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इतिहास के पन्नों से

अफगानिस्तान का हिंदू वैदिक अतीत भाग 2 – गांधार महाजनपद और रामराज्य

*मैक्समूलर* अपनी पुस्तक 'हम भारत से क्या सीखें' में लिखते हैं- यह निर्णीत हो चुका है कि हम सभी पूर्व से ही आए हैं। इतना ही नहीं हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण बातें हैं, सबकी सब हमें पूर्व से ही मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब भी हम पूर्व की ओर जाएँ तभी हमें यह सोचना चाहिए कि हम अपने प्राचीन घर की ओर जा रहे हैं। भले ही हमने पूर्व का विशेष अध्ययन किया हो या नहीं, जिस किसी भी व्यक्ति को उदार शिक्षा मिली होगी, जिस किसी ने भी शिक्षा के ऐतिहासिक क्रम को समझा होगा, वह पूर्व को अपना घर ही मानेगा। पूर्व को जाते हुए उसके मन में उसी प्रकार की सुखद अनुभूति आवेगी, जैसी अनुभूति आँखों से अपने घर की ओर अग्रसर होते-होते आती हैं। यदि वह समुचित शिक्षा पाए हुए हैं तो ज्यों-ज्यों वह पूर्व की ओर बढ़ता हुआ चलेगा, त्यों-त्यों उसे ऐसी वस्तुएँ, ऐसी स्थितियाँ मिलेंगी, जिनसे उसका पूर्व परिचय रह चुका होगा। वह जो कुछ भी देखेगा, उसे यही मालूम होगा जैसे उन्हें वह पहले कहीं देख चुका है। उसकी अनुभूति बिल्कुल उसी प्रकार की होगी, जैसे कोई बालक कुछ दिन ननिहाल में रहकर अपनी जन्मभूमि की ओर लौटते हुए मार्ग की प्रत्येक वस्तु को परिचित पाता है और उसका रोम-रोम एक अकथनीय आनंद से भर उठता है। प्रायः ऐसा होता है कि जब यहाँ के लोग भारत के लिए प्रस्थान करते हैं तो उनका दिल बैठने लगता है और ज्यों- ज्यों वे भारत के समीप होते जाते हैं त्यों-त्यों यह दिल बैठने का भाव प्रबल से प्रबल होता जाता है। क्या आप लोगों ने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है?- ऐसा इसलिए होता है कि आपने भारत के ऋण को समझा नहीं है। ऐसा इसलिए होता है कि आपने अध्ययन द्वारा अपने भारत से परिचय नहीं प्राप्त किया है।"

मैक्समूलर के कथन का अभिप्राय

मैक्समूलर ने भारत के बारे में ऐसा निष्कर्ष क्यों निकाला ? कारण साफ है, उसने भारत के बारे में अध्ययन किया कि भारत ही सारे विश्व के देशों का आदि

देश है। भारत से ही सभ्यता और संस्कृति ने अपनी किलकारी मारकर सारे विश्व के प्रांगण को वैसे ही खुशियों से भरा है जैसे कोई बच्चा बचपन में अपनी अठखेलियों से किसी घर के आँगन को खुशियों से भर देता है। भारत ही वह देश है जहाँ संपूर्ण भूमंडल का बचपन खेला है और भारत ही वह देश है जहाँ से ज्ञान-विज्ञान का सूर्य उदय हुआ है। इसीलिए मैक्समूलर ने अपने देशवासियों और समस्त यूरोपियन लोगों को यह परामर्श दिया कि भारत की ओर चलने से पहले यह समझ लेना चाहिए कि हम अपने देश भारत की ओर जा रहे हैं। मैक्समूलर का यह कथन सचमुच हमारे लिए न केवल गौरवपूर्ण है, अपितु समस्त संसार के लिए समझने योग्य है कि भारत उन सबका आदि देश रहा है।

यह ठीक है कि इस पुस्तक में हम केवल अफगानिस्तान के हिंदू वैदिक अतीत पर चिंतन कर रहे हैं, परंतु मैक्समूलर के उपरोक्त कथन पर यदि गंभीरता से चिंतन किया जाए तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि संपूर्ण भूमंडल के सभी देशों का आदि देश भारत है।

