पूर्ण समर्पण का क्या महत्त्व है?
असमं क्षत्रमसमामनीषाप्रसोमपाअपसासन्तुनेमे।
ये त इन्द्रददुषो वर्धयन्तिमहि क्षत्रं स्थविरंवृष्ण्यंच।।
ऋग्वेदमन्त्र 1.54.8
(असमम्) असमानान्तर (क्षत्रम्) शक्ति, बल (असमा) असमानान्तर (मनीषा) बुद्धि (प्र – सन्तु से पूर्व लगाकर) (सेमपा) शुभ गुणों का संरक्षक (अपसा) गतिविधियों के साथ (कल्याण की) (सन्तु – प्र सन्तु) अत्यधिक बड़े हुए (नेमे) ये (ये) वे (ते) आपके लिए (इन्द्र) परमात्मा (ददुषो) समर्पित (वर्धयन्ति) बढ़ाते हैं (महि क्षत्रम्) महान् शक्ति, बल (स्थविरम्) पक्के स्थापित (वृष्ण्यम्) कल्याण की वर्षा (च) और।
व्याख्या:-
किसको असमानान्तर शक्तियाँ और बुद्धि प्राप्त होती हैं?
इन्द्र, सर्वोच्च ऊर्जा, परमात्मा! जो आपके प्रति पूर्ण समर्पित हैं उनके पास असमानान्तर शक्तियाँ, बल और बुद्धि होती है। शुभ गुणों के ऐसे संरक्षक ऊँचे उठे हुए होते हैं, अपने कल्याण कार्यों से बढ़ते हैं। वे अपनी महान् शक्तियों और बलों में भी बढ़ा दिये जाते हैं और वे लोगों पर कल्याण की वर्षा करने के लिए भी महान् रूप में स्थापित हो जाते हैं।
जीवन में सार्थकता: –
पूर्ण समर्पण का क्या महत्त्व है?
परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण अपनी शक्तियाँ और बल बढ़ाने का एक मजबूत आधार है। पूर्ण समर्पण का अर्थ है परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित। यह हमें अहंकाररहित और इच्छारहित बनाने में सहयोग करता है। एक बार जब हम अहंकाररहित हो जाते हैं तो हमारा समर्पण पवित्र हो जाता है और हम उस सर्वोच्च परमात्मा के और अधिक निकट हो जाते हैं।
इसी प्रकार जब हम अपने प्रयासों को अपने माता-पिता के चरण कमलों में समर्पित कर देते हैं तो हमें उनसे और अधिक प्रेम मिलता है। गुरु के प्रति समर्पण से हमें प्रेम से भरपूर अत्यधिक ज्ञान मिलता है। संगठन के उच्चाधिकारियों के प्रति समर्पण से हमें और अधिक शक्तियाँ और विश्वास प्राप्त होता है। राष्ट्र के प्रति समर्पण से हमें महान् देशभक्त और महान् नेता होने का स्तर प्राप्त होता है। अतः समानान्तर परिणाम प्राप्त करने के लिए अपने कार्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाओ।
अपने आध्यात्मिक दायित्व को समझें
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