जब अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, बांग्लादेश, बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, मालदीव और अन्य कई देश आर्यावर्त का एक अंग होते थे, उस समय इन सबके अपने-अपने राजा हुआ करते थे जो स्थानीय स्तर पर प्रजा की समस्याओं का निवारण किया करते थे। ये वैसे ही हुआ करते थे जैसे आज भारत के अंदर किसी प्रांत का कोई मुख्यमंत्री होता है और वह अपने प्रांत के लोगों की समस्याओं का समाधान करता है। उस समय इन प्रांतों को या देशों को प्रांतीय देश न कहकर जनपद कहा जाता था। आज हमें कभी के अपने आर्यावर्त की बिखरी हुई मोतियों की माला दिखाई देती है। यूनान, अफगानिस्तान, ईरान, पाकिस्तान आदि से लेकर जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, कंबोडिया, इंडोनेशिया आदि तक बिखरी पड़ी है। माला बिखरी हुई है अथवा कहिए कि खंड-खंड में भारत बँट गया है, इसलिए हम अखंड भारत की बात करते हैं।
कभी संपूर्ण भूमंडल पर आर्यों का शासन था। तब वह कितना स्वर्णिम और गौरवमयी काल रहा होगा, जब संपूर्ण भूमंडल को आर्य अपनी भूमि कहकर पुकारते होंगे ?- एक समय ऐसा भी आया जब आर्यावर्त भारतवर्ष में परिवर्तित हुआ और उसकी सीमाएँ सिमटकर संकुचित हो गयीं। इस काल में भी हिंदुओं का विशाल भूमंडल पर अपना शासन था। प्राचीन भारतवर्ष की सीमाएँ हिन्दूकुश से लेकर अरुणाचल, कश्मीर से कन्याकुमारी तक और एक ओर जहाँ पूर्व में अरुणाचल से लेकर इंडोनेशिया तक और पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर अरब की खाड़ी तक फैली थीं। धीरे-धीरे जैसे-जैसे जनसंख्या विस्तार होता गया, वैसे-वैसे ही लोगों में अज्ञान, अशिक्षा, झूठी महत्त्वाकांक्षा नादि पनपती गई और उन महत्त्वाकांक्षा और अज्ञान आदि के चलते विखंडन की प्रक्रिया तेजी से पाँव पसारने लगी। जिससे दूर देश के लोग अपने आपको धीरे-धीरे अपने मूल से अलग करने लगे। इसका एक कारण महाभारत का विनाशकारी युद्ध भी है, जब हमारे क्षत्रियों और ज्ञानी महापुरुषों का उस युद्ध में अंत हो गया तो दूरस्थ देशों पर भारत का नियंत्रण शिथिल पड़ने लगा।
इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे विदेशी आक्रमण भी रहे जिन्होंने भारत का मानचित्र ही बदल दिया।
रामायण काल में हुए राम-रावण युद्ध के पश्चात् भारतवर्ष के ज्ञात इतिहास में सबसे अधिक भयंकर युद्ध महाभारत का हुआ था। महाभारत के समय में गांधार प्रांत का सुबल पुत्र शकुनि भारत के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध रहा है। महाभारत युद्ध के समय गंधार पर नग्नजित का कुल राज कर रहा था। नग्नजित एक भारी देश का राजा था और उसके नीचे कई छोटे-छोटे गणराज्य हुआ करते थे। महाभारत के आदि पर्व में नग्नजित के कुल के विषय में बताया गया है। इसकी साक्षी पंडित भगवददत्त सत्यश्रवाजी की पुस्तक ‘भारतवर्ष का इतिहास’ के पृष्ठ 147 पर मिलती है।
प्रमाणों के आधार पर नग्नजित के स्वरजित व सुबल सहित कई पुत्र थे। सुबल की पुत्री गांधारी थी, जो धृतराष्ट्र को ब्याही गई थी, जबकि सुबल के शकुनि आदि कुल 10 पुत्र थे। शकुनि के पुत्र उलूक आदि कई पुत्र थे।
अफगानिस्तान में मिला महाभारतकालीन विमान
