भागवत जी की मान्यता है कि यदि मुसलमान समाज को कृष्ण भक्त रसखान और विट्ठल भक्त शेख मोहम्मद जैसे कवियों और दारा शिकोह जैसे मानवतावादी मुसलमानों के विचारों को बताया समझाया जाए तो हम भारतीय समाज को कई प्रकार की विघटनकारी शक्तियों के चंगुल से बचा सकते हैं। उनका मानना है कि यदि शिवाजी महाराज जी की सेना में मुस्लिम रहकर देश के लिए लड़ सकते हैं तो फिर किसी पर भी अविश्वास का प्रश्न ही नहीं है। यह बात इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है कि शिवाजी अपने जीवन काल में हिंदवी स्वराज्य के माध्यम से सीधे हिंदू राष्ट्र निर्माण का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहे थे। धर्म को हमें वास्तविक अर्थो में समझने की आवश्यकता है। जिस दिन धर्म का जोड़ने का वास्तविक स्वरूप लोगों की समझ में आ जाएगा उस दिन देश में सांप्रदायिक समस्या स्वयं समाप्त हो जाएगी। हमें पूजा पद्धतियों को लेकर लड़ने झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। कट्टरता का जमकर विरोध करना चाहिए। क्योंकि कट्टरता के विस्तार लेने से राष्ट्रीय समस्याएं अपने भयावह स्वरूप में प्रकट होती हैं। जिससे मानव समाज को कष्ट झेलने पड़ते हैं। हम अपने मौलिक स्वरूप में हिंदू राष्ट्र हैं। इसके लिए हमें चीजों को व्यापक स्तर पर बदलने की आवश्यकता नहीं है। कुछ संकीर्णताओं को छोड़ने की आवश्यकता है । जैसे ही संकुचित दृष्टिकोण को छोड़ा जाएगा चीजें अपने आप ठीक होने लगेंगी। इस प्रकार के संकुचित दृष्टिकोण को छोड़ने के लिए किसी को लाठी से सीधा नहीं किया जा सकता। इसके लिए सही रास्ता है हृदय परिवर्तन करना। लोगों के भीतर केवल एक भाव होना चाहिए कि हम हिंदू हैं। हमारी पूजा पद्धति अलग हो सकती है परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हमारा हिंदू स्वरूप समाप्त हो गया। हिंदू होने का अभिप्राय भारतीय होने से है । इसे अपनी राष्ट्रीय पहचान के रूप में स्वीकृति देने की आवश्यकता है।
भारत ने इस्लाम को मानने वाले लोगों को अपनी मजहबी रवायतों को पालन करने की पूरी छूट दी है। कई ऐसी चीजें हैं जो भारत के बाहर इस्लामिक कंट्रीज में भी अपनाई जानी संभव नहीं हैं। पर वह भारत में होती देखी जाती हैं। यही भारत की खूबसूरती है। यही भारत के लोकतंत्र की महानता है और यही हमारे भारतीय संस्कारों की पवित्रम विरासत है। मोहन भागवत जी का कहना है कि ‘मुसलमान होने के बाद भी हमारे पास कव्वाली क्यों है जो अन्य इस्लामिक देशों में नहीं चलती? अखंड भारत की सीमा के बाहर क़व्वाली आज भी नहीं चलती है। कब्र- मजारों की पूजा अन्य जगह नहीं चलती है। पैगंबर साहब का जन्मदिन ईद-ए-मिलाद-उन-नबी वह सेलिब्रेशन के रूप मेंअखंड भारत की सीमा में ही चलता है।’
इस प्रकार की लोकतांत्रिक परंपराओं का पालन करना ही श्री राम की विरासत है । यदि आज हम श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने में सफल हुए हैं तो इस मंदिर से हम राष्ट्र निर्माण के लिए इसी प्रकार का संदेश देना चाहते हैं। धर्म की पवित्रता को सर्वत्र मान्यता मिलनी चाहिए । अधर्म कहीं पर भी नहीं होना चाहिए।