 मैक्समूलर जैसे विद्वानों का भारत के विषय में ऐसा स्पष्ट चिंतन उन लोगों के मुँह पर करारा तमाचा है जो भारत में रहकर ही भारत के विषय में अनर्गल भ्रांतियाँ पैदा करते रहते हैं। ऐसे ही कुछ इतिहासकारों ने रामायण के पात्रों के विषय में यह भ्रांति फैलाई है कि यह सब काल्पनिक हैं और वास्तव में न तो दशरथ और उनके पुत्र रामचंद्रजी आदि हुए और न राम-रावण युद्ध जैसी अनेकों घटनाएँ हुईं। परंतु अब ऐसे अनेकों प्रमाण मिल चुके हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि रामायणकालीन सभी पात्र काल्पनिक नहीं, अपितु वास्तविक रहे हैं और रामायणकालीन घटनाएँ भी किसी न किसी रूप में अपने समय में घटित हुई थीं।

  पंडित भगवत दत्त सत्यश्रवाजी अपनी पुस्तक 'भारतवर्ष का इतिहास' के पृष्ठ 111 पर लिखते हैं- "पेशावर से लेकर वर्तमान डेरागाजी खान तक का सारा प्रदेश कभी गंधर्व देश कहलाता था, फिर उसी का या उससे भी अधिक भाग का नाम गांधार देश हुआ। युद्धाजित अश्वपति उसको विजय करना चाहता था। उसने अपने पुरोहित गार्ग्य अंगिरस को इस कर्म में सहायता प्राप्ति के लिए राम के पास भेजा। गार्ग्य ने राम से कहा कि सिंधु के दोनों ओर यह गंधर्व देश परम शोभायमान है। इसे आप अवश्य विजय करें। सर्वसम्मति से भरत पुत्र तक्ष और पुष्कल ने अपने पिता के साथ केकय देश को प्रस्थान किया। गंधर्व देश विजित हुआ। वहीं तक्ष और पुष्कल के नाम पर दो प्रसिद्ध नगर बसाए गए। तक्षशिला और पुष्कलावती नगर वहीं हैं। यह नगर गांधार प्रदेश के गंधर्व राज्य में हैं। भारतीय इतिहास में दोनों नगरों की बड़ी प्रसिद्धि रही है।"

        इन सारे तथ्यों की जानकारी हमें रामायण के युद्ध कांड और उत्तर कांड से होती है। रामायण काल में रामचंद्रजी महाराज ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने सारे साम्राज्य को अपने चारों भाइयों के आठ पुत्रों में समान रूप से विभक्त कर दिया था। वर्तमान अफगानिस्तान देश जो उस समय गांधार देश के नाम से विख्यात था, भरत के पुत्र तक्ष के हिस्से में आया था। इसी तक्ष के नाम से तक्षशिला बसाई गई थी। तक्ष के राज्य को उस समय तक्षखंड भी कहा जाता था। यह तक्षखंड ही अपभ्रंश होकर आज का ताशकंद हो गया है। इस प्रकार राजा तक्ष का राज्य भी अपने आप में बहुत विशाल था। इसी तक्ष के दूसरे भाई पुष्कल के नाम से पुष्कलावती या पुष्कलावत नाम का नगर बसाया गया था।

तब गांधार कैसा रहा होगा ?

रामायणकाल में गांधार प्रदेश का अस्तित्व मिल जाता है तो यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उठता है कि तब गांधार की राजनीतिक व सामाजिक स्थिति कैसी रही होगी ? इसे जानने समझने के लिए हमें रामराज्य को समझना जानना होगा।

रामायणकाल में गंधर्व प्रांत की स्थिति

   मिस्टर ग्रेफ्ट साहिब वाल्मीकि रामायण के विषय में लिखते हैं-" जगत् में छंदों की पुस्तकें तो बहुत हैं, पर आचार को छंदों के रूप में कोई कवि ऐसी दृढ़ता मनोहरता एवं रसिकता से नहीं बाँध सका। इस प्रभावशाली ढंग में धर्म की संज्ञा देना एक रामायण का ही काम है। केवल यही एक कविता है जो हमारे दिलों में बड़ी उत्तमता से सच्चाई के प्रति अनुराग पैदा कर देती है। हम रामायण को पढ़कर कुछ के कुछ बन जाते हैं। हम में ऊँचे ऊँचे खयाल भर जाते हैं और वह गुण जो मनुष्य की उत्कृष्टता के भूषण हैं, हमारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं।"

