प्रधानमंत्री मोदी के तीसरे काल की आर्थिक चुनौतियां
शिवेश प्रताप
पिछले कुछ समय से तमाम अंतरराष्ट्रीय आर्थिक पंडितों को धता बताते हुए भारत, वैश्विक अपेक्षाओं से भी उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहा है। इसी के फलस्वरुप पूरी दुनिया अब भारत को निर्विवाद रूप से सबसे तेजी से प्रगति करने वाली अर्थव्यवस्था मान चुकी है। इसी क्रम में भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने के बाद तेजी से चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। परंतु इसी के साथ अपने प्रतिस्पर्धी एवं पड़ोसी देश चीन के साथ अपनी तुलना करने पर हमें कुछ कठोर यथार्थ का भी सामना करना पड़ता है। आज नहीं तो कल वैश्विक मंच पर चीन को पछाड़ने के लिए हमें ऐसे कठोर यथार्थ को स्वीकार करते हुए उन सभी मुद्दों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है जहां हम चीन से पीछे रह गए हैं।
एक और जहां चीन का प्रति कैपिटा इनकम 12000 अमेरिकी डॉलर से अधिक है वहीं दूसरी ओर भारत का प्रति कैपिटा इनकम मात्र 2200 अमेरिकी डॉलर है। एक तरफ चीन ने अपने देश से गरीबी का उन्मूलन कर दिया है तो वहीं दूसरी ओर भारत में गरीबी एक यक्ष प्रश्न है। देश की आजादी के समय भारत की स्थिति चीन से काफी बेहतर थी, परंतु भारत के अर्थव्यवस्था के विकास में हुई कुछ भारी गलतियों के कारण हम चीन से विकास की रफ्तार में बहुत पीछे छूट गए थे जिसे पिछले 10 वर्षों के कार्यकाल में सरकार के अथक प्रयासों के बलपर बदतर होने से रोकते हुए सुधारों की प्रक्रिया प्रारम्भ हो पाई है और दुनिया उसके प्रारंभिक रुझान कुछ समय से देख रही है। परन्तु मोदी-3 के लिए भी आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियाँ कम नहीं हैं। बदलते वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में मोदी -3 सरकार को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का लक्ष्य साधने के क्रम में देश की कुछ कठिन चुनौतियों के स्थायी और ठोस समाधान की कर आगे बढ़ना होगा। आज इन्हीं चुनौतियों और समाधानों की चर्चा इस लेख में की जा रही है।
करंट अकाउंट डेफिसिट यानी चालू खाते का घाटा:
अंतरराष्ट्रीय बाजार में हर देश अपने आयात एवं निर्यात का एक खाता रखता है। यह वैसा ही है जैसे हमारा बचत खाता सभी निकासी एवं जमा पैसों का अलग अलग हिसाब रखता है। सभी आयात एवं निर्यात संबंधी गणना को बैलेंस आफ पेमेंट के नाम से जाना जाता है। इसमें दो तरह के खाता होते हैं पहले कैपिटल अकाउंट और दूसरा करंट अकाउंट के नाम से जाना जाता है। कैपिटल अकाउंट में वह सभी ट्रांजैक्शन दर्ज होते हैं जिससे किसी दीर्घकालिक एसेट या लायबिलिटी से संबंध रखते हैं। उदाहरण स्वरूप कोई कर्ज लेना एक लायबिलिटी है तो कोई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एसेट का निर्माण करता है। इसके इतर करंट अकाउंट वह खाता है जहां दर्ज किए गए ट्रांजैक्शन किसी एसेट अथवा लायबिलिटी से संबंध नहीं रखते। यह करंट अकाउंट पुनः दो भागों में विभाजित हो जाता है। पहला ट्रेड अकाउंट जिसमें सभी वस्तुएं जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, पेट्रोलियम, कृषि संबंधित उत्पाद आदि तथा दूसरे इनविजिबल अकाउंट में सेवाएं, लाभांश, दान, उपहार, ब्याज आदि को दर्ज किया जाता है। यदि करंट अकाउंट के इन्हीं ट्रेड एवं इनविजिबल खातों का कुल योग ऋणात्मक होता है तो इसे करंट अकाउंट डेफिसिट बोला जाता है।
यही करंट अकाउंट डेफिसिट भारत की लगभग एक स्थाई समस्या बन चुकी है। आसान शब्दों में भारत लंबे समय से निर्यात कम करता है और आयात अधिक करता है। हम विश्व मंच पर एक आयात प्रधान देश बन कर रह गए हैं। यद्यपि केंद्र की मोदी सरकार इस बात के लिए प्रशंसा की पात्र है कि इस क्षेत्र को गंभीरता से लेते हुए अपने दूरगामी लक्ष्य पर जिस प्रकार से कार्य कर रही है उसी का परिणाम है कि हमारा करंट अकाउंट डिफिसिट कम होने की और अग्रसर है। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के हिसाब से भारत का चालू खाता घाटा अप्रैल-सितंबर 2022 के 48.8 बिलियन डॉलर के मुकाबले आधे से अधिक घटकर वित्त वर्ष 2023-24 की पहली छमाही में 17.5 बिलियन डॉलर का हो गया। परंतु इस घाटे से उबर कर सरप्लस अकॉउंट बनने में अभी समय लगेगा।
वित्त वर्ष 2021-22 के आंकड़ों पर ध्यान दें तो भारत का ट्रेड अकाउंट 189.45 बिलियन के घाटे के साथ बंद हुआ जबकि इनविजिबल अकाउंट में 150.7 बिलियन डॉलर का सरप्लस मौजूद था। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि भारत सेवाओं के क्षेत्र में तो मजबूत स्थिति में है परंतु वस्तुओं के निर्यात में स्थिति चिंताजनक है। अब प्रश्न यह जाता है कि आखिर चालू खाता घाटा देश के विकास के लिए इतना खतरनाक क्यों है?
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी देश को व्यापार करने के लिए विदेशी या अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता की मुद्रा की आवश्यकता होती है। यदि चालू खाता सदैव घाटे में रहेगा तो अपना व्यापार बनाए रखने के लिए उसे देश को हर साल अपने फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व का उपयोग करना पड़ेगा और इस तरह से उसे देश का यह रिजर्व बेहद कमजोर हो जाएगा। और अंततः ऐसे देश दिवालिया घोषित हो जाते हैं। भारत के साथ अच्छी बात यह है कि साल दर साल हमारे चालू खाते का घाटा देश के कैपिटल अकाउंट के सरप्लस से बैलेंस हो जाता है और इस तरह से भारत का फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व लगातार मजबूत होता रहता है। परंतु कैपिटल अकाउंट को मजबूती विदेशी निवेश तथा कर्ज से मिलती है और इसलिए बहुत हद तक इस पर वैश्विक एवं घरेलू आर्थिक स्थितियों का नियंत्रण होता है। मंदी की चपेट में आते ही किसी देश का कैपिटल अकाउंट सरप्लस खत्म हो सकता है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए अत्यंत आवश्यक खनिज तेल, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण तथा प्राकृतिक गैस के आयात पर संकट उत्पन्न हो सकता है और इन पर संकट का अर्थ है देश में गंभीर स्थितियां पैदा होना। साथ ही कैपिटल अकाउंट का मूल्यवर्धन होने का अर्थ लाभ, ब्याज एवं डिविडेंड के रूप में पैसा बाहर जाना भी होता है। इसलिए कैपिटल अकाउंट के बढ़ने से विदेशी मुद्रा कोष बढ़ रहा है तो यह है तो इसे पूर्णतया स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं माना जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने वाला यह उपकरण भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है।
करंट अकाउंट डिफिसिट को कम करने के तरीके:
भारत का बड़ा ऊर्जा आयातक होना इस घाटे में बड़ा रोल अदा करता है। आज भारत अपने पूर्ण ऊर्जा आवश्यकताओं का 80% विदेश से आयात करता है। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की डाटा के अनुसार वित्त वर्ष 2020-21 में खनिज तेलों का आयात 4.59 लाख करोड़ का था। वहीं वित्त वर्ष 2021-22 में यह आंकड़ा 8.99 लाख करोड़ पर पहुंच गया। इस दबाव को कम करने के लिए जरूरी है कि भारत नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ तेजी से कदम बढ़ाए। इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए मोदी सरकार ने साल 2030 तक भारत की समस्त ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% नवीकरणीय माध्यमों से पूरा करने का लक्ष्य रखा है। मोदी सरकार देश में विद्युत चलित गाड़ियों को बढ़ावा दे रही है, सौर ऊर्जा तथा पवन ऊर्जा आधारित अवसंरचनाओं पर बड़ा निवेश किया जा रहा है। साथ ही तात्कालिक परिणाम के लिए खनिज तेलों में एथेनॉल मिश्रण को भी सरकार आगे बढ़ा रही है। इसी क्रम में सरकार द्वारा 10% एथेनॉल मिश्रण के लक्ष्य को समय से पहले पूर्ण कर लिया गया है। सरकार का लक्ष्य है कि साल 2025 तक 20% एथेनॉल मिश्रण के लक्ष्य को पूरा कर लिया जाए।
इसके अलावा स्वर्ण के आयात से भी भारत को आर्थिक हानि होती है परंतु भारतीय समाज के परंपराओं में स्वर्ण के महत्व को देखते हुए भारत सरकार आयात के लिए मजबूर होती है। सरकार द्वारा स्वर्ण के आयात पर निर्भरता खत्म करने के लिए सावरेन गोल्ड बांड जैसी योजनाओं को लाया गया है। खाद्य तेलों का आयात भी हमारे लिए आर्थिक घाटे का कारण है और यह भारत के खराब कृषि नीति एवं बाजार के समन्वय में कुप्रबंधन का एक उदाहरण है। भारत सरसों, कपास, चावल, पाम और सोयाबीन का उत्पादन बड़े पैमाने पर करने में सक्षम है जिनसे खाद्य तेल बनाए जाते हैं। परंतु न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं सरकारी खरीद का फोकस सदैव चावल एवं गेहूं तक ही सीमित रहता था। केंद्र की मोदी सरकार इस क्षेत्र में भी आत्मनिर्भर होने की ओर कदम बढ़ा रही है। इसी क्रम में सरसों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करते हुए उसके सरकारी खरीद का आश्वासन किसानों को दिया गया है।
हमारे आयात को बढ़ाने में इलेक्ट्रॉनिक कॉम्पोनेंट्स का भी बड़ा योगदान है। इस क्रम में अपनी आत्मनिर्भरता को तेजी से बढ़ते हुए मोदी सरकार ने उत्पादन आधारित इंसेंटिव योजनाएं लाकर घरेलू बाजारों में निर्माण को प्रोत्साहित करने का कार्य कर रही है। इन्हीं प्रयासों के फल स्वरुप विश्व प्रसिद्ध मोबाइल कंपनी एप्पल, चीन को छोड़कर भारत में अपने निर्माण इकाइयां स्थापित कर रही है। आर्थिक मोर्चे पर रिजर्व बैंक आफ इंडिया ने डॉलर पर अपनी निर्भरता को खत्म कर सीधे रुपए में ट्रेड को सुगम बनाने के लिए विशेष vastro खातों की व्यवस्था को प्रारंभ किया है।
असमानता, बेरोजगारी, रोज़गार एवम् कौशल गुणवत्ता की समस्या:
वैश्विक परिप्रेक्ष्य के बाद अब हम घरेलू अर्थव्यवस्था की चुनौतियों पर दृष्टि डालें तो सबसे बड़ी समस्या असमानता है। ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत को अत्यधिक आसमान देशों की लिस्ट में रखा गया है। भारत के शीर्ष 10% लोग, देश के 57 प्रतिशत संपदाओं के मालिक हैं। 50% आबादी के पास मात्र 13 प्रतिशत संपदा है। लेकिन इस असमानता की स्थिति की गहराई में जाएं तो इसके कई मूल कारण दिखाई देंगे जैसे बेरोजगारी, रोजगार की गुणवत्ता में कमी तथा कौशल विकास एवं नवाचारों में कमी।
इन विषयों को गहराई से समझने के लिए हमें भारतीय आर्थिक विकास नीति को गहराई से समझाना पड़ेगा। भारत ने देश के आजाद होने के बाद एक ऐसे मिले-जुले आर्थिक ढांचे को स्वीकार किया जिसमें सरकार अग्रणी की भूमिका में रही एवं निजी क्षेत्र को बेहद सीमित अधिकार दिए गए। सोशलिज्म के सिद्धांतों पर चलते हुए भारत सरकार आर्थिक योजनाओं के निर्माण के लिए उत्तरदाई थी एवं पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से निर्णय लिया जाता था कि देश के मानव संसाधन को किस क्षेत्र में लगाया जाएगा।
देश की आजादी के समय भारत एक कृषि आधारित देश था एवं देश की अधिकतर जनसंख्या खेती-बाड़ी के कामों में लगी रहती थी। तत्कालीन नेहरू सरकार ने विनिर्माण एवं भारी उद्योगों को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। इस निर्णय के पीछे पंडित नेहरू का विचार था कि देश के इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने के लिए भारी उद्योगों का विकास आवश्यक है। और इस तरह से इस विकास का लाभ ऊपर से नीचे की ओर स्वयं जाएगा। विकास की जी अधोमुखी अवधारणा पर नेहरू जी ने भारत के आर्थिक विकास का स्वप्न देखा उसे वास्तव में सरकार के अधिकारी नियंत्रित कर रहे थे। अंततोगत्वा भ्रष्टाचार एवं लाल फिताशाही के चलते योजना के अनुरूप लाभ कभी अंतिम व्यक्ति तक पहुंच ही नहीं सका। इसी के साथ भारी उद्योग के निर्माण में देश ने इतनी अत्यधिक पूंजी लगाई की शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्र में निवेश के लिए संसाधन बहुत कम बचे।
भारत में कौशल विकास :
आजादी के बाद बनी विकास की योजनाओं में इस बात को भुला दिया गया कि एक कृषि आधारित समाज को शिक्षा के द्वारा ही भारी उद्योग आधारित कल कारखानों में नौकरियां मिलेंगी। साथ ही कृषि जिस पर देश की अधिकतर जनता का जीवन निर्भर करता था उसे क्षेत्र को पूरी तरह से इग्नोर कर दिया गया। इसके फल स्वरुप देश के पढ़े लिखे समाज ने उद्योगों में तेजी से नौकरियां तो हथिया लिया परंतु कृषि पर जीवन ज्ञापन करने वाले लोग शिक्षा के अभाव में गरीब के गरीब बने रहे। 1980 90 के दशक में अंत सरकारों को इस भारी गलती का एहसास हुआ और कृषि को अर्थव्यवस्था का केंद्र बिंदु बनाने का निर्णय लिया गया। परंतु इस फैसले को क्रियान्वित करने के क्रम में देश लगभग 40 वर्ष पीछे चला गया। साथ ही कृषि पर जीवन यापन करने वाली एक बहुत बड़ी जनता द्वारा सरकार की योजनाओं एवं सुधारो पर से विश्वास भी उठ गया।
भारत में कौशल विकास की स्थिति एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में स्थापित है। मोदी सरकार के लगातार प्रयासों से आज भारत में एक स्टार्टअप इकोसिस्टम खड़ा हुआ है परंतु यदि फिनटेक एवं फार्मास्यूटिकल को छोड़ दिया जाए तो भारतीय नवाचारों के द्वारा कोई ऐसा क्रांतिकारी बदलाव घरेलू मार्केट में नहीं आया है जिससे इंटेल, एप्पल या गूगल जैसी क्रांति खड़ी की जा सके। भारत को नवाचारों की दिशा में अभी बहुत अधिक कार्य करने की जरूरत है। कुल मिलाकर नवाचारों की कमी कौशल विकास की कमी तथा बेरोजगारी एक दूसरे से अंतर संबंधित विषय हैं जिनका स्थाई समाधान शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में बड़े निवेश के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। मोदी सरकार के आगामी कार्यकाल में इस क्षेत्र में व्यापक बदलाव की अपेक्षा है।
अनुसंधान एवं विकास कार्यों पर खर्च:
विश्व बैंक के एक रिपोर्ट के अनुसार भारत अपनी जीडीपी का 0.66% अपने अनुसंधान एवं विकास कार्यों पर खर्च करता है जो विश्व औसत 2.63 प्रतिशत से चिंताजनक रूप से बहुत कम है। इजरायल अपने जीडीपी का 5.5% तथा अमेरिका 3.5% अनुसंधान एवं विकास कार्यों पर खर्च करता है। इन सभी समस्याओं को हल करने का रास्ता औद्योगिक विकास से होकर गुजरता है और इसलिए भारत सरकार चैतन्य होकर इस दिशा में कार्य कर रही है। इसी प्रयासों के क्रम में विश्व के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों जैसे एप्पल, लोकहिड मार्टिन, सैमसंग, एअरबस आदि भारत में अपने विनिर्माण इकाई बना रहे हैं। इन सभी के द्वारा भारत में अनुसंधान एवं विकास को गति मिलेगी। साथ ही भारत का स्टार्टअप इकोसिस्टम भी अपनी शैशव अवस्था से है जो आगामी 10 वर्षों में एक बड़े क्रांति के रूप में विश्व मंच पर दिखाई देगा। वर्तमान में ड्रोन विनिर्माण तथा अंतरिक्ष विज्ञान से संबंधित स्टार्टअप्स को सरकार द्वारा विशेष रूप से प्रमोट किया जा रहा है। परंतु सकारात्मक क्रांति के लिए भारत को अनुसंधान एवं विकास पर अपने जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने का लक्ष्य बनाना चाहिए। कौशल विकास के माध्यम से जिन नई तकनीकियों पर युवाओं को कुशल बनाने की आवश्यकता है उसमें अभी भी संयोजन की समस्याएं आ रही हैं जैसे ट्रेनिंग संस्थाओं एवं उद्योगों के बीच समन्वय न होने के कारण युवाओं को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
विश्वीकरण के नकारात्मक पहलू:
वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के कई सकारात्मक पहलू हैं जिनसे 1991 के बाद देश की आर्थिक प्रगति के साथ देशवासी रूबरू हुए। परंतु इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं जिनसे हमें समय-समय पर दो-चार होना पड़ता है। ग्लोबलाइजेशन ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को एक बड़ा उछाल तो दिया परंतु इसी वैश्वीकरण के कारण विश्व भर की अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे से जुड़ गई है तथा दुनिया के दूसरे गोलार्ध में भी कोई नकारात्मक आर्थिक गतिविधि दुनिया के सभी देशों को कमोबेश प्रभावित करता है। वर्तमान में जब विश्व के कई देश मंदी की ओर जाते दिखाई दे रहे हैं तो ऐसे भंगुर वैश्विक आर्थिक स्थितियों में यह स्थिरता भारत की आर्थिक गतिविधि के लिए एक शक्तिशाली संकट बन सकता है। वैश्विक स्तर पर एक लंबे समय के बाद आर्थिक मंदी की वापसी हुई है। भारत जैसे विकासशील देशों में सामान्य से उच्च मुद्रा स्फीति एक सामान्य घटना बनी रहती है जिसके अपने नफे नुकसान भी हैं। चिंताजनक बात यह है कि आज अमेरिका एवं यूनाइटेड किंगडम सहित यूरोप के सभी बड़े देशों में मुद्रास्फीति की स्थिति भारत जैसे विकासशील देशों से भी विकराल हो गई है। मुद्रास्फीति महंगाई को आमंत्रित करता है जिससे एक सामान्य व्यक्ति सबसे अधिक प्रभावित होता है। विश्व विकसित देशों की मुद्रा स्थिति के कारण भारत के निर्यात में एक गिरावट दर्ज की गई साथ ही आयत में बढ़ोतरी हो गई है जो चिंताजनक है। इसका सीधा सा अर्थ है कि वैश्वीकरण के इस दौर में भारत के “विश्व का कल्याण हो” की प्रार्थना की प्रासंगिकता कितनी महत्वपूर्ण है। कैसे संपूर्ण विश्व वैश्वीकरण के दौर में एक गांव बन गया है जहां सभी एक दूसरे से प्रभावित हो रहे हैं इसलिए सभी को एक दूसरे के कल्याण की बात सोचनी पड़ेगी। इसी विश्व के कल्याण के अंतर्गत रूस एवं यूक्रेन के युद्ध ने पूरे विश्व की आर्थिक मंदी के दौर में कोढ़ में खाज का काम किया है।
अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम ने आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए ब्याज दरों को बढ़ाया है जिसका प्रभाव भारत में आने वाले विदेशी निवेश पर नकारात्मक रूप से पड़ा है। साथ ही इसका दुष्प्रभाव मौद्रिक विनिमय पर भी पड़ता है और रुपया कमजोर होने लगता है। अभी हाल ही में एक्स एवं फेसबुक जैसी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर भारत में कर्मचारियों की छटनी किया है साथ ही स्टार्टअप इकोसिस्टम को भी विदेशी निवेश कम प्राप्त हो रहा है।
इन सभी जटिल परिस्थितियों में मोदी सरकार के द्वारा बहुत सूझबूझ से कदम रखते हुए “आपदा में अवसर” तथा “वोकल फॉर लोकल” का नारा दिया गया है। हमें अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्थितियां से संगरोध करने के लिए अपने घरेलू बाजारों की ओर मुड़ना होगा। वैश्विक बाजारों से आत्मनिर्भरता को कम करना होगा। निवेश के लिए आम जनता के पैसों को बैंक खातों से निकाल कर स्टॉक मार्केट तक लाना होगा जिससे विदेशी निवेशकों पर निर्भरता को निर्णायक रूप से कम किया जा सके। इसी के साथ भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन के स्थान पर नई रणनीतिक व्यवस्थाएं स्थापित करनी होगी। 21वीं शताब्दी को एशिया की शताब्दी कहा गया है तो हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस एशिया की शताब्दी का नेतृत्व भारत के हाथों में रहे। 75 वर्षों के अंतराल में हमने अपने कॉलोनाइजर को पीछे छोड़ विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनकर एक नज़ीर कायम किया है। अब हमें तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की तैयारी करना है।
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