सुभाष आनंद – विनायक फीचर्स
देश के प्रत्येक चुनाव में विभिन्न पार्टियों के लिए चुनाव चिन्ह महत्वपूर्ण पहचान होती है। इसी के द्वारा मतदाता पसंदीदा प्रतिनिधियों का चुनाव करता है। इसीलिए राजनीतिक दलों का जोर आकर्षक, सरल और जाने-पहचाने चुनाव चिन्ह पर होता है। जैसे अभी जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कमल के फूल को लेकर प्रचार कर रहे हैं तो कांग्रेस हाथ का पंजा, आम आदमी पार्टी झाड़ू, अखिलेश यादव साइकिल के चिन्हों से अपना चुनाव प्रचार कर रहे हैं।
कई बार एक खास चुनाव चिन्ह हथियाने के लिए विभिन्न दलों और धड़ो के बीच संघर्ष भी होता देखा गया है। इस बार भी चुनाव चिन्हों को लेकर कई तरह के नजारे देखने को मिल रहे हैं। हमारे देश में चुनाव चिन्हों का भी दिलचस्प इतिहास है। कांग्रेस के लिए दो बैलों की जोड़ी से हाथ तक और भारतीय जनता पार्टी की दीपक से कमल तक की यात्रा के दौरान ये चुनाव चिन्ह देश में कई तरह की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहे हैं। नई पीढ़ी के मतदाताओं को तो यह मालूम ही नहीं होगा कि अविभाजित कांग्रेस और जनसंघ का चुनाव चिन्ह कभी दो बैलों की जोड़ी और दीपक हुआ करता था। 1950 से 1960 के दशकों के मतदाता भूल चुके होंगे कि चुनावी यात्रा में कौन-कौन से चुनाव चिन्ह मतपत्रों से हट चुके हैं। चुनावी मंच से गायब हुआ सबसे महत्वपूर्ण दो बैलों की जोड़ी है जो 1952 से 1967 तक कांग्रेस के लिए काफी शुभ रहा। पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में फिर उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़े गए। 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन हुआ। कांग्रेस क्रमश: निजलिंगप्पा और इंदिरा गांधी दो गुटों में बंट गई। अंतत: दो बैलों की जोड़ी के लिए कड़ा संघर्ष हुआ। तब इस चुनाव चिन्ह को चुनाव आयोग ने सील कर दिया। कांग्रेस के विभाजन के पश्चात 1971 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस को गाय और बछड़े का चुनाव चिन्ह अलाट किया गया। नवम्बर 1979 में देवराज अर्स के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग हुए गुट का नाम कांग्रेस अर्स रखा गया। 1981 में वही कांग्रेस समाजवादी बनी जिसे चर्खा चुनाव चिन्ह दिया गया तथा इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस को हाथ का निशान मिला। 1977 के चुनाव से ऐन पहले आपातकाल के दौरान चुनाव आयोग ने इसे मान्यता नहीं दी। लिहाजा जनता पार्टी ने भारतीय लोकदल के चुनाव चिन्ह चक्र हलधर पर चुनाव लड़ा। चुनाव के पश्चात जनता पार्टी कई घड़ो में बंट गई। चंद्रशेखर वाले गुट को पुराना चुनाव चिन्ह मिला जबकि चौधरी चरण सिंह का गुट हल जोतने वाला किसान चुनाव चिन्ह पा सका। जनता पार्टी से अलग होकर अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय जनता पार्टी बनायी तब चुनाव आयोग ने चक्र हलधर के चुनाव चिन्ह पर रोक लगा दी और भारतीय जनता पार्टी को नया चुनाव चिन्ह कमल का फूल मिल गया। बाद में चौधरी चरण सिंह की पार्टी भी बंट गई और चुनाव आयोग ने हल जोतने वाले किसान के चुनाव चिन्हों को भी सीज कर दिया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव चिन्ह दरांती हथौड़ा है जो 1952 से लगातार चल रहा है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव बाली हथौड़ा है यह चुनाव चिन्ह 1967 में उन्हें प्राप्त हुआ था। समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल है। लालू प्रसाद की पार्टी जे.डी.यू. के पास लालटेन चुनाव चिन्ह है। आम आदमी पार्टी पिछले दो लोकसभा चुनाव अपने चुनाव चिन्ह झाड़ू पर चुनाव लड़ चुकी है। 1951 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस ने दो बैलों की जोड़ी, सोशलिस्ट पार्टी ने पेड़, किसान मजदूर प्रजा पार्टी ने झोपड़ी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ने हाथी (जो अब बसपा) का चुनाव चिन्ह है), अखिल भारतीय राम राज्य पार्टी ने उगता सूरज, कृषिकार लोक पार्टी ने अनाज उड़ाता किसान, अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने घुड़सवार, आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक ने शेर, रिवाल्टरी सोशलिस्ट पार्टी ने फावड़ा और बेलचा, आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक (रुईकार ग्रुप) ने हाथ का पंजा, रिवाल्टरी सोशलिस्ट कम्युनिस्ट पार्टी ने मशाल चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा था।
1951 से 2024 तक भारतीय लोकतंत्र ने एक लंबा सफर तय किया है। चुनाव चिन्ह भले ही बदलते रहे हों लेकिन भारतीय लोकतंत्र सदैव जनता का जनता के लिए ही रहा है। यहां जनता ने सदैव लोकतंत्र का साथ दिया और समय-समय पर नये इतिहास का निर्माण किया। (विनायक फीचर्स)