राम मंदिर और संघ की राष्ट्रवादी चिंतनधारा
17 मार्च 2024 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक संपन्न हुई। जिसमें एक प्रस्ताव राम मंदिर निर्माण के संदर्भ में पारित किया गया।इस प्रस्ताव में राम मंदिर निर्माण के बाद अयोध्या में संपन्न हुए प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम की सराहना करते हुए कहा गया कि श्री अयोध्या धाम में प्राण प्रतिष्ठा के दिन धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक जीवन के संपूर्ण क्षेत्र के शीर्ष नेतृत्व के साथ-साथ सभी धर्मों, संप्रदायों और परंपराओं के श्रद्धेय संतों की गरिमामय उपस्थिति देखी गई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधियों की दृष्टि में यह संगठन आज भी देश में सांप्रदायिकता की आग लगने वाला संगठन माना जाता है। पर याद रहे कि आरएसएस के विरोधी लोग देश में छद्म धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण के समर्थक लोग हैं। जिन्हें किसी भी गैर हिंदू संप्रदाय की सांप्रदायिकता में कोई हिंसा दिखाई नहीं देती । यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी संप्रदाय की हिंसा संबंधी अवधारणा, सिद्धांतों, मान्यताओं ,विचारधारा और तत्संबंधी बनाई जा रही योजना को उजागर करता है तो उन आलोचक लोगों की दृष्टि में यह इस संगठन का एक बड़ा अपराध है । जबकि देश का राष्ट्रवादी समाज अब यह स्पष्ट रूप से मानने लगा है कि देश की संस्कृति को बचाए रखने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विशेष और महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राम मंदिर निर्माण को राष्ट्र निर्माण के साथ जोड़कर देखा। जब इस मंदिर का निर्माण पूर्ण हुआ तो इस राष्ट्रवादी संगठन ने अपने उक्त प्रस्ताव में यह स्पष्ट किया कि “यह श्री राम के मूल्यों पर आधारित सामंजस्यपूर्ण और संगठित राष्ट्रीय जीवन के निर्माण के लिए माहौल बनाने की ओर इशारा करता है। यह भारत के राष्ट्रीय पुनरुत्थान के गौरवशाली युग की शुरुआत का भी संकेत है, ”
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने श्री राम को भारतीय चेतना का प्रतीक पुरुष स्वीकार किया और इसी रूप में उन्हें स्थापित करने के लिए संघर्ष किया। वास्तव में किसी भी प्रगतिशील और चेतनशील समाज और राष्ट्र के पास कोई ना कोई ऐसा चेतन पुरुष राष्ट्र पुरुष के रूप में (शाश्वत और सनातन बने रहकर) होना चाहिए जो उसे युग युगांत तक नवचेतना से भरने की क्षमता रखता हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने श्री राम जी को इसी रूप में देखा। श्री राम नाम के घाट पर भारत का बहुत बड़ा वर्ग एक साथ आकर बैठ सकता है । एक साथ पानी पी सकता है। एक साथ भोजन कर सकता है । श्री राम के नाम में यह बहुत बड़ी ताकत है जो हमें राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के संदर्भ में भुनानी चाहिए। इसी को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सक्रिय हुआ।
श्री राम जी के भव्य और दिव्य व्यक्तित्व की ओर संकेत करते हुए संघ ने अपने उक्त प्रस्ताव में स्पष्ट किया कि “श्री राम जन्मभूमि पर रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के साथ, समाज विदेशी शासन और संघर्ष के काल में उत्पन्न आत्मविश्वास की कमी और आत्म-विस्मृति से बाहर आ रहा है। हिंदुत्व की भावना में डूबा पूरा समाज अपने ‘स्व’ को पहचानने की तैयारी कर रहा है और उसके अनुसार जीने के लिए तैयार हो रहा है।’
वास्तव में किसी भी राष्ट्र को जब उसका स्वबोध हो जाता है तभी वह एक राष्ट्र के रूप में संगठित होकर आगे बढ़ता है। स्वबोध के बिना किसी भी राष्ट्र की राष्ट्र के रूप में प्रगति और उन्नति संभव नहीं है। पूर्ण समृद्धि प्राप्ति के लिए स्वबोध आत्मबोध की उस पराकाष्ठा तक ले जाता है जिसमें व्यक्ति पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करते हुए अपने आत्मा और परमात्मा के साथ तारतम्य स्थापित कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। हिंदुत्व मूल रूप में उस वैदिक आर्य विचारधारा का प्रतिनिधि शब्द है जिसमें व्यक्ति अपनी इसी उच्चता को प्राप्त करने के लिए जीवन को स्वतंत्रता पूर्वक भोगने के लिए पैदा होता है। यदि उस पर किसी भी प्रकार का अंकुश या प्रतिबंध किसी भी ओर से लगता है या अनुभव होता है तो समझिए कि उसकी स्वाधीनता खतरे में है। श्री राम का भव्य व्यक्तित्व हिंदुत्व का स्वबोध कराने की ही क्षमता नहीं रखता बल्कि इससे आगे बढ़कर मानव मात्र को भी स्वबोध कराने की क्षमता रखता है।
आर्य वैदिक विचारधारा में राष्ट्र हमारी उस सामूहिक चेतना का नाम है जो हम सबको संरक्षित रखने की क्षमता रखती है। इसकी रक्षा के लिए बलिदानों की आवश्यकता होती है। इन बलिदानों को व्यक्ति और पूरा समाज सामूहिक रूप से देने के लिए भी उठ खड़ा होता है। जब इस प्रकार के बलिदानों की झड़ी लगती है तो राष्ट्र की फसल लहलहाती है, बचती है, सुरक्षित रहती है। भारत के इतिहास में बलिदानों की लंबी श्रृंखला का मिलना इसी बात का प्रमाण है कि भारत के लोगों में स्वबोध कूट-कूट कर भरा रहा। राम के शासन के आदर्श ने राम राज्य के रूप में विश्व इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की है। जिसके चलते यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री राम के आदर्श सार्वभौमिक और शाश्वत हैं।
जब विश्व में अनेक संप्रदायों ने जन्म लिया और उन्होंने संपूर्ण वैश्विक धरातल से वैदिक विचारधारा को नष्ट करने का संकल्प लेकर रक्तपात करना आरंभ किया तो इसका सबसे अधिक घातक प्रभाव वैदिक विचारधारा पर ही पड़ा। हिंदुत्व ने जमकर इस रक्तपात की विचारधारा का सामना किया बहुत भारी क्षति उठाने के उपरांत आज वैदिक विचारधारा की प्रतिनिधि हिंदुत्व की विचारधारा कुल मिलाकर सिमटकर केवल भारतवर्ष में ही रह गई है। इस विचारधारा को सुरक्षित रखने के लिए भारतवर्ष ही नहीं बल्कि मानवता की अंतरात्मा भी पुकार रही है। तभी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने उपरोक्त प्रस्ताव में यह भी स्पष्ट किया कि, “जीवन मूल्यों में गिरावट, मानवीय संवेदना में गिरावट, बढ़ती विस्तारवादी हिंसा और क्रूरता आदि की चुनौतियों का सामना करने के लिए राम राज्य की यह अवधारणा पूरी दुनिया के लिए आज भी अनुकरणीय है।”
प्रतिनिधि सभा ने प्रस्ताव के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मौलिक विचारधारा और चिंतन को भी स्पष्ट किया -‘पूरे समाज को भगवान राम के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेना चाहिए ताकि राम मंदिर के पुनर्निर्माण का उद्देश्य सार्थक हो सके।’
इस कथन से स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश में आग लगाने या किसी संप्रदाय विशेष को अपने निशाने पर लेने के लिए राम मंदिर के लिए संघर्षरत नहीं रहा है , इसके विपरीत वह राम के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेने के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को प्रेरित करना अपनी जिम्मेदारी मानता है। इससे भारत में वास्तविक सामाजिक सद्भाव की पुनर्स्थापना करने में सहायता प्राप्त होगी। इसके साथ ही साथ विश्व मंचों पर भी भारत की बात को स्पष्टता के साथ कहा जा सकेगा। जिससे ‘विश्व एक परिवार’ की पवित्र भावना को स्थापित करते हुए भारत के ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के आदर्श को वैश्विक मान्यता दिलाने के लिए ठोस प्रयास किये जा सकेंगे।
अपनी इस धारणा और चिंतन को स्पष्ट करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मान्यता रही है कि “श्री राम के जीवन में परिलक्षित त्याग, स्नेह, न्याय, वीरता, सद्भावना और निष्पक्षता आदि जैसे धर्म के शाश्वत मूल्यों को फिर से समाज में स्थापित करना आवश्यक है। सभी प्रकार के आपसी कलह और भेदभाव को मिटाकर सद्भाव पर आधारित पुरुषार्थी समाज का निर्माण ही श्री राम की सच्ची पूजा होगी।”
इस सारे उद्धरण में ‘पुरुषार्थी समाज’ शब्द विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वास्तव में भारत विश्व गुरु इसीलिए रहा कि इसने प्राचीन काल से ही आश्रम व्यवस्था के माध्यम से पुरुषार्थी समाज का निर्माण करने को प्राथमिकता दी थी। निकम्मा, आलसी, प्रमादी और दूसरों का हक मार कर खाने वाले भ्रष्टाचारी समाज की कल्पना तक भी हमारे ऋषियों ने नहीं की थी। आश्रम शब्द का अभिप्राय ही यह है कि इसमें श्रम ही श्रम है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि आश्रम व्यवस्था पुरुषार्थी समाज की स्थापना का संकल्प है । इसे भारत की संस्कृति का एक मूलभूत सिद्धांत या मूल्य भी कहा जा सकता है। इसी को स्थापित करना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी प्राथमिक मानता है।
प्रस्ताव के अंत में कहा गया है कि ‘अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा सभी नागरिकों से एक ऐसे “सक्षम भारत” के निर्माण का आह्वान करती है जो भाईचारा, कर्तव्य चेतना, मूल्य आधारित जीवन और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करता हो, जिसके आधार पर देश सार्वभौमिकता सुनिश्चित करने वाली वैश्विक व्यवस्था को बढ़ावा देने में प्रमुख भूमिका निभा सके।’
इस संकल्पना प्रस्ताव में एक-एक शब्द का चयन बहुत सोच समझकर किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मौलिक विचारधारा पूर्णतया राष्ट्रपरक है। जिसके माध्यम से भारत को विश्व गुरु बनाने का रास्ता निकलता दिखाई देता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं। )