◘ *पुनरुत्थान युग का द्रष्टा : महर्षि दयानन्द सरस्वती*
ऋषि दयानन्द के जीवन, कार्यों तथा उनके विचारों पर अनेक भारतीय तथा पाश्चात्य लेखकों ने समय-समय पर अपनी लेखनी चलाई है। पाश्चात्य लेखकों की कुछ सीमाएँ तथा पूर्वाग्रहग्रस्त दृष्टि अवश्य रही है, जबकि भारत के कुछ ऐसे लेखकों और विश्लेषकों ने, जो आर्यसमाज से औपचारिक रूप से कभी सम्बद्ध नहीं रहे, अपनी-अपनी दृष्टि और क्षमता से ऋषि दयानन्द के चिन्तन का सफलता से मूल्यांकन किया है, साथ ही निखिल मानवता को दिये गए उनके सन्देश का समीक्षण किया है। डॉ० रघुवंश उन समीक्षकों में से एक थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के विगत अध्यक्ष डॉ० रघुवंश ने अपने अग्रज श्री यदुवंश सहाय की पुस्तक ‘महर्षि दयानन्द’ की प्रस्तावना के रूप में ‘पुनरुत्थान युग का द्रष्टा: दयानन्द’ शीर्षक एक विशद लेख लिखा। महर्षि दयानन्द सरस्वती के विचारों और उनके जीवन-दर्शन की व्याख्या और विवेचना में यह लेख अपना विशिष्ट स्थान रखता है।
स्मृतिशेष डॉ० भवानीलाल भारतीय जी की दृष्टि में, विद्वान लेखक डॉ० रघुवंश ने अपने लेख में ऋषि दयानन्द के वैचारिक पक्ष का विस्तृत मूल्यांकन कर निम्न निष्कर्ष निकाले है –
“१. ऋषि दयानन्द की प्रगतिशील विचारधारा और उनके राष्ट्रोन्मुख कार्यक्रम पश्चिमी चिन्तन से कथमपि प्रभावित नहीं रहे। उनकी समस्त प्रेरणाएँ भारतीय शास्त्र तथा दर्शन से अनुप्राणित रहीं।
२. अपने गुरु विरजानन्द से ऋषि दयानन्द ने जो पाठ सीखा उसमें युक्ति, तर्क एवं बुद्धि पर आधारित ऋषि कृत ग्रन्थों को सर्वोपरी मान्यता देने का विचार नितान्त महत्वपूर्ण था। इसी के द्वारा वे सत्यासत्य, धर्माधर्म तथा न्याय-अन्याय की परख कर सके थे। इस प्रकार वे शास्त्रों में किये गये अवान्तरकालीन मिश्रण (प्रक्षेप) का समुचित विचार कर सके।
३. दयानन्द की दृष्टि में सत्य ज्ञान के पर्याय होने के कारण वेदों की सर्वोपरी मान्यता है। उन्होंने वेदों के नित्यत्व और अपौरुषेयत्व की सिद्धि युक्ति एवं तर्क से की।
४. ऋषि दयानन्द का सर्वोपरी जोर बुद्धिवाद पर था। जो हमारे विवेक को स्वीकार्य नहीं, उसे त्यागने में हमें क्षणभर भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। इस प्रकार वे विवेक और बुद्धि के जबरदस्त पैरोकार बने।
५. ऋषि दयानन्द ने भारतीय समाज में व्याप्त निराशा, निष्क्रियता तथा पलायनवादी मनोवृत्ति का विरोध कर पुरुषार्थ तथा कर्मण्यता को प्रोत्साहन दिया। इससे जाति में व्याप्त हताशा, निराशा तथा निष्क्रियता दूर हुई।
६. मध्ययुगीन व्यक्तिपरक धर्म, दर्शन तथा अध्यात्म को समाजोन्मुखी बनाकर व्यष्टि के साथ-साथ समष्टि हित की बात कही। सामाजिक हित का चिन्तन करनेवाले अपने युग के वे प्रथम महापुरुष थे।
७. दयानन्द समन्वयवादी इस अर्थ में नहीं थे कि हर किसी मत या आचार्य की यथोपदिष्ट बातों को, चाहे वे युक्ति, विज्ञान तथा सृष्टिक्रम के प्रतिकूल क्यों न हो, समन्वय के नाम पर स्वीकार कर लें। वे सत्य को सत्य, न्याय को न्याय तथा धर्म को धर्म कहने के पक्ष में थे। असत्य, अधर्म तथा अन्याय से उन्होंने जीवनपर्यन्त समझौता नहीं किया।
८. दयानन्द के लिए आधुनिक विज्ञान सदा ग्राह्य रहा। वे धर्म और विज्ञान तथा आध्यात्मिकता और भौतिकता के समन्वय के पक्षपाती थे।
९. दयानन्द की दृष्टि में निखिल मानव जाति का धर्म एक है, जो नैतिक मूल्यों की सबके द्वारा स्वीकृति का पर्याय है। मत, पन्थ, सम्प्रदाय आदि का गठन मनुष्य-मनुष्य में विभाजन पैदा करने के लिए किया गया है। इस दृष्टि से आधुनिक विचारकों का ‘सर्वधर्म समभाव’ का नारा नितान्त खोखला तथा अर्थहीन है। जब मानव मात्र का धर्म एक ही है तो विभिन्न धर्मों की कल्पना कर उनमें समन्वय की तलाश आकाशकुसुम को प्राप्त करने के तुल्य है।
१०. उपर्युक्त धारणा का विस्तार कर उन्होंने बताया कि धर्म को सत्य, अहिंसा, न्याय, करुणा, सर्व भूतहित जैसे सार्वभौम मूल्यों की स्वीकृति से परखा जाना चाहिए, न कि पूजा-उपासना के बाह्य प्रकारों तथा सम्प्रदाय विशेष में स्वीकार्य किये जाने वाले कर्मकाण्डों के आधार पर। पूजा-पद्धतियों तथा कर्मकाण्ड की अनेकता ने मानव जाति को भिन्न-भिन्न खेमों में स्थानबद्ध कर दिया है।
डॉ० रघुवंश ने उपर्युक्त बिन्दुओं पर आधारित दयानन्दीय दर्शन का जो विश्लेषण किया है उससे उनके इस चिन्तन तथा विश्लेषण का युक्तिसंगत होना स्पष्ट लक्षित होता है।”
(स्रोत: ‘ऋषि दयानन्द: सिद्धान्त और जीवन दर्शन’, पृ.६-७, लेखक: डॉ० भवानीलाल भारतीय, प्रस्तुति: राजेश आर्य)