(यह लेख माला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं ।)
प्रस्तुति: – देवेंद्र सिंह आर्य
( चेयरमैन ‘उगता भारत’ )
गताक से आगे …
वेद उपदेश करते हैं कि –
तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुब्जितः ।
तत् प्राणो अभि रक्षति शिरो अन्नमथो मनः ।। (अथर्व० १०।२।२७)
अर्थात् मनुष्य का जो शिर है, वह ज्ञानविज्ञान का खजाना है। उस शिर की प्राण, मन और अन्न रक्षा करते हैं। इस मन्त्र में विचार करने का अङ्ग शिंर बतलाया गया है और उसके साथ अन्न, मन और प्राणों का सम्बन्ध भी बतलाया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अन्न, प्राण, मन और विचारों की श्रृङ्खला का क्रम है। क्योंकि विचारों के रोकनेवाले को मन रोकना पड़ता है, मन रोकनेवाले को प्राण रोकना पड़ता है और प्राण रोकनेवाले को अन्न का नियन्त्रण करना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि मुमुक्षु को एकान्त में युक्ताहार होकर प्राणों के निग्रह में लग जाना चाहिये और मन तथा विचारों के प्रवाह को बन्द कर देना चाहिये। इस योगक्रिया के लिए वेद उपदेश करते हैं कि-
युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः ।
वि होत्रा दधे वयुनाविवेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः ।। (ऋ० ५/८१।१)
युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे। स्वग्र्याय शक्त्या ।। (यजुर्वेद ११।२)
युजे वां ब्रह्म पूष्र्य नमोभिर्भाव श्लोकऽएतु पथ्येव सूरेः ।
श्रृण्वन्तु विश्व ऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः ।(यजु० ११।५)
अर्थात् बड़े बड़े यज्ञयोग करनेवाले और विद्वानों से भी अधिक विद्वान् अपना मन और बुद्धि उस एक ही महान् देवाधिदेव परमात्मा में युक्त करते हैं। पूरी शक्ति से हम लोग स्वर्गीय सुखों के लिये अपने मन को सविता देव में जोड़ते हैं। सब लोग यह बात कान खोलकर सुन लें कि पूर्वजों ने योगबल से ही सूर्यमार्ग से यात्रा की है, इसलिए जो योग करेगा-ब्रह्म में मन लगायेगा-वही उस उत्तम गति को प्राप्त होगा। इन मन्त्रों में योग का बहुत बड़ा महत्त्व बतलाया गया है। क्योंकि योग का सम्बन्ध मन से है। मन को एकाग्र करके उसे परमात्मा में लगाना ही योग है। इसलिए वेद में मन को कल्याणकारी बनाने का बहुत बड़ा उपदेश है। यजुर्वेद में लिखा है कि-
य जाग्रतो दूरमुदैति दैबं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।१।।
येन कर्माण्यपसो मनीषिणौ यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ।
यदपूर्व यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।। २।।
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धूतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मानाऋते कि चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।।३।।
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥४।।
यस्मिन्नृचः साम यजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिंश्रित सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।५।।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइन ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥६॥ (यजु० ३४/१-६)
अर्थात् जो सोते और जागते समय दूर दूर जाता है, वह दूर दूर तक जानेवाला ज्योतिरूप मेरा मन शुभ सङ्कल्प बाला हो। जिसके द्वारा बुद्धिमान और धीर पुरुष नाना प्रकार के सुकर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वह सबके अन्दर बैठा हुथा अपूर्व शक्तिवाला मेरा मन उत्तम विचार करनेवाला हो। जो प्रज्ञान, चेतना और धारणा शक्तिवाला है, जो अन्तज्योंति है, जो सब प्राणियों में अविनाशी सत्तारूप से विराजमान है और जिसके विना किञ्चन्मात्र भी कोई काम नहीं हो सकता, वह मेरा मन शिवसङ्कल्पवाला हो। जिसने अपनी अमरता से भूत, भविष्य और वर्तमान को ग्रहण कर रक्खा है और जिसकी सहायता से आँख, कान और जिह्वा आदि सातों कार्यकर्ता इस शरीर के व्यवहार को कर रहे हैं, वह मेरा मन कल्याणकारी विचारवाला हो। जिसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद, रथचक्र के आरों की भॉति जुड़ रहे हैं और जिसमें सब प्राणियों के चित्त ओतप्रोत हैं, वह मेरा मन शुभ विचारवाला हो। जिस तरह अच्छा सारथी रथ के घोड़ों को चलाता है, उसी तरह हृदय में बैठा हुआा और अपनी कियाबल से मनुष्यों को नियम में चलानेवाला मेरा मन शुभ सङ्कल्पवाला हो। इन मन्त्रों में मन की महत्ता बतलाते हुए उसको उत्तम विचारवाला बनाने का उपदेश किया गया है, जिससे योगासिद्धि में शीघ्र सहायता मिले। यह योग मनुष्य का अन्तिम पुरुषार्थ है। मनुष्य योगानुष्ठान करके जप, तप, तितिक्षा और समाधि तक अपना पुरुवार्थ कर सकता है। परन्तु यदि परमात्मा इतने पर भी मुमुक्षु के हृदय में स्वयं प्रकट होकर उने दर्शन न दे और मोक्ष प्राप्त न हो, तो वह अपने पुरुषार्थ से उसे प्रकट होने के लिए और मोक्ष देने के लिए विवश नहीं कर सकता। इसीलिए उसके शरणागत होकर दर्शन और मोश्न के लिए प्रार्थना करता है।
क्रमश: