यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
पं. लीलापत शर्मा – विभूति फीचर्स
विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है- ‘पवित्र नारी सृष्टि की सर्र्वोत्तम कृति है। सृष्टि में वात्सल्य, स्नेह, प्रेम की अमृत धाराएं नारी हृदय से निकलकर इस संसार को अमृत दान कर रही हैं’ कवि रस्किन ने कहा है- ‘माता का हृदय एक स्नेह पूर्ण निर्झर है, जो सृष्टि के आदि से अनवरत झरता हुआ मानवता का सिंचन कर रहा है। ‘मातृदेवो भव’ कहकर उपनिषद के ऋषि ने माता के लिए लोकोत्तर सम्मान प्रदान किया है। सचमुच साधारण प्राणियों से भरी इस धरती पर माता का हृदय एक दैवी विभूति ही है।
नास्ति गंगा समतीर्थ, नास्ति विष्णु समप्रभु:।
नास्ति शम्भू सम: पूज्यो नास्ति मातृ समो गुरु:।।
‘गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, विष्णु के समान कोई प्रभु नहीं और शिव के समान कोई पूज्यनीय नहीं तथा वात्सल्य स्त्रोतस्विनी मातृ हृदय नारी के समान कोई गुरु नहीं है, जो इस लोक और परलोक में कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे।‘
ब्रह्मा इस संसार की रचना करते हैं और विष्णु इसका भरण-पोषण, संवर्धन करते हैं। इस सूक्ष्म आध्यात्मिक रहस्य को यदि स्थूल रूप में कहीं देखना हो तो उसकी झांकी माता को देखकर की जा सकती है। ब्रह्मा और विष्णु की दैवीय शक्तियां इस धरा पर नारी के मातृ रूप में अपना कार्य कर रही हैं। इसी की अनुभूति के आधार पर शास्त्रकार ने कहा है-
या देवी सर्व भूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनम:॥
संसार की रचना उसका भरण-पोषण करने वाली देवी शक्ति इस स्थूल संसार में नारी के मातृ रूप में ही स्थित हो अपना कार्य कर रही है। इसलिए इस मातृ रूपी नारी को हम बार-बार नमन करते हैं।
इसी तथ्य के दृष्टा एक मनीषी ने कहा-‘ईश्वर के पश्चात्ï हम सर्वाधिक ऋणी नारी के हैं। प्रथम तो जीवन के लिए, पुनश्च इसे जीने योग्य बनाने के लिए।‘ तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन की सभी संभावनाओं के मूल में माँ का असीम प्यार, उसका त्याग, उसकी महान सेवाएं ही निहित हैं।
नारी जाति की इस महानता, उसके मानव जाति के प्रति महान ऋण को देखते हुए बहुत पहले से ही मनुष्य ने इसको आदर और पूजा का पात्र समझा और उसका समुचित आदर सत्कार किया। सरस्वती, लक्ष्मी तथा अन्य दैवीय शक्तियों के रूप में नारी का पूजन उसके उच्च सम्मान के लिए ही किया गया।
नारी माँ के रूप में बच्चे की आदि गुरु है। जननी को विभिन्न विषयों में जो शिक्षा और अनुभव प्राप्त होता है, वही बच्चे के जीवन में प्रभाव डालता है। जननी के उच्चारण, उसकी भाषा से ही वह भाषा का ज्ञान प्राप्त करता है, जो जीवन भर के भाषा-ज्ञान का मूलाधार होता है। इस तरह बच्चे की शिक्षा-दीक्षा, उसे योग्य बनाने की नींव जननी ही होती है। उसी नींव पर बालक के संपूर्ण जीवन की योग्यता, शिक्षा, ज्ञान का महल खड़ा होता है। माँ का कत्र्तव्य केवल स्तन पान या स्नेह दान तक ही नहीं है, अपितु इसके साथ ही वह बच्चे को जीवन में विकसित होने, उत्कर्ष की ओर बढऩे के लिए एक तरह की सूक्ष्म शक्ति की प्रेरणा देती है। माँ द्वारा कही गई उच्च आदर्श, त्याग की कथाएं, उपदेश, साधारण भाषा में दिया गया ज्ञान भी बालक के जीवन में ऐसा प्रभाव डालता है जो जीवन भर बड़ी-बड़ी डिग्रियां प्राप्त करके भी नहीं मिलता। माँ द्वारा प्रदत्त प्रारंभिक ज्ञान प्रेरणा को पाकर ही बालक आगे चलकर प्रकृति ज्ञान का अधिकारी होता है।
बच्चे के प्रति माता का स्नेह, उसकी ममता, दयामय परमात्मा का प्रकाश है। शिशु के प्रति मातृहृदय में उमड़ता हुआ स्नेह प्रकृति की ओर से जीवन रक्षा के लिए ईश्वरीय देन है। यह स्नेह, ममता, सहज ही जननी को बालक के पालन-पोषण के लिए प्रयत्नपूर्वक लगाती है।
ऋषियों ने मातृहृदया नारी का ‘मातृ ऋण’ मानव जाति पर सबसे बड़ा ऋण माना है। उन्होंने नारी को समाज में सम्माननीय पूज्यनीय स्थान देकर उसका आदर सत्कार करके मातृ ऋण चुकाया और इसी तरह का आदेश अपनी भावी संतानों को भी दिया। नारी की प्रतिष्ठा, गौरव को चिरजीवित रखने के लिए सभी धर्म ग्रंथों में स्थान है। महाराज मनु ने अपनी संतानों से कहा था-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
