महाभारत के कर्ण*–भाग-2
डॉ डी के गर्ग
5.कर्ण को सूर्य पुत्र क्यों कहा?
माता कुंती ने करूड़ ऋषि के आश्रम में विद्या अध्ययन किया था। श्वेत मुनि भी अपने समय के एक महान ऋषि हुए हैं। जिन दोनों के संयोग से कर्ण पैदा हुआ था। सामाजिक लोक लिहाज के कारण कुंती ने कर्ण को गंगा नदी के मार्ग द्वारा यात्रा करके श्वेत मुनि के आश्रम में छोड़ दिया जहां कर्ण की शिक्षा-दीक्षा हुई और कर्ण महान योद्धा, दानवीर, महा तेजस्वी विद्वान बना।इस आलोक में कर्ण को सूर्य पुत्र के नाम से उद्बोधन किया गया।
कर्ण को सूर्य का जैविक पुत्र कहना मूर्खता है,असभ्यता भी।सूर्य जड़ है जिसमे ईश्वर की कृपा से प्रकाश देने वाली ऊर्जा है और पृथ्वी पर ऊर्जा ,प्रकाश देता है ।पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है। इसलिए सूर्य को बनाने वाले ईश्वर का एक अन्य गौणिक नाम सूर्य भी है।सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड हैं। और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हजार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है जो परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता हैं।
सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है, जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है।
वेदो मे सूर्य ईश्वर को कहा गया है- ‘सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’
इस यजुर्वेद के वचन से जो जगत् नाम प्राणी, चेतन और जंगम अर्थात् जो चलते-फिरते हैं, ‘तस्थुषः’ अप्राणी अर्थात् स्थावर जड़ अर्थात् पृथिवी आदि हैं, उन सब के आत्मा होने और स्वप्रकाशरूप सब के प्रकाश करने से परमेश्वर का नाम ‘सूर्य्य’ है।
6.महाभारत में कर्ण को विद्या न सिखाने और परशुराम द्वारा श्राप का स्पष्टीकरण—
द्रोणाचार्य ने कर्ण को केवल ब्रह्मास्त्र विद्या नहीं सिखाई थी बाकी साधारण धनुर्विद्या का ज्ञान द्रोणाचार्य ने कर्ण का बराबर (यथायोग्य) दिया था।
और कर्ण ने परशुराम से ब्रह्मास्त्र विद्या अपनी पहचान छिपाकर ली,
लेकिन इस तथ्य में भी कथाकारों ने एक मनोरंजन जोड़ दिया की कर्ण ने शिक्ष यह कहकर प्राप्त की,कि वह एक ‘ब्राह्मण ‘है परन्तु और बाद में
एक कीड़े द्वारा रक्त निकलने से भेद खुल गया और कर्ण के भेद खुलने के बाद उसे परसूराम ने श्राप दे दिया कि ‘जब सबसे अधिक विद्या की आवश्यकता होगी,तब तुम अपनी विद्या भूल जाओगे।‘
ये शाप-वरदान आदि की कथायें असत्य है,इस पर विचार करना जरुरी है।दूसरे विद्यार्थी का कोई वर्ण नही होता ,जब विद्यार्थी शिक्षा पूरी कर लेता है तो योग्यता के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होता है।
कर्ण ने गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में कर्ण ने भी विद्याभ्यास किया था।
कुछ प्रमाण:
(१)- कर्ण का वेदमंत्रों का पाठ करना- हम गीताप्रेस से छपी ‘संक्षिप्त महाभारत‘ भाग-१ से उद्धृत करते हैं-
‘ऐसा सोचकर कुंती गंगातट पर कर्ण के पास गयी।वहाँ पहुँचकर कुंती ने अपने सत्यनिष्ठ पुत्र के वेदपाठकी ध्वनि सुनी।वह पूर्वाभिमुख होकर भुजाएँ ऊपर उठाये मंत्र पाठ कर रहा था।तपस्विनी कुंती जप समाप्त होने की प्रतीक्षा में उसके पीछे खड़ी रही।‘
( संक्षिप्त महाभारत, उद्योगपर्व,पृष्ठ ६५३, अनुच्छेद २,- गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित भाग-१)
(२)- कर्ण का सनातन शास्त्रों का ज्ञान होना-
राज्य का प्रलोभन देते समय योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा था-
(क)- ‘कर्ण! तुमने वेदवेत्ता ब्राह्मणों की बड़ी सेवा की है और उनसे परमार्थ तत्त्व संबंधी प्रश्न किये हैं।‘
( संक्षिप्त महाभारत, उद्योग पर्व पृष्ठ ६५०व ६५१)
साथ ही, (ख)-
‘त्वमेव कर्ण जानासि वेदवादान् सनातनान्।
त्वमेव धर्मशास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठितः।।‘
( महाभारत उद्योगपर्व १३८ श्लोक ७)
‘हे कर्ण!तुम सनातन वैदिक मन्तव्यों से परिचित हो और सूक्ष्म धर्मशास्त्रों में तुम्हारी पैठ है।‘
(ग)- कर्ण की अपने मुख से साक्षी-
धर्माविद्धर्मशास्त्राणां श्रवणे सततं रतः।।
( महाभारत उद्योगपर्व १३९ श्लोक ७)
‘हे कृष्ण! मेरे जैसा व्यक्ति जो सदा धर्मशास्त्रों का अध्ययन करता है और धर्म जानता है…।‘
( ‘श्रुति-सौरभ‘, पं.शिवकुमार शास्त्री, पृष्ठ २८ व ३० से उद्धृत)
वक्तव्य-
यहाँ इन तीनों प्रमाणों से स्पष्ट है कि अंगराज कर्ण ने अपने समय में वेदज्ञ ब्राह्मणों की सेवा भी की,उनसे प्रश्नोत्तर भी किये। साथ ही,उसके पास वैदिक शास्त्रों का ज्ञान भी था।
अंतिम प्रश्न: कर्ण को पांडवो ने अपना सहोदर स्वीकार क्यो नही किया?
इसके कई कारण थे,एक तो कर्ण अपनी माता कुंती के प्रति क्रोधित था क्योंकि कुंती ने उसे त्याग दिया था और वह जीवन भर बिना मां के और स्वयं को सूत पुत्र कहलाता रहा।दूसरे दुर्योधन से उसकी घनी मित्रता थी ,इसलिए अति महत्वाकांछा,अहंकार आदि के स्वभाव के कारण उसने युद्ध मार्ग को चुना। उसने कभी ये प्रयास नहीं किया कि युद्ध ना हो बल्कि आग में घी डालने का काम किया।
निष्कर्ष– इस पूरे लेख से ये स्पष्ट है कि कर्ण के साथ उसके सूतपुत्र होने के नाम पर भेदभाव किया गया और उसके अंदर क्रोध की ज्वाला ने उसको क्रोधी बना दिया । द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या तो उसे सिखाई परंतु द्रोणाचार्य राजनैतिक संधि के तहत उसे ब्रह्मास्त्र नहीं दे सके। इसलिए कर्ण ने पहचान बदलकर परशुराम के यहां युद्ध कला कौशल में महारत ली,परंतु उसका छल पकड़ा गया और इस पर परशुराम क्रोधित हुए।