अभी कुछ वर्ष पहले ही अफगानिस्तान में 5000 वर्ष पुराना एक विमान मिला था। विशेषज्ञों का मानना है कि यह विमान महाभारत कालीन हो सकता है। वायर्ड. कॉम की एक रिपोर्ट में इस तथ्य का उल्लेख किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार अफगानिस्तान की एक प्राचीन गुफा में रखा प्राचीन भारत का एक विमान मिला। वास्तव में यह विमान टाइम वेल में फँसा हुआ है। यही कारण रहा कि यह इतने काल तक सुरक्षित बना रहा। टाइम वेल इलेक्ट्रोमैग्नेटिक शॉकवेव से सुरक्षित क्षेत्र होता है और इसी कारण इस विमान के पास जाने की चेष्टा करने वाला कोई भी व्यक्ति इसके प्रभाव के कारण अदृश्य हो जाता है।
कहा जाता रहा है कि यह विमान महाभारत काल का है और इसके आकार-प्रकार का विवरण महाभारत और अन्य प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। इस कारण इसे गुफा से निकालने का प्रयास करने वाले कई अमेरीकी सील कमांडो भी अदृश्य हो गए या मारे गए।
हमसे गांधार के दूर हो जाने के कारण कुछ लोग अब गांधारी या अन्य राजकुमारियों के हमारे देश के राजाओं या राजकुमारों से होने वाले विवाहों को आश्चर्य की दृष्टि से देखते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इतनी दूर के देशों से उस समय संबंध करना कितना खतरनाक होता होगा ? परंतु उस समय यहाँ से वहाँ तक एक ही देश होने के कारण यह अन्य देशों की राजकुमारियों से होने वाले विवाह नहीं थे, अपितु भारत की ही राजकुमारियों से भारत के ही राजकुमारों के होने वाले विवाह संबंध थे। हमारे देश में किसी ऐसी महिला को शासन का अध्यक्ष या शासन अध्यक्ष की पत्नी बनने पर प्रतिबंध था, जो विदेशी मूल की हो। ऐसी महिलाओं का अपने मायके पक्ष से सदैव आत्मिक भाव बना रहता है। अतः वह जब भारतवर्ष में रहकर रानी बनेगी या किसी अन्य महत्त्वपूर्ण दायित्व को संभालेगी तो उस समय देश की सुरक्षा से जुड़े किसी भी अभिलेख को वह अपने मायके पक्ष को दे सकती है। जिससे कई बार देश असुरक्षित हाथों में जा सकता है।
राजा नग्नजित की एक कन्या थी। जिसे नाग्नजिति के नाम से जाना जाता था। बहुत कम लोग जानते हैं कि इस कन्या से भी श्री कृष्णजी ने विवाह किया था। विद्वानों का अनुमान है कि नाग्नजिति गांधारी की भतीजी थी। कृष्ण की एक और भी पत्नी गांधारी अर्थात् गांधार राज्य की पुत्री थी। वह सत्या से अलग मानी गई है। ‘मत्स्य पुराण’ के एक ही श्लोक में सत्या, नाग्नजिति और गांधारी दो पृथक् पृथक् नाम है। इस पर अनुमान लगाया जाता है कि वह सुबल अथवा उसके किसी भाई की कन्या हो सकती है। उसका एक नाम सुकेशी भी था। महाभारत उद्योग पर्व में आया है कि सत्या या गांधारी के साथ बलपूर्वक विवाह करने के कारण ही यादव कृष्ण का गांधारों से युद्ध हुआ था।
महाभारत के युद्ध के परिणाम
महाभारत के युद्ध में हमारे लाखों विद्वान्, महारथी, योद्धा मारे गए। इनमें अनेकों लोग ऐसे थे जो संस्कृति रक्षक थे। जिनके कारण संपूर्ण भूमंडल पर देश की संस्कृति का प्रचार-प्रसार होता था। भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रचार-प्रसार में जो लोग अब से पहले लगे रहे थे, उनका महाभारत युद्ध के पश्चात् सर्वथा अकाल पड़ गया। जिससे दूरस्थ देशों के लोगों तक भारतीय संस्कृति के ज्ञान-विज्ञान के सूर्य का प्रकाश पहुँचना कठिन ही नहीं, असंभव सा हो गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत के प्रति जो लोग श्रद्धा और आस्था रखते थे, वही धीरे-धीरे इससे दूरी बनाने लगे।
दूसरी बात यह भी थी कि जो लोग दुर्योधन के पक्ष से लड़ने के लिए अपने देशों से सेना लेकर आए थे, उनमें से बचे हुए कुछ लोग युद्धोपरांत जब अपने देश लौटे तो उन्होंने आत्महीनता के कारण युधिष्ठिर से इतने अच्छे संबंध बनाकर नहीं रखे, जितने अपेक्षित थे। उनके मन में यह गाँठ बनी रही कि हमने युधिष्ठिर के विरुद्ध दुर्योधन की सहायता की थी। इसलिए महाभारत के युद्ध के पश्चात् का वैश्विक परिबेश कुंठित सा हो गया।अफगानिस्तान के शकुनि के ऊपर तो इस युद्ध को आरंभ कराने तक का आरोप है। अतः अफगानिस्तान के लोगों का तो शकुनि की चालों से बहुत अधिक अहित हुआ था।
