधा का अपने पति चंपतराय के साथ अच्छा जीवन यापन हो रहा था। एक बार परिस्थितियों वश राजा चंपतराय को बादशाह शाहजहां के दिल्ली दरबार में जाने के लिए विवश होना पड़ गया । उस समय राजा चंपतराय ने अपना राज्य अपने भाई पहाड़ सिंह को सौंप दिया और स्वयं अपनी रानी सारंधा के साथ शाहजहां के यहां चला गया।

रानी रहने लगी थी उदास

राजा तो वहां पर जाकर कुल मिलाकर प्रसन्न ही रहता था, पर रानी को वहां रहना अच्छा नहीं लग रहा था। वहां जाकर रानी सारंधा बहुत ही उदास रहने लगी थी। यद्यपि उनके लिए सभी सुख सुविधाएं राजा चंपतराय ने करवा रखी थीं परंतु स्वाभिमानी रानी के भीतर इस बात की बहुत अधिक पीड़ा रहती थी कि उसका पति बादशाह शाहजहां के लिए सिर झुकाता था। वह चाहती थीं कि राजा अपने छोटे से राज्य में लौट चलें, जहां हमारा स्वाभिमान सुरक्षित रहता है। रानी की सोच थी कि स्वामी होना अलग बात है और किसी की चाकरी करना अलग बात है। स्वामी होने में आनंद है । चकरी चाहे कितनी ही बड़ी क्यों ना हो, उसमें आनंद नहीं होता। रानी चाहती थी कि स्वाभिमान के लिए व्यक्ति को जीवित रहना चाहिए और यदि स्वाभिमान ही गिरवी रखना पड़ जाए तो वह जीवन जीवन नहीं होता बल्कि मौत को ढोने के समान होता है।
उस समय देश का बादशाह शाहजहां था। कहने के लिए तो वह एक उदार बादशाह था परंतु हिंदुओं के प्रति उसकी क्रूरता उतनी ही भयानक थी जितनी किसी एक मुस्लिम बादशाह की होनी चाहिए । उसके लिए मजहब पहले था, शेष सब कुछ बाद में था। उसके लिए राजा चंपत राय एक शिकार के रूप में थे । वह इस बात पर अब प्रसन्न रहता था कि चंपतराय नाम का उसका शिकार चलकर स्वयं ही उसके पास आ चुका था। शाहजहां ने राजा चंपतराय को अपनी चालाकी और क्रूरता के शिकंजे में कस कर मरवाने का संकल्प ले लिया था।
तभी रानी सारंधा से उनके पति चंपतराय ने एक दिन पूछ लिया कि ‘रानी! आप जबसे ओरछा से यहां आई हो, तब से मैं देख रहा हूं कि तुम उदास रहती हो। मैं तुम्हारे लिए हर प्रकार की सुख सुविधा उपलब्ध कराने का भरसक प्रयास किया है , पर तुम्हारी उदासी निरंतर गहराती ही जा रही है । आखिर इसका कारण क्या है?’
तब रानी ने राजा को बताया कि ‘राजन ! ओरछा में मैं एक राजा की रानी थी, वहां मेरा हुक्म चलता था। मुझे अपने अस्तित्व पर वहां रहते गर्व होता था। पर यहां मैं एक जागीरदार की चेरी हूं। यहां मुझ पर किसी का हम चलता है और मुझे अपने अस्तित्व पर शर्म आती है।’
रानी की बात में बहुत वजन था। रानी की बात राजा को सीधे लग गई थी। रानी की स्वाभिमान से भरी बात को सुनकर चंपतराय का स्वाभिमान जाग गया। राजा को इस बात का आभास हो गया कि यहां आकर उसने स्वाभिमान के साथ समझौता किया है जो किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं था।
रानी की बात से सहमत होते हुए राजा ने तुरंत ओरछा जाने का निर्णय लिया।
जब राजा चंपतराय अपनी रानी सारंधा के साथ ओरछा लौटे तो ओरछा की सारी प्रजा भी अपने राजा के इस निर्णय से प्रसन्न हुई। रानी सारंधा भी प्रसन्नता के साथ रहते हुए अब जीवन यापन करने लगी थी। पर रानी का दुर्भाग्य अभी भी उसका पीछा कर रहा था । रानी दुर्भाग्य के अदृश्य खेल से पूरी तरह अनजान थी। उसके दुर्भाग्य ने नया खेल रच दिया। इसी समय मुगल बादशाह शाहजहां बीमार पड़ गया था।

मुगल बादशाह की बीमारी

हम सभी जानते हैं कि प्रत्येक मुगल बादशाह के साथ यह कहानी जुड़ी रही है कि जब-जब वह बीमार पड़े या वृद्धावस्था की ओर बढ़े तो उनके उत्तराधिकारियों में सत्ता प्राप्ति के लिए युद्ध आरंभ हो जाता था। यही बीमार बादशाह शाहजहां के साथ हो गया।
उसकी बीमारी की सूचना मिलते ही उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया। शाहजहां के पुत्र मुराद और मुहिउद्दीन दक्षिण से दिल्ली के लिए चल दिए थे। चंबल के किनारे आकर दोनों शहजादों ने अपनी सेना का डेरा डाल दिया। उन दोनों ने राजा चंपतराय से नदी को पार कराने में सहायता करने संबंधी एक पत्र लिखा। दोनों शहजादों द्वारा लिखा गया वह पत्र पाकर राजा धर्म संकट में फंस गये। वह इस बात का निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि इस समय शहजादों को अपनी सहायता दी जाए या नहीं । राजा उस समय शाहजहां के एक दूसरे पुत्र दाराशिकोह से प्रभावित थे। दारा बहुत ही उदार प्रवृत्ति का शहजादा था । जिससे अधिकांश हिंदू प्रसन्न रहते थे।
राजा चंपतराय भली प्रकार जानते थे कि उनकी रानी राजनीतिक निर्णय लेने में सक्षम है। रानी की दूरदर्शिता और राजनीतिक निर्णय लेने की बुद्धि से प्रभावित राजा चंपतराय ने उन मुगल शहजादों का पत्र रानी सारंधा को दिखाया और रानी की सलाह इस विषय में ली।
तब रानी ने कहा कि शरणागत को शरण देना आपका धर्म है, इसलिए राजन ! यदि उन्होंने सहायता की याचना की है तो उन्हें सहायता दीजिए। रानी राजनीति और कूटनीति दोनों को जानती थी। उसे पता था कि शरणागत को सहायता देना भारतवर्ष के आर्य राजाओं की प्राचीन परंपरा रही है । इसलिए उसने वही सलाह अपने पति राजा चंपतराय को दी जो उसकी दृष्टि में उचित थी। यद्यपि देश,काल और परिस्थिति के अनुसार रानी का यह निर्णय बहुत अधिक उपयुक्त नहीं था।
यद्यपि शहजादों की सहायता का अर्थ था दाराशिकोह जैसे परम मित्र से शत्रुता लेना, पर सारंधा ने स्पष्ट कर दिया कि जो पहले आया है पहले उसकी प्रार्थना सुनो। रानी ने राजा को प्रोत्साहित करते हुए उस समय यह भी कह दिया कि यदि संभव हो तो इस समय शत्रु का विनाश कर दिल्ली पर अधिकार करने की भी तैयारी करो।

राजा ने दोनों शहजादों की सहायता की

  रानी के परामर्श पर चंपत राय ने ओरछा दुर्ग से निकलकर दोनों शहजादों को अपनी सहायता देने का संकल्प लिया। शहजादों ने जब राजा की सेना को अपनी ओर आते देखा तो उन्हें भी बहुत अधिक सुखानुभुति हुई। किसी भी आकस्मिकता से निपटने के लिए रानी स्वयं भी एक सेना लेकर राजा के पीछे पीछे युद्ध के मैदान में जा डटी। रानी को यह भली प्रकार ज्ञात था कि दूसरी ओर पड़ी शाही सेना से यहां संघर्ष होना अनिवार्य है। किसी अनहोनी को टालने के लिए रानी मैदान में पहुंच गई। वहां पर शत्रु की सेना के साथ जब राजा चंपतराय का युद्ध हुआ तो रानी ने अपनी वीरता से युद्ध का परिणाम पलट दिया। रानी ने पश्चिम की ओर से भयंकर आक्रमण शत्रु सेना पर किया और अपने राजा की जीत सुनिश्चित कर दी। राजा रानी की वीरता को देखकर बहुत अधिक प्रसन्न थे। आज उन्हें रानी की वीरता पर बहुत ही अधिक अभिमान हो रहा था। प्रसन्नता के मारे वह उछल रहे थे।
 औरंगजेब ने झूठी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए युद्ध के पश्चात् राजा चंपतराय को बनारस और बनारस से यमुना तक के क्षेत्र की जागीर प्रदान की। यह जागीर ओरछा के राजा के लिए गौरव प्रद हो सकती थी ,परंतु सारंधा के लिए नहीं। क्योंकि सारंधा ने चाहे दाराशिकोह जैसे उदार शहजादे के विरुद्ध औरंगजेब को युद्ध में अपना समर्थन दिया हो पर यह समर्थन उसने केवल अपना धर्म मान कर दिया था। इस समर्थन का वह किसी प्रकार का पारितोषिक लेना नहीं चाहती थी। रानी के पति चंपतराय को यह जागीर तो मिल गई पर सारंधा की आत्मा फिर विद्रोही बनने लगी। उसकी पुरानी उदासी फिर से लौट आई। रानी को किसी के दिए टुकड़ों पर पलने में आनंद नहीं आता था। वह चाहती थी कि अपनी कमाई, अपने स्वाभिमान और अपने पुरुषार्थ पर व्यक्ति को विश्वास रखना चाहिए।

