ओ३म् “मनुष्य जाति का महान गुरु एवं सच्चा हितैषी ऋषि दयानन्द सरस्वती”
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
परमात्मा ने 1.96 अरब वर्ष पूर्व इस संसार को बनाया था और तब से इसे चला रहा है। वह कभी सोता व आराम नहीं करता। यदि करता होता तो बहुत पहले इस संसार की प्रलय हो जाती। वह यह सब त्याग व पुरुषार्थ स्वाभाविक रूप से संसार के प्राणियों के लिये करता है। परोपकार का यह सबसे बड़ा उदाहरण है। इस संसार में अनादि व अमर जीवात्मायें मनुष्यों सहित अनेक प्राणी योनियों में जन्म लेती और मृत्यु को प्राप्त होती रहती हैं। हमारा यह जन्म क्यों हुआ, हमें क्या करना है, मनुष्य जीवन का सदुपयोग कैसे किया जा सकता है, आदि अनेक प्रश्न हैं जिनका समुचित व सन्तोषजनक उत्तर हमें संसार में प्रचलित शिक्षा सहित मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होता। ऋषि दयानन्द के जन्म के समय भी देश की यही स्थिति थी। देश अविद्या, अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों सहित अनेक प्रकार के दोषों से युक्त था। हिन्दू जाति अंग्रेजों की गुलाम बनी हुई थी। इससे पूर्व देश के अनेक भागों पर मुसलमानों ने भी राज किया था और देश की हिन्दू जनता के प्रति अन्याय व शोषण सहित उस पर अनेकानेक अत्याचार किये थे। इसका कारण देश की आर्य हिन्दू जाति में अज्ञानता व अन्धविश्वासों सहित वेद प्रचारित संगठित रहने की भावना का अभाव था।
हमारे देश के धार्मिक व सामाजिक नेताओं को अपनी जाति की दुर्दशा का कारण ज्ञात नहीं था। दिन प्रति-दिन अन्धविश्वास व कुरीतियां बढ़ती जाती थी और आर्य हिन्दू जाति नये-नये दुःखों व कष्टों में फंसती जाती थी। ऋषि दयानन्द को 14 वर्ष की आयु में बोध प्राप्त हुआ था। यह बोध था कि मन्दिर की मूर्ति जिसकी आर्य हिन्दू जाति पूजा अर्चना करती है, वह यथार्थ रूप में दिव्य शक्तियों से युक्त ईश्वर व चेतन देवता नहीं है। उस प्रकार मूर्तिपूजा करने से मनुष्य को कुछ प्राप्ति व लाभ नहीं होता अपितु अनेक हानियां होती हैं। बालक दयानन्द को मूर्तिपूजा की उपयोगिता व विशेषता से संबंधित अपने प्रश्नों के उत्तर न मिलने पर उन्होंने इसका त्याग कर दिया था। ऋषि दयानन्द को अपनी बहिन व चाचा की मृत्यु होने पर वैराग्य भी हो गया था। वह मृत्यु पर विजय प्राप्त करना चाहते थे। घर का वातावरण इस कार्य को घर पर रहकर करने के लिये अनुकूल नहीं था। इसके लिये आत्मा तथा जीवन से सम्बन्धित रहस्यों का अध्ययन करना आवश्यक था। इस कारण उन्होंने अपने पितृ गृह का त्याग किया। इसके बाद उन्होंने संन्यासी बनकर अनेक वर्ष देश के विद्वानों, साधु-संन्यासियों तथा योगियों की संगति में बिताये और उनसे सद्ज्ञान की शिक्षा ली। लगभग 13 वर्ष तक निरन्तर ईश्वर, जीवात्मा तथा सत्य ज्ञान का अनुसंधान करने पर वह एक सिद्ध योगी तो बन गये थे परन्तु अभी विद्या प्राप्ति की उनकी अभिलाषा पूरी नहीं हुई थी।
ऋषि दयानन्द विद्या प्राप्ति के लिये उस समय के देश के सर्वोच्च विद्वान व गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी के पास मथुरा पहुंचे थे और लगभग तीन वर्ष तक उनके सान्निध्य में रहकर उनसे वेदों की संस्कृत भाषा के आर्ष व्याकरण का अध्ययन किया था। अध्ययन पूरा होने पर उन्हें अपने गुरु से प्रेरणा मिली थी कि हमारा देश व संसार अविद्या व अन्धविश्वासों से ग्रस्त है। लोग ईश्वर व आत्मा का सच्चा स्वरूप तथा अपने कर्तव्यों को नहीं जानते थे। योग्य गुरुओं के न होने के कारण मनुष्यों का जीवन वृथा हो रहा है। इसके लिये आवश्यक था कि सत्य ज्ञान का प्रचार किया जाये। गुरु विरजानन्द ने ऋषि दयानन्द को अविद्या का नाश करने और विद्या की वृद्धि करने की योजना बताई थी। अपने