विद्वानों का मानना है कि महाभारत के युद्ध का सबसे अधिक दुष्परिणाम यह आया कि धर्म और संस्कृति का नाश हो गया। इसमें लाखों लोग मारे गए, बहुत बड़ी संख्या में महिलाएँ विधवा हो गयीं, बहुत बड़ी संख्या में ही बच्चे अनाथ हुए, बहुत बड़ी संख्या में ही बहुत से माता-पिता के बुढ़ापे के सहारे छिन गए। फलस्वरूप सर्वत्र अशांति सी छा गयी और भय का वातावरण व्याप्त हो गया। मानव मानव से ही भय खाने लगा। इस युद्ध के बाद अखंड भारत बिखरने लगा... नए धर्म और संस्कृतियों का जन्म होने लगा और धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया।
महाभारत युद्ध के पश्चात् राजधर्म की भी हानि हुई। राजा पहले की भाँति अपने राजधर्म के प्रति निष्ठावान नहीं रहे। विद्वानों का अभाव हो जाने के कारण राजाओं की गर्दन पकड़कर उनको यह बताने या समझाने वाला अब कोई 'विदुर' नहीं रहा कि तुम्हारा राजधर्म क्या है और तुम्हें किस प्रकार अपनी प्रजा के प्रति वात्सल्य भाव का प्रदर्शन करना चाहिए ? बहुत देर पश्चात् जाकर आचार्य चाणक्य जैसे धर्म और राजनीति के महान् खिलाड़ी और कूटनीति को राजा के लिए अनिवार्य घोषित करने वाले महान् विद्वान् का जन्म हुआ। वास्तव में किसी भी महापुरुष का जन्म परिस्थितिवश होता है। जब परिस्थितियों में ललकार उत्पन्न हो जाती है और सर्वत्र अशांति का साम्राज्य होता है तब यह परिस्थितियाँ किसी महापुरुष का निर्माण करती हैं। चाणक्य इसका अपवाद नहीं थे।
पाणिनी और गुरु गोरखनाथ की भूमि अफगानिस्तान
कुछ विद्वानों का मानना है कि महान् संस्कृत व्याकरण के आचार्य पाणिनी और गुरु गोरखनाथ भी अफगानिस्तान के ही रहने वाले थे। गुरु गोरखनाथ पठान जाति के पूर्वज थे। यहीं पर अब से लगभग 3500 वर्ष पहले एकेश्वरवादी धर्म की स्थापना करने वाले महान् दार्शनिक जरथुस्त्र निवास करते थे।
इन पठान लोगों के बारे में मान्यता है कि यह पख्तून होते हैं। पठान को कभी 'पक्ता' के नाम से पुकारा जाता था। ऋग्वेद के चौथे खंड के 44 वें मंत्र में एक शब्द मिलता है 'पक्छ्याकय' इसी प्रकार तीसरे खंड के 91 वें मंत्र में आफरीदी कबीले के समानार्थक शब्द का उल्लेख 'आपर्यतय' के नाम से किया गया है। बहुत संभव है कि वेद के इन दोनों शब्दों को पकड़कर ही इन जातियों ने अपना नामकरण किया हो। ऐसी भी मान्यता है कि अंग्रेजी शासन में पिंडारियों के रूप में जो व्यक्ति उनसे निरंतर लड़ते रहे थे, वह इन्हीं पठान और जाटों के पूर्वज थे। यह पठान लोग जाट समुदाय का ही एक वर्ग होते हैं।
चंद्रगुप्त-धनानंद युद्ध
चाणक्य के समय में मगध का धनानंद नाम का शासक बहुत ही अत्याचारी हो चुका था। वह अपनी प्रजा के साथ वैसा व्यवहार नहीं कर रहा था जो भारत के राजधर्म के अनुकूल हो। इस अहंकारी और अनाचारी राजा को हटाना चाणक्य जैसे महामति के लिए आवश्यक हो गया था। फलस्वरूप चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य (322 से 298 ई.पू. तक) का धनानंद से युद्ध हुआ। इस युद्ध ने भी भारत के राजनीतिक इतिहास को नई दिशा और नया मोड़ दे दिया। चंद्रगुप्त ने धनानंद के शासन को उखाड़ फेंका और भारत में मौर्य वंश की स्थापना की।
सम्राट अशोक कलिंग युद्ध (261 ईसा पूर्व)
महामति चाणक्य ने बड़े पुरुषार्थ से जिस नए शासन की स्थापना की, उसके पीछे उनका उद्देश्य भारत की खोई हुई राजनीतिक एकता और वैश्विक सम्मान की पुनर्स्थापना कराना था। उनका यह प्रयास बहुत ही सार्थक था और इसके सार्थक ही परिणाम भी निकले। भारत फिर से राजनीतिक रूप से एकता के सूत्र में बंधा और वैश्विक स्तर पर उसने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से प्राप्त किया। जहाँ मौर्य वंश के लिए यह बात प्रशंसा के योग्य है कि इस वंश के शासन काल में भारत ने फिर से अपना खोया हुआ वैभव और सम्मान प्राप्त किया, वहीं इस वंश के शासक अशोक के विषय में यह भी सत्य है कि उसके समय में भारत ने अपना क्षात्र धर्म त्याग कर जिस प्रकार अहिंसा को राजधर्म घोषित किया, उसने आने वाले भारत के लिए बहुत सारी समस्याओं को आमंत्रण दे दिया। सम्राट अशोक (ईसा पूर्व 269-232) प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र और चंद्रगुप्त का पौत्र था, जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। महाराजा बिंदुसार की 16 रानियों से उन्हें 101 पुत्र उत्पन्न हुए थे। उनमें से सुसीम अशोक से बड़े थे। अशोक ने अपनी राजगद्दी प्राप्त करने के लिए अपने 100 भाइयों के साथ गृहयुद्ध किया था। अपने सभी भाइयों की हत्या के बाद अशोक को राजगद्दी मिली।
अशोक के समय में मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिंदूकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर कर्नाटक तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक पहुँच गया था। मौर्य काल से लेकर अब तक का यह भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य था।
उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से 5 किलोमीटर दूर कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा। 260 ई.पू. में अशोक ने कलिंगवासियों पर आक्रमण किया तथा उन्हें पूर्णतः कुचलकर रख दिया। इस युद्ध में 150000 व्यक्ति विस्थापित हुए थे, जबकि 100000 लोग मारे गए थे। इतिहासकारों का यह भी मानना है कि इनसे कई गुणा लोग इसमें नष्ट हो गए थे। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वे प्रायश्चित करने के प्रयत्न में बौद्ध धर्म अपनाकर भिक्षु बन गए। सम्राट अशोक यह नहीं समझ पाए कि दिग्विजय करना भारत के सम्राटों की प्राचीन परंपरा रही थी। उन्हें यह भी समझना चाहिए था कि जो लोग राष्ट्र की मुख्यधारा का कहीं विरोध करते हैं या उसमें साथ चलने में असहमति या आनाकानी व्यक्त करते हैं, उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ लाकर जोड़ना प्रत्येक शासक का कार्य है। अतः यदि कलिंगवासी राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ नहीं चलना चाह रहे थे तो उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ लाकर जोड़ना अशोक का क्षत्रिय धर्म था और यही उन परिस्थितियों में उसका राजधर्म भी था।
युद्ध की भयानक विनाशलीला को देखकर ऐसा ही दुख या प्रायश्चितबोध युधिष्ठिर को भी हुआ था, परंतु उन्हें श्रीकृष्णजी ने राजधर्म का उपदेश देकर सामान्य कर लिया था। युधिष्ठिर को तब कृष्णजी ने उस समय अश्वमेध यज्ञ करने की प्रेरणा भी दी थी। उसी के फलस्वरूप युधिष्ठिर ने प्रायश्चित करते हुए तथा मृतकों की आत्मा की शांति के लिए अश्वमेध यज्ञ किया था। यह भी भारत का दुर्भाग्य ही था कि सम्राट अशोक को इस प्रायश्चित बोध से उभारने के लिए इस समय कोई श्रीकृष्ण नहीं था। बौद्ध धर्म के आचार्यों ने कृष्ण की भाँति अशोक को प्रायश्चितबोध से उबारने के स्थान पर उसे धर्म भीरु बना दिया। अशोक के भिक्षु बन जाने के बाद भारत का पतन आरम्भ हुआ और भारत फिर से धीरे-धीरे कई जनपदों और छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया। अतः जिस राजनीतिक एकता को बड़े भारी पुरुषार्थ से चाणक्य और चंद्रगुप्त ने मिलकर प्राप्त किया था, उसे सम्राट अशोक के राजधर्म से मुँह फेर लेने की प्रवृत्ति के कारण हमें फिर से खोना पड़ गया।
अशोक ने धर्म प्रचार के लिए भारत के बाहर श्रीलंका, अफगानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिल, यूनान तथा ईरान में अपने धर्म प्रचारकों को भेजा था। जिनमें उसकी बेटी संघमित्रा और बेटा महेंद्र भी सम्मिलित थे। अशोक ने अपने शासनकाल में 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना कराई थी। जिनमें नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, कंधार आदि के विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इस प्रकार उस समय का गांधार महाजनपद विश्व के लिए शिक्षा के एक अच्छे केंद्र के रूप में उभर कर सामने आया था। जहाँ पर बौद्ध धर्म के सिद्धांतों की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
भाब्रू लघु शिलालेख से हमें पता चलता है कि अपने राज्याभिषेक के 10 वें वर्ष में अशोक ने बोधगया की यात्रा की थी। जबकि अपने शासन के 12 वर्ष में अशोक निगालि
सागर गया और कोनगमन के स्तूप के आकार को उसने दोगुना करवाया। महावंश और दीपवंश के अनुसार उसने तृतीय बौद्ध संगीति (सभा) बुलाई।
सम्राट अशोक, बौद्धधर्म और गांधार महाजनपद
चीनी यात्री युवानच्वांग ने इस्लाम और अफगानिस्तान के बौद्ध काल का इतिहास लिखा है। अपने उस इतिहास में इस चीनी यात्री ने बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो हमारे लिए उपयोगी हो सकता है। वह लिखता है कि गौतम बुद्ध अफगानिस्तान में लगभग 6 माह ठहरे थे। बौद्ध काल में अफगानिस्तान की राजधानी बामियान हुआ करती थी।
सिकंदर का आक्रमण 328 ईसवी के समय हुआ। उस समय यहाँ प्रायः पारस के हखामनी शासकों का शासन था। उस काल में यह क्षेत्र अखंड भारत का भाग था। ईरान के पार्थियन तथा भारतीय शकों के बीच बँटने के बाद अफगानिस्तान के आज के भूभाग पर सासानी शासन आया।
यह तथ्य भी बहुत ही ध्यान रखने योग्य है कि जिन नदियों को आजकल अफगानिस्तान में आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरीरूद्र आदि नामों से वहाँ के लोग पुकारते हैं, उन्हें प्राचीन काल में हमारे भारतीय लोग वक्षु, कुभा, कुरम, रसा, गोमती, हरयू या सर्दू के नाम से पुकारते थे।
कलिंग युद्ध से जिस प्रकार सम्राट अशोक प्रायश्चित बोध में डूबा और उसने स्वयं बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया, उसका न केवल भारत के क्षत्रिय धर्म पर विपरीत प्रभाव पड़ा अपितु तत्कालीन गांधार महाजनपद पर भी दुष्प्रभाव पड़ा। सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने के पश्चात् भारतीय क्षत्रिय परंपरा अवरुद्ध और बाधित हुई। लोगों ने अपराधी व दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को मारने में भी हिंसा देखना आरंभ कर दिया। जबकि वेद और भारत के अन्य धर्म शास्त्र यह कहते चले आ रहे थे कि यदि कोई व्यक्ति दुष्टाचरण करता है और समाज के शांतिप्रिय लोगों के जीवन को किसी भी प्रकार से संकट उत्पन्न करता है तो ऐसे अनाचारी व दुराचारी व्यक्ति को समाप्त करना राजधर्म के अनुकूल है। इसी के लिए 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति'- यह बात हमारे समाज में गहराई से जमी हुई थी, परंतु अब जब देश का सम्म्राट ही हथियार फेंक कर दूर जाकर खड़ा हो गया और उसने अहिंसा की माला जपनी आरंभ कर दी तो भारतीय क्षत्रिय धर्म को जंग लगना आरंभ हो गया। लोगों ने नए धर्म बौद्ध धर्म को अपनाना आरंभ कर दिया। इसका कारण यह था कि जब देश का सम्राट ही बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया तो लोगों ने उसका अनुकरण करते हुए उसी धर्म को स्वीकार कर लेने में अपना हित समझा। गांधार महाजनपद में बड़ी संख्या में लोगों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। इसका प्रमाण यह है कि वहाँ पर अभी कुछ समय पूर्व तक भी महात्मा बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा स्थापित रही। जिसे वहाँ पर तालिबान नामक संगठन ने गिरा कर नष्ट किया था। बौद्ध धर्मावलंबियों ने महात्मा बुद्ध की प्रतिमा बनाकर पूजनी आरंभ की इसी को यवन लोगों ने बुतपरस्ती कहा। बुत शब्द बुद्ध से बना है। कई लोगों ने ऐसा भी माना है कि भारत में मूर्ति पूजा या बुतपरस्ती महात्मा बुद्ध की इस प्रकार बनाई जाने वाली प्रतिमाओं की देखा-देखी बढ़ी और सारा समाज ही अज्ञान और पाखंड के अंधकार में डूब कर रह गया। सर्वत्र मूर्ति पूजा आरंभ हो गई। इससे हमारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी बाधित हुआ। मूर्ति पूजा ने लोगों में विभिन्न संप्रदायों को जन्म दिया। लोगों के अलग-अलग देवी-देवता हो जाने के कारण उनमें एक राष्ट्रदेव की आराधना का भाव धूमिल सा होने लगा।
यवन लोगों ने जब इस्लाम को स्वीकार किया तो उन्होंने बुतपरस्ती को अपनी मान्यताओं के विरुद्ध समझा और वह बुतपरस्ती को मिटाने के संकल्प के साथ भारत की ओर बढ़े। जिसकी सबसे अधिक क्षति अफगानिस्तान को उठानी पड़ी। इस पर हम आगे के अध्यायों में प्रकाश डालेंगे।
यहाँ पर हमें यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि एक विचारधारा से ही कोई राष्ट्र बलवान हो सकता है। यदि विचारधारा में शिथिलता आ जाए या विभिन्नता आ जाए या मत भिन्नता आ जाए तो राष्ट्र दुर्बल होने लगता है, अनेकता पाँव पसारने लगती है। इस अनेकता से ऐसी अनेकों विषमताएँ उत्पन्न होती हैं जो धीरे-धीरे दो समुदायों में या राष्ट्रवासियों में अलगाव का भाव उत्पन्न करती हैं। यही कारण है कि विद्वान् लोग राष्ट्रवासियों को एक ही विचारधारा से शासित और अनुशासित करने का हरसंभव प्रयास करते हैं। यद्यपि इसके लिए विद्वानों का यह भी मानना है कि किसी भी स्वस्थ विचारधारा में जंग न लगे इसलिए शास्त्रार्थ की परंपरा निरंतर जारी रहे। भाषण और अभिव्यक्ति के माध्यम से ऐसे प्रयास किए जाते रहने चाहिए, जिससे राष्ट्रवासियों के लिए कोई विचारधारा बोझ न बन जाए, अपितु वह सभी राष्ट्रवासियों के कल्याण के लिए समर्पित होकर कार्य करती रहे।
गांधार महाजनपद में जब बौद्ध धर्मावलंबियों का प्राबल्य हुआ तो यद्यपि वह भारत के साथ अपनी सांस्कृतिक एकता बनाए रखने में सफल रहे, परंतु विचारधारा किसी न किसी स्तर पर अलग हो जाने के कारण थोड़ा सांस्कृतिक एकता में शैथिल्य तो उत्पन्न हुआ ही। साथ ही यहाँ के लोगों में अहिंसा का भाव इतनी गहराई से बैठ गया कि उन्होंने प्राचीन भारतीय राजनीतिक धर्म को त्याग कर अहिंसावाद का चोला ओढ़ लिया। उनका यह नया चोला कालांतर में इस्लाम से उनकी रक्षा नहीं कर पाया।
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं। )