रामायण काल हमारे लिए वह गौरवमयी काल है, जब अश्वपति नामक राजा बड़े आत्मविश्वास के साथ यह घोषणा करता है कि-

न में स्तेनो जनपदे न कदर्यो वा न मद्यपः ।
नानाहिताग्निर्न नाविद्वान स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।।

अर्थात् मेरे संपूर्ण जनपद में न कोई चोर है, न कंजूस है, ना कोई कायर है, न नशीली वस्तु का सेवन करने वाला, न कोई अग्निहोत्र रहित है, न बिना पढ़ा लिखा और जब कोई व्यभिचारी पुरुष नहीं है तो व्यभिचारिणी स्त्री तो कहाँ से आएगी ?

    यही सामाजिक स्थिति रामायण काल में हमारे भारतवर्ष की थी। जब हम रामायण काल में अपने भारतवर्ष के बारे में ऐसा सोचते, मानते और कुछ स्थापित करते हैं तो समझो कि उस समय का गांधार महाजनपद भी इसी प्रकार की उत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था से संचालित और अनुशासित होता रहा था। तब उसमें न तो कोई असामाजिक संगठन सक्रिय था और न ही कोई तालिबान जैसा असहिष्णु और मजहबी कट्टरता को अपनाकर दूसरों के प्रति असहिष्णुता का सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाला विद्यार्थियों का संगठन ही सक्रिय था। तब ऐसे लोगों से सारा समाज घृणा करता था जो समाज में किसी भी प्रकार से अशांति उत्पन्न करने की गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं और उन्हें अपना शासक न मानकर सामाजिक व्यवस्था में बाधा उत्पन्न करने वाला अपराधी व्यक्ति घोषित करता था।

तब के गांधार प्रांत में वेदों की ऋचाएँ गूँजती थीं। वेदों के मंत्रों के माध्यम से यज्ञादि होते थे और लोग परस्पर एक-दूसरे के कल्याण में संलग्न रहते थे। उस समय राजा के भीतर जिन गुणों के होने की अपेक्षा की जाती थी उनमें किसी देश विशेष या संप्रदाय विशेष के लोगों को लूटना, मारना-काटना और नरसंहार आदि करना-कराना सम्मिलित नहीं था।

रामायण में रामचंद्रजी के आदर्श चरित्र का इस प्रकार वर्णन किया गया है। बालकांड के आरंभ में ही वाल्मीकि नारद मुनि से पूछते हैं-

“इस समय लोक में ऐसा कौन व्यक्ति है जो उत्तम गुणों से युक्त पराक्रमी, धर्म को जानने वाला, कृतज्ञ, सत्यवादी और दृढ़व्रती है? कौन उत्तम चरित्र वाला है, कौन सब प्राणियों का हितैषी है? कौन विद्वान् शक्तिशाली और प्रियदर्शन है?”

वाल्मीकि जी नारद मुनि से ऐसा क्यों पूछ रहे थे? इसका उत्तर यही है कि वाल्मीकि जैसे ऋषि का यदि कविता करने के लिए मन कर रहा था या यदि वह किसी एक पात्र को चुनकर उस पर कविता करना चाहते थे तो उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति को ही चुनना था जो गुणों में सर्वोत्तम हो, पुरुषों में पुरुषोत्तम हो। वह किसी लुटेरे और नरसंहारों में संलिप्त रहने वाले आतंकवादी या राक्षसवृत्ति के शासक के चारण नहीं हो सकते थे। उन्हें किसी लोकपाल की आवश्यकता थी और ऐसे उत्तम गुणों से युक्त व्यक्ति की खोज थी जो सभी मानवों का या संपूर्ण विश्व समाज का पूजनीय और बंदनीय हो।

दूसरा प्रश्न यह भी है कि वाल्मीकि जी ने अपनी यह जिज्ञासा नारद मुनि जैसे व्यक्ति के सामने ही क्यों रखी ? इसका उत्तर यह है कि नारद मुनि अपने आप में उस समय के संसार के सर्वोत्कृष्ट पत्रकार थे। वह घूमते-फिरते रहते थे और लोक लोकान्तरों में इधर से उधर के समाचार दिया करते थे। इसलिए स्वाभाविक था कि उन्हें संपूर्ण भूलोक की यह जानकारी हो सकती थी कि कौन व्यक्ति वाल्मीकि जी की अपेक्षाओं पर खरा उतर सकता है?