जीवन में नेत्र दृष्टि के अभाव में स्वामी विरजानन्द जी अपना मनोरथ सिद्ध नहीं कर सके थे। उन्हें ऋषि दयानन्द जैसे एक योग्य शिष्य की आवश्यकता थी जो उनके स्वप्नों को साकार करे। अतः गुरु विरजानन्द ने अपने शिष्य की विद्या पूरी होने पर देश-देशान्तर से अविद्या को दूर करने का परामर्श दिया था जिसे कृतज्ञ शिष्य दयानन्द ने सहर्ष स्वीकार किया था। इस गुरु शिष्य वार्तालाप व दयानन्द जी द्वारा उसके पालन से भारत वा आर्यावर्त देश का सौभाग्य उदय हुआ था। इसके बाद भारत देश दिन प्रतिदिन ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ता रहा है और इसके साथ अन्धविश्वासों व वेदविरुद्ध हानिकारक सामाजिक प्रथाओं से मुक्त होता गया। देश की आजादी की प्राप्ति सहित श्रेष्ठ मानव समाज के निर्माण की दिशा में भी देश ऋषि दयानन्द के विचारों से लाभान्वित होकर आगे बढ़ता रहा।
ऋषि दयानन्द ने सत्य की खोज की और धार्मिक ग्रन्थों तथा सच्चे विद्वानों के उपदेशों सहित चिन्तन, मनन, ध्यान तथा समाधि से देश की दुर्दशा व परतन्त्रता आदि के कारणों पर विचार किया। उन्होंने पाया कि इसका कारण हमारी अविद्या, अन्धविश्वास व सामाजिक परम्परायें हैं जो वेदों के विरुद्ध तथा अन्धविश्वासों पर आधारित हैं। इन्हें दूर करने का तात्कालिक उपाय यही था कि देश के शिक्षित लोगों को सत्योपदेश देकर जागृति उत्पन्न की जाये। स्वामी दयानन्द ने देश के कुछ राजाओं को, जो कुछ सीमा तक स्वतन्त्र थे, उनके राज्यों यथा उदयपुर, जोधपुर, शाहपुरा आदि में जाकर वेदों की दुन्दभी को बजाया, उन्हें सदुपदेशों से उपकृत किया और लोगों की सभी प्रकार की शंकाओं का समाधान किया। ऋषि दयानन्द ने देश की जनता को ईश्वर की प्राप्ति की विधि ‘‘सन्ध्या पद्धति” व यज्ञ पद्धति से भी अवगत कराया। उनकी बातों व उपदेशों का लोगों के हृदयों पर प्रभाव पड़ता था और वह निःशंक, निरुत्तर एवं उनके विचारों के विश्वासी हो जाया करते थे। समय के साथ ऋषि दयानन्द की देश के अनेक भागों की धर्म प्रचार यात्राओं सहित उनके कार्यों में भी विस्तार होता गया। वह उपदेशों के साथ लोगों का शंका समाधान भी करते थे और विपक्षियों को शास्त्रार्थ की चुनौती भी देते थे। उनका दिनांक 16-11-1869 का काशी शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है जो उन्होंने अकेले काशी के लगभग 30 शीर्ष पण्डित व विद्वानों से मूर्तिपूजा के वेद विहित न होने पर तथा तर्क से भी असिद्ध होने के समर्थन में किया था।
संसार में हम यह नियम देखते हैं कि किसी विषय पर चर्चा कर जो बात अकाट्य व हितकारी सिद्ध होती है उसे लोग तत्काल स्वीकार कर लेते हैं। यह तभी सम्भव होता है कि जब लोग पक्षपातरहित, राग व द्वेष से रहित, अज्ञान से रहित तथा सत्य के आग्रह से युक्त हों। हमारे देश में ऋषि दयानन्द ने सभी पौराणिक सनातनी पण्डितों व विद्वानों को शास्त्रार्थ और तर्क युद्ध में पराजित किया परन्तु आश्चर्य है कि इस देश के पण्डितों ने ईश्वर, वेद, ऋषि दयानन्द तथा शास्त्रों की सत्य बातों को स्वीकार नहीं किया। यही प्रकृति व स्वभाव हमारे देश का महाभारत के बाद से पतन का कारण बना और आज भी बना हुआ है। आज से पूर्व वेद प्रचार और वैदिक मान्यताओं के पोषण एवं धारण की जितनी आवश्यकता थी उससे कहीं अधिक आज है। यदि समय रहते हमने सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग अर्थात् वेदों की मान्यताओं का ग्रहण एवं उन्हें धारण नहीं किया तो हम अपनी अस्मिता वा अस्तित्व अर्थात् वैदिक धर्म तथा वैदिक संस्कृति को खो देंगे। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने ऋषि सन्तान-हिन्दुओं को चेताया था और हम भी उनकी बातों को दोहरा रहे हैं। यह हमारा कर्तव्य भी है। मानना या न मानना हमारे बन्धुओं के अपने विवेक पर है।