घोड़ा और राजकुमार छत्रसाल

 युद्ध के समय औरंगजेब का एक विश्वसनीय योद्धा वली बहादुर गंभीर रूप से घायल हुआ था । उसका घोड़ा घायल पड़े वली बहादुर के पास ही खड़ा हुआ था। समर भूमि में रानी सारंधा ने उस घोड़े की सुंदरता को देखकर उसे अपने लिए प्राप्त कर लिया। एक दिन उसी घोड़े पर सवारी करता हुआ राजकुमार छत्रसाल वली बहादुर की ओर जा निकला। वली बहादुर ने जब अपना घोड़ा देखा तो उसने वह घोड़ा छत्रसाल से छिनवा लिया। छत्रसाल ने जब जाकर अपनी मां सारंधा को इस घटना के बारे में बताया तो वह मारे क्रोध के तमतमा उठी। उसने अपने पुत्र को देखते हुए कहा कि घोड़ा देकर भी जीवित लौट आया ? क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नहीं है? तुझे अपनी वीरता का प्रदर्शन करना चाहिए था। कोई भी मुगल रानी के पुत्र छत्रसाल के हाथों से घोड़े को छीन ले , यह रानी को कदापि स्वीकार नहीं था। वली बहादुर का यह कृत्य रानी को सीधे अपने स्वाभिमान पर चोट करता हुआ दिखाई दिया। रानी मारे क्रोध के घायल सर्पिणी बन चुकी थी।
 तब रानी स्वयं उस घोड़े को प्राप्त करने के लिए अपने 25 विश्वसनीय योद्धाओं को साथ लेकर वाली बहादुर के निवास पर जा पहुंची। उस समय वली बहादुर अपने निवास पर ना होकर औरंगजेब के दरबार में पहुंच गया था। रानी भी वहीं जा पहुंची। एक शेरनी की भांति दहाड़ती हुई रानी ने वली बहादुर खान को कठोर शब्दों में लताड़ा था और उसे युद्ध की चुनौती दी। अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए रानी आज कुछ भी करने के लिए तैयार थी । उसे रोकने का प्रयास भी किया गया। यहां तक कि मुगल बादशाह भी नहीं चाहता था की रानी घोड़े की छोटी सी बात को लेकर युद्ध करे। पर रानी नहीं मानी। युद्ध आरंभ हो गया । युद्ध आरंभ होने पर भी लोग रानी को समझाते रहे कि युद्ध न किया जाए तो अच्छा है। पर स्वाभिमानी रानी को यह स्वीकार नहीं था। अंत में रानी ने वली बहादुर को परास्त कर घोड़ा ले ही लिया।