 वाल्मीकि जी ने उस समय नारद से उत्तर पाने के लिए यह भी कहा था कि देवलोक में यदि किसी लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था की कल्पना की जाएगी तो वहाँ की मंत्रिपरिषद में सूचना प्रसारण मंत्री के रूप में नारद के योग्य अन्य कोई नहीं मिलेगा। वाल्मीकि जी ने यद्यपि यह वाक्य नारदजी के लिए प्रशंसात्मक रूप में कहे थे, परंतु इससे यह पता चलता है कि हमारे पूर्वजों को अब से लाखों वर्ष पूर्व लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली और उसमें नियुक्त किए जाने वाले सूचना प्रसारण मंत्री की जानकारी थी। ऋषि वाल्मीकि अपने सूचना प्रसारण मंत्री की योग्यता का पैमाना यह मान रहे हैं कि उसे संपूर्ण लोकों की जानकारी होना आवश्यक है। आजकल तो हम यह भी देखते हैं कि ऐसे लोग भी मंत्री बन जाते हैं जिन्हें अपने विभाग की जानकारी अपने देश की सीमाओं के भीतर भी नहीं होती।

महर्षि वाल्मीकि के प्रश्नों को सुनकर तब नारद मुनिजी बोले- "हे मुनिवर। आपने जो बहुत से गुण कहे हैं, वह दुर्लभ हैं। फिर भी मैं विचारपूर्वक कहता हूँ कि इन दुर्लभ गुणों से युक्त मनुष्य के विषय में सुनो। वह इक्ष्वाकु वंश में उत्पन लोगों में राम नाम से प्रसिद्ध है।" इतना कहकर नारद मुनि ने श्रीराम के अलौकिक गुणों की पूरी की पूरी सूची वाल्मीकि जी के सामने प्रस्तुत कर दी।

तब नारद मुनि ने गुणों की उपस्थिति रामचंद्रजी के चरित्र में बखान की। नारदजी ने रामचंद्रजी महाराज को ‘वेदवेदांगतत्वज्ञ’ और ‘शास्त्रार्थतत्वज्ञ’ भी कहा।
‘वेदवेदांगतत्वज्ञ’ का अर्थ है कि रामचंद्रजी धर्म के मर्म को जानते थे कि उनका राजधर्म क्या है? राष्ट्रधर्म क्या है? प्रजा के प्रति उनके कर्तव्य क्या हैं और वह राजा बनकर किस प्रकार जनसेवा को प्राथमिकता देंगे ? रामचंद्रजी महाराज यह भी जानते थे कि यदि वह अपने राजधर्म का पालन नहीं करेंगे या प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने में प्रमाद का प्रदर्शन करेंगे तो उसका परिणाम उनके लिए क्या होगा ? जबकि ‘शास्त्रार्थतत्वज्ञ’ का अभिप्राय है कि रामचंद्रजी महाराज भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास रखते थे। वह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी राज्यसभा में बोलने का अवसर देते थे और उसके अच्छे विचारों का स्वागत करते थे। इतना ही नहीं यह शास्त्रार्थ में स्वयं भी निष्णात होने के कारण राजधर्म के संदर्भ में अच्छी और ऊँची बहस में भाग लेते थे। जिससे प्रजाहित में एक ऐसा शुभचिंतन निकल कर के आए जिससे प्रजा का और राष्ट्र का कल्याण हो।

   रामचन्द्रजी ने अपने भाई भरत को राजधर्म के विषय में समझाते हुए कहां था कि मिथ्या अपराध के कारण दंडित व्यक्तियों के जो आँसू जमीन पर गिरते हैं, भरत। वे अपने आनंद के लिए शासन करने वाले राजा के पुत्र और पशुओं का नाश कर डालते हैं। कहने का अभिप्राय है कि किसी भी निरापराध व्यक्ति के आँसू जमीन पर गिरने नहीं चाहिए, यदि वह गिरते हैं तो समझ लो कि वह राज्य का नाश कर देंगे। 
जब भारतवर्ष में ऐसे राजाओं की परंपरा थी तब गांधार भी आनंद की साँस ले रहा था और यहाँ पर भी देवता लोग वास करते थे। देवता लोगों के वास करने का अभिप्राय है कि यहाँ के सभी जन परस्पर प्रीतिपूर्वक रहते थे और यदि कोई असामाजिक व्यक्ति उन देवता लोगों की जीवनचर्या में किसी भी प्रकार से बाधा उत्पन्न करता था तो राजा का दंड उसे दंडित कर सभी लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता था। तब इस गांधार प्रांत में पूर्ण शांति का अनुभव किया जाता था। लोग परस्पर मिलजुलकर रहते थे और एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करना अपना कर्तव्य समझते थे।

रामचंद्रजी महाराज स्वयं में एक दिग्विजयी विश्व सम्राट थे, परंतु उनकी दिग्विजयों का उद्देश्य किसी क्षेत्र या प्रांत के लोगों का या किसी भाषा विशेष के लोगों का अपमान करना या उनका नरसंहार कर उनको लूटना नहीं था, अपितु संपूर्ण भूमंडल पर शांति का वास हो और कोई भी ऐसा आतंकवादी किसी भी क्षेत्र में उत्पन्न न होने पाए जो लोगों के सम्मानपूर्ण जीवन में हस्तक्षेप करने की शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त कर ले, यही उनकी दिग्विजयों का उद्देश्य था। कालांतर में अफगानिस्तान ने ऐसे शासकों का भी शासन देखा जिन्होंने दिग्विजय के सपने तो लिए परंतु उनकी सोच दानवतावादी होने के कारण साम्राज्यवादी थी। इसीलिए उन्होंने लोगों का रक्त चूसा भी और बहाया भी।

गान्धार प्रांत की भौगोलिक स्थिति

गान्धार महाजनपद के प्रमुख नगर थे- पुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) तथा तक्षशिला। तक्षशिला इसकी राजधानी थी। इसका अस्तित्व 600 ईसा पूर्व से 11वीं सदी तक रहा। कुषाण वंशीय शासकों के शासन काल में यहाँ बौद्ध धर्म बहुत फला,पर कुछ काल पश्चात मुस्लिम आक्रमण के कारण इसका पतन हो गया।

गांधार, थाइलैंड या स्याम के उत्तरी भाग में स्थित युत्रान का प्राचीन भारतीय नाम है। चीनी इतिहास-ग्रंथों से सूचित होता है कि द्वितीय शती ई.पू. में ही इस प्रदेश में भारतीयों ने उपनिवेश बसा लिए थे और ये लोग बंगाल-असम तथा ब्रह्मदेश के व्यापारिक स्थलमार्ग से यहाँ पहुँचे थे। 13वीं शती तक युत्रान का भारतीय नाम गंधार ही प्रचलित था, जैसा कि तत्कालीन मुसलमान लेखक रशीदुद्दीन के वर्णन से सूचित होता है। इस प्रदेश का चीनी नाम नानचाओं था। 1253 ई. में चीन के सम्राट कुबलाखौँ ने गंधार को जीतकर यहाँ के हिन्दू राज्य की समाप्ति कर दी। इस प्रदेश का उल्लेख महाभारत और अशोक के शिलालेखों में मिलता है। महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र की रानी और दुर्योधन की माता गांधारी गंधार की राजकुमारी थीं। आजकल यह पाकिस्तान के रावलपिंडी और पेशावर जिलों का क्षेत्र है। तक्षशिला और पुष्कलावती यहीं के प्रसिद्ध नगर थे। अशोक के साम्राज्य का अंग रहने के बाद कुछ समय यह फारस के और कुषाण राज्य के अंतर्गत रहा। यह पूर्व और पश्चिम के सांस्कृतिक संगम का स्थल था और यहाँ कला की 'गांधार शैली' का जन्म हुआ।

क्रमशः

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