ऋषि दयानन्द ने वेदों का सम्पूर्ण ज्ञान हमें सुलभ कराया है। वेद ही मनुष्यों का परमधर्म है। वेदों में सब सत्य विद्यायें बीज रूप में हैं। हमारा जीवन के सभी कार्य वेद के अनुकूल व वेद के विचारों से पुष्ट होने चाहिये। इसी से हमारा व विश्व का कल्याण होगा। संसार में कई शताब्दियों से हिंसा का जो दौर चल रहा है वह बन्द व कम होगा। ऋषि दयानन्द के समय में देश में कन्याओं व बालकों के शिक्षणालय नाम मात्र थे। इनके न होने से भी हमारा सामाजिक पतन वृद्धि को प्राप्त हो रहा था। ऋषि दयानन्द ने जहां शिक्षा व विद्या के विस्तार की प्रेरणा हमें की वहीं उनके शिष्यों पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, सर्वस्व त्यागी महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय जी आदि ने डी.ए.वी. स्कूल व कालेज स्थापित कर देश से अज्ञान व अविद्या को नष्ट व कम किया था। गुरुकुलों के स्थापना होने से देश में वेद, धर्म-शास्त्रों सहित वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा हुई है। देश से बाल विवाह तथा बेमेल विवाह का कलंक मिटा है। कम आयु की विधवाओं के पुनर्विवाह होने आरम्भ हुए। सभी जातियों के लोग कुएं पर मिलकर जल ले सकते हैं, छुआछूत मिटा है, अन्तर्जातीय विवाह होने आरम्भ हुए तथा जन्मना जातिवाद भी ढीला पड़ा है। ऋषि दयानन्द के कारण ही स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार मिला है। आर्यसमाज ने हमारे शूद्र परिवारों के अनेक बन्धुओं को वेदों का विद्वान तथा आर्यसमाज का पुरोहित बनाया है। यह एक उपलब्धि ही आर्यसमाज की महान् उपलब्धि है।
ऋषि दयानन्द की कृपा से ही हमें वेदों के सत्य अर्थ मिले। वेदों का संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य मिला। हमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, पंचमहायज्ञविधि, आर्याभिविनय, गोकरुणानिधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला जैसे ग्रन्थ मिले। आज हमें सरल हिन्दी भाषा में उपनिषद, दर्शन तथा मनुस्मृति सहित रामायण एवं महाभारत ग्रन्थों पर हिन्दी टीकायें उपलब्ध हैं। साधारण हिन्दी पठित व्यक्ति भी इन शास्त्रीय ग्रन्थों के मर्म को जान सकता है। आर्यसमाज ने अवतारवाद, फलित-ज्योतिष तथा मृतक श्राद्ध को भी शास्त्र विरुद्ध सिद्ध किया है। ऐसे अनेकानेक काम आर्यसमाज ने किये है। हैदराबाद के निजाम के विरुद्ध हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों को बहाल करने के लिये सत्याग्रह किया और उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता सुलभ करायी। इन कामों से ऋषि दयानन्द न केवल भारतीय हिन्दुओं के अपितु समस्त विश्व के गुरु, हितैषी, नेता, पथप्रदर्शक, सच्चे मूर्तदेवता तथा भारत माता के प्रशंसनीय पुत्र सिद्ध होते हैं। हमें, हमारे समाज व देश को आर्यसमाज की शिक्षाओं की उपेक्षा महंगी पडे़गी। इसलिये चेतावनी के रूप में हम निवेदन करते हैं कि सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों सहित ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र पढ़कर उनकी सद्शिक्षाओं को जानें, समझें और उन्हें ग्रहण करें तथा विपक्षियों व विरोधियों के आक्रमणों से स्वयं को बचाने व उनका वैचारिक उत्तर देने के लिये तत्पर हों। ऐसा कर ही हम अपनी प्राचीनतम सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा कर पायेंगे। ऋषि दयानन्द देश के सच्चे युगपुरुष व महान्-पुरुष हैं। हमें उनके सम्मुख नतमस्तक होकर उनके बताये मार्ग को अपनाना है। इसी में मानव जाति का हित निहित है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला