देवयज्ञ का अर्थ है अग्निहोत्र और विद्वानों का संग एवं सेवा आदि | अग्निहोत्र का समय सूर्योदय के पश्चात् सूर्यास्त के पूर्व है | अग्निहोत्र के लिए निम्न उपकरणों की आवश्यकता है-
१. एक धातु अथवा मिट्टी की चौकोर वेदी इस प्रकार बनवा लें कि ऊपर जितनी चौड़ी हो उतनी ही गहरी हो, परन्तु नीचे का तल चतुर्थांश=चौथाई हो |
२. अग्निहोत्र के लिए चन्दन, बड़,पलाश वा आम्र आदि श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े वेदी के परिमाण से छोटे-बड़े काट लिये जाएँ |
३. घृत रखने का पात्र और चमचा, सामग्री के लिए तश्तरियाँ, आचमन-पात्र आदि जुटा लिये जाएँ | ये पात्र- सोने, चाँदी, ताँबे अथवा काष्ठ के हों |
इस तैयारी के पश्चात् ‘पञ्चमहायज्ञविधि’ में लिखे, सूर्योज्योति…… इत्यादि मन्त्रों से प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुतियाँ देनी चाहिएँ | एक आहुति का परिमाण न्यून-से-न्यून छह-छह माशे घृतादि होना चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है | यदि अधिक आहुति देनी हों तो ‘विश्वानि देव’ और ‘गायत्री-मन्त्र’ से दे लें| ब्रह्मचारियों के लिए केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र ही करना होता है | शेष तीन महायज्ञों का विधान ब्रह्मचारी के लिए नहीं है|
यज्ञ के लाभ
प्रश्न- यज्ञ से क्या लाभ हैं?
उत्तर- सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है |
प्रश्न- चन्दनादि घिस के किसी के लगावे या घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो, अग्नि में डालकर व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं |
उत्तर- जो तुम पदार्थ-विद्या जानते तो ऐसी बात कभी नहीं कहते, क्योंकि किसी भी द्रव्य का अभाव कभी नहीं होता | देखो! जहाँ हवन होता है वहाँ से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी, इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो तथा फैल कर वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृति करता है |
प्रश्न- जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इत्र आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा |
उत्तर- उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि दुर्गन्धयुक्त गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु का प्रवेश करा सके, क्योंकि उसमें भेदक शक्ति नहीं होती | यह अग्नि का ही सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्ध युक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकालकर पवित्र वायु का प्रवेश कर देता है |
प्रश्न- मन्त्र पढ़कर यज्ञ करने का क्या प्रयोजन है?
उत्तर- मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने के लाभ विदित हो जाएँ और मन्त्रों की आवृति होने से कण्ठस्थ रहें | वेद-पुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षण भी हो |
प्रश्न- क्या यज्ञ न करने से पाप भी होता है?
उत्तर- हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न होके वायु और जल को बिगाड़कर रोगोत्पत्ति का कारण होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है, अतः उस पाप के निवारणार्थ उतना वा उससे अधिक सुगन्ध वायु और जल में फैलाना चाहिए | खिलाने-पिलाने से एक व्यक्ति को लाभ होता है | जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है, परन्तु यदि लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खाएँ तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके | इससे अच्छे पदार्थ खिलाना-पिलाना भी चाहिए, परन्तु उससे होम अधिक करना चाहिए | इसलिए प्राचीन आर्य शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे-महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे | जबतक होम करने का प्रचार रहा तबतक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए |
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