अधर्म , अनैतिकता और अपवित्रता के विरुद्ध ही श्री राम ने संघर्ष किया था । उनका वह शाश्वत संघर्ष आज भी दानवीय शक्तियों के विरुद्ध जारी है। देवता और दैत्यों का संघर्ष भारत की प्राचीन संस्कृति का एक अविभाज्य अंग है । यह सनातन में शाश्वत चलता रहता है। सनातन इस प्रकार के संघर्ष में देवताओं के साथ खड़ा दिखाई देता है और सत्यमेव जयते की बात कह कर अंत में देवताओं की ही विजय होगी – ऐसा मानकर चलता है। आज के भारत के युवा वर्ग को इसी दिशा में कार्य करना चाहिए। सत्यमेव जयते कहना भारत की ऋषि परंपरा का पालन करना है। रामचंद्र जी के आदर्श जीवन को अंगीकार करना है। वेदों की आदर्श व्यवस्था को लागू करना है। इस उद्घोष से भारत विश्व को भी यह संदेश देने की क्षमता रखता है कि संसार की आसुरी शक्तियां देवताओं के साथ चल रहे संघर्ष में कभी भी सफल नहीं हो सकतीं। आज के युवा वर्ग को भारत को समझने के लिए विशेष परिश्रम और अध्ययन करने की आवश्यकता है। वह जितना ही अधिक भारत को समझेगा ,उतना ही वह भारत के लिए उपयोगी सिद्ध होता जाएगा।
रामराज्य की संकल्पना और और उसे वर्तमान में किस प्रकार लागू किया जा सकता है ? इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए मोहन भागवत जी का कहना है कि जनता नीतिमान और राजा शक्तिमान और नीतिमान इस प्रकार की वो व्यवस्था थी। जनता के सामने राजा नम्र था और राजा की आज्ञा में जनता थी,यानी लोगों की चलेगी या राज्य की चलेगी ऐसा सवाल नहीं था। राजा कहता था जैसा लोग कहेंगे वैसा होगा और समाज कहता था कि राजा को सब पता है वह जो कहेगा वैसा होगा। मुख्यत: चोरी-चपाटी की बातें नहीं थी। नीतिमानता थी, उद्योग-परिश्रम की कीमत थी। श्रम को आदर और सम्मान दिया जाता था और अपने परिश्रम से जीने की युक्ति थी। अत: समृद्धि थी। भरपूर लक्ष्मी थी और धन का व्यय धर्म के लिए होता था, भोग के लिए नहीं। जितने भोग आवश्यक थे वह सब दिए जाते थे। जहां-जहां आवश्यकता है वहां थोड़ा बहुत जीवन रंगबिरंगा हो इसलिए साज-सज्जा भी रहती थी। …..इस प्रकार का जनजीवन अपने को समझने वाला, अनुशासित, संयमित,जागरूक, संगठित और राजा धर्म की रक्षा करने वाला और स्वयं धर्म से चलने वाला, नियमों का पूर्ण पालन करने वाला, सत्ता को प्रतिष्ठा मानकर उसका उपयोग जनहित के लिए करने वाला था। यानी राजा बोल रहा था कि राज्य आपका है आप करो। पिताजी के मन में भी यही था पर माताजी के कारण राम को जंगल में भेज दिया। वे चले भी गए। भरत ने कहा मुझे राज्य मिला। माताजी का भी आग्रह छूट गया। अब मैं आपको कह रहा हूं वापस चलो। पर राम जी कहते हैं नहीं, मैंने वचन दिया है। यह दोनों सत्ताधारी हैं लेकिन राज्य का लालच किसी को भी नहीं है। आखिर भरत को वापस जाना पड़ा तो राम की पादुका को सिंहासन पर बिठाया। तो राजा ऐसे और प्रजा ऐसी – यह रामराज्य था। व्यवस्थाएं आज बदल गई हैं। लेकिन लोगों की नियत-नीति, भौतिक अवस्था, राजा की नियत-नीति और भौतिक अवस्था यानि राज्य शासन में जितने भी लोग हैं और इस बीच जो प्रशासन है यह तीनों की जो गुणवत्ता (क्वालिटी) है। वह गुणवत्ता हमको फिर से लानी पड़ेगी। उस क्वालिटी को रामराज्य कहते हैं।
उसके परिणाम यह है कि रोग नहीं रहते, असमय मृत्यु नहीं होती, कोई भूखा नहीं, कोई प्यासा नहीं, कोई भिखारी नहीं, कोई चोर नहीं, कोई दंड देने के लिए नहीं तो फिर दंड क्या करें। यह सारी बातें परिणाम स्वरूप है क्योंकि उसके मूल में राज्य व्यवस्था-प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक संगठन इन तीनों की एक वृत्ति है।’
(“विवेक” हिन्दी मासिक पत्रिका के साथ भागवत जी के साक्षात्कार से उद्धृत)
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
मुख्य संपादक, उगता भारत