यत्र तास्तु न पूज्यन्ते सर्वस्तत्राफल: क्रिया॥
जहां नारी की पूजा होगी वहां स्वर्ग बन जाएगा, देवता निवास करेंगे और जहां नारी की पूजा नहीं होगी वहां सारे फल, क्रियाएं समाप्त हो जाएंगी और दु:खों का सामना करना पड़ेगा।
मातुश्च यद्वितं किंचित्कुरूते भक्तिन: पुमान।
तद्धर्म हि विजानीया देवं धर्म विदो विदु:॥
मातृ शक्ति की भलाई के लिए पुरुष भक्तिपूर्वक जो कुछ भी कर्म करता है वही उसका धर्म है। गृहस्थ व्यक्ति की बड़ी तपस्या इसी में है कि वह नारी जाति की सेवा, उसमें दैवीय शिक्त के दर्शन करके करे।
भारतीय संस्कृति में नारी के प्रति यह केवल शाब्दिक प्रदर्शन मात्र नहीं है। वरन् पद्-पद् पर इसमें व्यवहारिकता की छाप है। इसमें कोई संदेह नहीं कि नारी जाति के महान उपकारों को स्वीकार कर भारतीय समाज ने मातृ जाति की यथोचित पूजा की, उसका सत्कार किया और समाज में उच्च स्थान दिया जिसके फलस्वरूप नारी के हृदय में सहज स्नेह, वात्सल्य, ममत्व की त्रिवेणी भारत भूमि में बह निकली, जिसका पान कर भारतीय जीवन अजर-अमर हो गया। भारतवासियों ने लौकिक और परलौकिक जीवन में भारी प्रगति की, इतिहास इसका साक्षी है।
पत्नी, पुत्री और भंगिनी के रूप में मातृत्व हमारे चारों और बिखरा पड़ा है। यह श्रद्धा एवं पूजा के योग्य है। देवत्व की इस प्रत्यक्ष प्रतिमा की गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा निरंतर, अभिनंदनीय है। इस रहस्य को मनुष्य जब तक समझता रहा अपने देवत्व को स्थिर रख सका। अब जबकि उसने नारी को वासना, कामुकता की तृप्ति का साधन बनाना आरंभ किया, क्रीत दासी के समान अपने पाशविक बंधनों में जकड़कर निरीह बनाने, मनमाने अत्याचार करने और अपनी संपत्ति मात्र मानने का दृष्टिकोण बदला है तो फिर पुरुष, पुरुष नहीं रहा। उसका तप, तेज चला गया और वह एक क्षुद्र प्राणी के समान अपने गौरव से पतित होकर निम्न श्रेणी का जीवन यापन कर रहा है। इस पृथ्वी पर दैवीय तत्व का एकमात्र प्रतीक मातृत्व है। उसके प्रति उच्चकोटि की श्रद्धा रखे बिना देवत्व की पूजा एवं साधना नहीं हो सकती और इसके अभाव में पुरुष को देवत्व से वंचित रहना पड़ेगा। नारी कामधेनु है। जब उसे हम मातृ बुद्धि से देखते हैं तो वह हमें देवत्व प्रदान करती है, पर जब उसे वासना, संपत्ति, दासी की दृष्टि से देखा जाता है तो वह हमारे लिए अभिशाप बन जाती है। न जाने हमारी दुर्बुद्धि कब टलेगी, न जाने कब हम नारी की दिव्य शक्ति को पहचानकर उसके चरणों में श्रद्धा के आंसू चढ़ाना सीखेंगे? न जाने इस अभाव के कारण हमें कब तक देवत्व से वंचित रहकर नारकीय स्थिति में पड़ा रहना पड़ेगा। (विभूति फीचर्स)यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
पं. लीलापत शर्मा – विभूति फीचर्स
विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है- ‘पवित्र नारी सृष्टि की सर्र्वोत्तम कृति है। सृष्टि में वात्सल्य, स्नेह, प्रेम की अमृत धाराएं नारी हृदय से निकलकर इस संसार को अमृत दान कर रही हैं’ कवि रस्किन ने कहा है- ‘माता का हृदय एक स्नेह पूर्ण निर्झर है, जो सृष्टि के आदि से अनवरत झरता हुआ मानवता का सिंचन कर रहा है। ‘मातृदेवो भव’ कहकर उपनिषद के ऋषि ने माता के लिए लोकोत्तर सम्मान प्रदान किया है। सचमुच साधारण प्राणियों से भरी इस धरती पर माता का हृदय एक दैवी विभूति ही है।
नास्ति गंगा समतीर्थ, नास्ति विष्णु समप्रभु:।
नास्ति शम्भू सम: पूज्यो नास्ति मातृ समो गुरु:।।
‘गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, विष्णु के समान कोई प्रभु नहीं और शिव के समान कोई पूज्यनीय नहीं तथा वात्सल्य स्त्रोतस्विनी मातृ हृदय नारी के समान कोई गुरु नहीं है, जो इस लोक और परलोक में कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे।‘
ब्रह्मा इस संसार की रचना करते हैं और विष्णु इसका भरण-पोषण, संवर्धन करते हैं। इस सूक्ष्म आध्यात्मिक रहस्य को यदि स्थूल रूप में कहीं देखना हो तो उसकी झांकी माता को देखकर की जा सकती है। ब्रह्मा और विष्णु की दैवीय शक्तियां इस धरा पर नारी के मातृ रूप में अपना कार्य कर रही हैं।