औरंगजेब ने जागीर वापस ले ली

 इसके बाद औरंगजेब ने चंपत राय को दी गई अपनी जागीर को वापस ले लिया । तब राजा चंपत राय के समक्ष रानी को लेकर निकल जाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। औरंगजेब ने इस बात को लेकर राजा चंपत राय से शत्रुता पाल ली थी। रानी की वीरता और उसके सामने ही उसके योद्धा से घोड़े को छीन लेने की हरकत मुगल बादशाह को अच्छी नहीं लगी थी। अतः वह भी अब राजा चंपतराय और रानी सारंधा का शत्रु बन चुका था।
 तब सारंधा को अपने हरम में लाने का आदेश मुगल बादशाह औरंगजेब की ओर से आ गया था, जिसे पढ़कर राजा चंपतराय सोच में पड़ गए थे। तब रानी सारंधा ने कहा कि वह किसी भी स्थिति में मुगल शासक के हरम में नहीं जाएंगी, इसका चाहे कितना ही बड़ा मूल्य क्यों न चुकाना पड़े ? अबसे पहले जिस स्वाभिमान के लिए रानी प्रत्येक क्षण सचेत रही थी , उसे आज वह इतनी सहजता से समाप्त नहीं होने दे सकती थी। यही कारण था कि औरंगजेब के उपरोक्त प्रस्ताव को सुनकर रानी ने भी आज निर्णय ले लिया था कि यदि अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए भविष्य में औरंगजेब से भी दो- दो हाथ करने पड़े तो वह करेगी।
  रानी की इस स्वाभिमान से भरी प्रतिक्रिया को जब बादशाह औरंगजेब ने सुना तो वह आग बबूला हो गया था। रानी के इस आचरण से क्रुद्ध हुए मुगल बादशाह ने रानी और राजा चंपतराय को पाठ पढ़ाने का मन बना लिया। ऐसी परिस्थितियों में युद्ध अवश्यंभावी हो गया था। रानी स्वाभिमान को बेचने की पक्षधर नहीं थी और राजा के लिए वही करना अनिवार्य हो गया था जो रानी चाहती थी। उधर मुगल बादशाह औरंगजेब भी अब सारी घटनाओं को अपने अहंकार से जोड़ चुका था। वह नहीं चाहता था कि रानी सारंधा और राजा चंपतराय जैसे दो 'छोटे-छोटे चूहे' उसके लिए किसी प्रकार की सिरदर्दी बनें।

शुभकरण को दी गई युद्ध की बागडोर

बादशाह ने अपने एक चाटुकार हिन्दू सूबेदार शुभकरण को चंपतराय के विरुद्ध युद्ध करने के लिए एक बड़े सैन्य दल के साथ ओरछा की ओर रवाना किया। यद्यपि शुभकरण बचपन में चंपतराय का सहपाठी रहा था, पर इस समय उस पर मुगलों की गुलामी का भूत चढ़ा हुआ था । अपनी मित्रता को एक ओर रखकर वह अपने ही भाई के विरुद्ध युद्ध करने के लिए मैदान में आ डटा। उसकी गद्दारी सिर चढ़कर बोल रही थी। जब रानी सारंधा और उनके पति चंपतराय को इस बात की जानकारी हुई कि औरंगजेब की एक बड़ी सेना शुभकरण के नेतृत्व में युद्ध करने के लिए मैदान में आ डटी है तो उन दोनों देशभक्तों ने सेना का सामना करने का निर्णय लिया। यद्यपि उनके कई साथी उनका साथ छोड़कर औरंगजेब की सेना से जा मिले। इसके उपरांत भी उनके मनोबल पर कोई किसी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। उनके भीतर देशभक्ति और स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा था, इसलिए मुगल शासक के सामने झुकने का कोई प्रश्न नहीं था। इसके लिए चाहे जितने कष्ट उन्हें झेलने पड़ें , उन सब के लिए वह तैयार थे।
  औरंगजेब की क्रूर सेना राजा और रानी और उनकी सेना पर निरंतर हमले कर रही थी। अपनी प्रजा की प्राण रक्षा के दृष्टिगत राजा और रानी ने निर्णय लिया कि वे ओरछा को छोड़कर बाहर चले जाएं। अपने इसी निर्णय पर अमल करते हुए राजा और रानी दोनों ही किले को छोड़कर जंगलों की ओर निकल गए। इसके पश्चात वे दोनों अगले 3 वर्ष तक निरंतर जंगलों की खाक छानते रहे। इतने कष्टों को झेलने के उपरांत भी वे औरंगजेब के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। अपने पति चंपतराय के साथ साये की तरह रहने वाली रानी सारंधा उनका हर प्रकार से साथ दे रही थी। राजा भी अपनी ऐसी वीरांगना सहधर्मिणी को पाकर अपने आपको धन्य समझते थे। दोनों का अद्भुत जोड़ा था।  

रानी बढ़ाती रही राजा का मनोबल

         सचमुच समान गुण, कर्म और स्वभाव मिलने बड़े कठिन होते हैं, पर इन दोनों के गुण, कर्म और स्वभाव समान थे। यदि राजा कभी थकी हुई बातें करते भी तो रानी उनका मनोबल बढ़ाती और प्रत्येक कष्ट को सहर्ष सहन करने की शक्ति प्रदान करती। रानी राजा की हर प्रकार की प्रसन्नता का ध्यान रखती थीं। वह जानती थीं कि राजा यदि पराजित मानसिकता से ग्रस्त हो गए तो उसका परिणाम बहुत ही भयंकर आएगा। यही कारण था कि रानी राजा का हर स्थिति परिस्थिति में मनोबल बनाए रखने का प्रयास करती रहती थीं।
 औरंगजेब रानी और उनके पति चंपतराय को ढूंढते ढूंढते बहुत दु:खी हो चुका था। वह कुछ कर नहीं पा रहा था। अपने उन अधिकारियों और सैनिकों को लताड़ पिलाते पिलाते भी थक चुका था ,जो उसने राजा और रानी की खोज में लगाए थे। निरंतर निराशाजनक सूचना मिलने से दुखी हुए औरंगजेब ने अंत में अपने आप ही राजा और रानी का पता लगाने का निर्णय लिया। अब उसने राजा और रानी को अपने जाल में फंसाने के लिए नई कूटनीतिक चाल चली। उसने एक योजना के अंतर्गत अपनी सेना को हटाने का निर्णय लिया। जिससे राजा और रानी को ऐसा लगे कि अब औरंगजेब हार थककर चला गया है और अब उन्हें अपने महल में लौट जाना चाहिए।
  तब ऐसे में राजा अपने किले ओरछा में लौट आए। औरंगजेब इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था। जैसे ही उसे यह समाचार मिला कि राजा और रानी अपने महल में लौट आए हैं तो उसने तत्काल ही ओरछा के किले को घेर लिया। भारत माता के सम्मान के प्रतीक बने राजा और रानी को गिरफ्तार करने के लिए औरंगजेब ने खूब उत्पात मचाया। किले के अंदर लगभग 20 हजार लोग थे। किले की घेराबंदी को तीन सप्ताह हो गए थे। राजा की शक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही थी। औरंगजेब की विशाल सैन्य शक्ति का सामना करना उस समय छोटी बात नहीं थी। राजा और रानी के पास अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए मनोबल के अतिरिक्त उस समय और कुछ नहीं था । उसके बल पर वह कितनी देर जीवित रह सकते थे? रसद और खाद्य सामग्री लगभग समाप्त होती जा रही थी। दुर्भाग्यवश राजा उसी समय ज्वर से पीड़ित हो गया। एक दिन ऐसा लगा कि शत्रु आज किले में प्रवेश पाने में सफल हो जाएगा। तब राजा ने सारंधा के साथ विचार विमर्श किया।

रानी ने लिया मजबूत निर्णय

  सारंधा अपने पति राजा चंपत राय की एक अच्छी सलाहकार भी थी। उन्होंने राजा को सत्परामर्श दिया कि अब उन्हें किले से बाहर निकल जाना चाहिए। राजा ने रानी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। यद्यपि वह इस समय ज्वर से पीड़ित होने के कारण किले से बाहर निकलने में अपने आपको बहुत ही अधिक आज असहज अनुभव कर रहे थे। इसके अतिरिक्त राजा के साथ समस्या यह भी थी कि वह ऐसे समय में अपनी प्रजा को अकेले मरने के लिए छोड़ कर जाना भी उचित नहीं मान रहे थे। रानी भी अपने पति के विचार से सहमत थीं इसलिए उन्होंने अब दूसरी योजना पर विचार किया। जिसके अनुसार रानी ने अपने पुत्र छत्रसाल को बादशाह के पास संधि पत्र लेकर भेजा, जिससे निर्दोष लोगों के प्राण बचाए जा सके। अपने देशवासियों की रक्षा के लिए रानी ने अपने प्रिय पुत्र को संकट में डाल दिया। वास्तव में उन विषम परिस्थितियों में रानी ने यह निर्णय तो लिया पर उस निर्णय पर उन्हें भीतर से बहुत अधिक कष्ट भी हुआ।
   औरंगजेब एक बहुत ही क्रूर शासक था। वह हिंदुओं को अपनी प्रजा के समान कभी समझता ही नहीं था । उन पर जितने अत्याचार किए जा सकें उन्हें करना वह अपने लिए खुदा का हुकुम समझता था। जब उसके पास रानी का यह प्रस्ताव गया तो उसने कूटनीतिक रूप से चालाकी भरे अंदाज में उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। औरंगजेब ने रानी के पुत्र छत्रसाल को अपने पास रख लिया और रानी को यह आश्वासन भी दे दिया कि वह प्रजा से कुछ नहीं कहेगा। अपने इस विचार को और अधिक पक्का करने के लिए उसने एक प्रतिज्ञा पत्र बनवा कर रानी के पास भेज दिया। जिससे कि रानी को उसके ऊपर किसी प्रकार का संदेह ना हो।
 रानी को औरंगजेब का यह पत्र उस समय प्राप्त हुआ जब वह मन्दिर के लिए जा रही थी।  उसे पढ़कर रानी को प्रसन्नता हुई, लेकिन पुत्र के खोने का दु:ख भी हुआ। अब सारंधा के समक्ष एक ओर बीमार पति तो दूसरी ओर बंधक पुत्र था। फिर भी उसने साहस से काम लिया और अब चंपतराय को अंधेरे में किले से निकालने की योजना बनाई। रानी राजा को लेकर पश्चिम की ओर लगभग 10 कोस निकल गई थी। राजा पालकी में अचेत अवस्था में पड़े हुए थे। जितने भर भी लोग साथ में थे उन सबको भी भूख प्यास ने अब घेर लिया था। अचानक पीछे से एक सैनिक दल आता हुआ दिखाई दिया। रानी ने अनुमान लगा लिया कि ये बादशाह के सैनिक हैं। अब रानी यह भी समझ गई थी कि संकट और भी अधिक गहरा गया है। पर उसने इस संकट का वीरता के साथ सामना करने का निर्णय लिया। यही कारण था कि रानी ने तुरंत डोली को रोकने के आदेश दिए । राजा डोली में से किसी प्रकार बाहर निकले, पर वह बीमारी की अवस्था के कारण बहुत अधिक दुर्बल हो चुके थे । अतः बाहर आकर खड़े हुए तो गिर पड़े।

आ गया अंतिम समय

रानी ने समझ लिया था कि अब अंतिम समय आ चुका है। उनकी आंखें सजल हो उठी थीं। अब उन्हें यह भी पता चल गया था कि स्वतंत्रता और सम्मान के लिए जिसे सबसे बड़ा मूल्य कहा जाता है, उसे चुकाने का समय आ चुका है। राजा ने परिस्थिति को देखा, समझा और तुरंत निर्णय लिया। उन्होंने रानी से कहा कि ‘सारन! तुमने सदा मेरे सम्मान को द्विगुणित करने का काम किया है। एक काम करोगी?’
रानी ने आंखों से आंसू पोंछते हुए साहस के साथ कहा,- ‘अवश्य महाराज।’
राजा ने कहा – ‘मेरी अंतिम याचना है। इसे अस्वीकार मत करना।’
रानी ने अपनी तलवार अपने हाथों में ले ली- ‘बोली महाराज ! यह आपकी आज्ञा नहीं मेरी इच्छा है कि आप से पहले मैं संसार से जाऊं।”
रानी राजा का आशय नहीं समझ पाई थी। तब राजा ने कहा- ‘मेरा कहने का अभिप्राय है कि अपनी तलवार से मेरा सिर काट दो। मै शत्रु की बेड़ियां पहनने के लिए जीवित नहीं करना चाहता।’
रानी ने कहा – ‘नहीं महाराज! मुझसे यह अपराध नहीं हो सकता।’
इसी समय रानी के सैनिकों में से एक अंतिम सैनिक को भी शत्रु ने समाप्त कर दिया था। रानी ने कठोर निर्णय लिया और अपने पति का अपने हाथों से हृदय छेद दिया। तब बादशाह के सैनिक रानी के साहस को देखकर दंग रह गए। शत्रु के सरदार ने आगे बढ़कर कहा – ‘हम आपके दास हैं ।हमारे लिए आपका क्या आदेश है ?’
तब रानी सारंधा ने उनसे कहा था कि ‘अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो तो यह दोनों लाशें उसे सौंप देना।’
यह कहकर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली। जब वह अचेत होकर धरती पर गिरी तो उसका सिर चंपत राय की छाती पर था।
ऐसी रोमांचकारी घटना से जुड़े ओरछा के किले को जब आज देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो मन ही मन अपने राजा चंपतराय और उनकी रानी सारंधा सहित उन सभी देशभक्तों को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की जिन्होंने उस समय मां भारती के सम्मान के लिए अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया था या किसी भी प्रकार के कष्ट सहे थे।

दिनांक: 12/11/2022

डॉ राकेश कुमार आर्य

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