आज भारतवर्ष में ही नहीं, संसार में भी जितनी भर भी जातियाँ और उनके गोत्र पाए जाते हैं, वह सभी गोत्र हमारे प्राचीन ऋषियों के नामों पर पड़े हैं। इस सत्य और तथ्य को यदि भारत के वैदिक इतिहास के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह तथ्य पूर्णतः स्थापित और स्पष्ट हो जाएगा कि इस संपूर्ण भूमंडल के लोग एक ही कुल-परिवार के लोग हैं। इनमें जितनी भर भी आज की मजहबी या क्षेत्रीय विभिन्नताएँ या मान्यताएँ दिखाई देती हैं, यह सब कालांतर में स्थापित हुई हैं। मूल रूप में सबकी जड़ एक है और सभी अपने मूल अर्थात् वैदिक धर्म से और आर्यावर्त नामक देश से निकली हैं।
एक समय ऐसा था जब संपूर्ण भूमंडल पर भारत के आर्य लोगों का ही शासन था। यदि हम यहाँ पर अपने प्राचीन ऋषियों की सम्पूर्ण गोत्रवंश परंपरा पर विचार करेंगे तो विषय लंबा हो जाएगा। विषय विस्तार में न जाकर हम यहाँ पर अपने आपको इसी विषय तक सीमित रखेंगे कि गांधार प्रांत अर्थात् जो आज का अफगानिस्तान है, इसका मूल क्या है? कहाँ से और कब से इसको गांधार कहा गया और यहाँ के रहने वाले लोगों को किस नाम से किन-किन कालों में कैसे- कैसे जाना जाता रहा? इस अध्याय में हम इसी पर विचार करेंगे।
हमारे देश में प्राचीन काल में एक महान् शासक हुए है, जिनका नाम ययाति था। ययाति को पुराणों में और प्राचीन भारतीय वांग्मय में बड़ा सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार इन्हीं ययाति के कुल 10 पुत्र थे। राजा ने अपने 10 पुत्रों में से पाँच पुत्रों को अपना संपूर्ण साम्राज्य विभाजित करके दे दिया। जिनको पहली बार संपूर्ण भूमंडल का अलग-अलग क्षेत्रों का मांडलिक नियुक्त किया गया। ययाति के ये 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वसु, 4. अनु और 5. द्रहयु। पुरु को राजा ययाति ने संपूर्ण भूमंडल का राज्य प्रदान किया था।
बाइबिल में याकूब नाम के एक शासक का उल्लेख किया गया है। वहाँ पर उस याकूब नाम के शासक के बारे में कहा गया है कि इसके 12 पुत्र थे। उन्हीं से इस्त्राइल और अरब की जाति बनी। उसी प्रकार ययाति के पुत्रों से अखंड भारत अर्थात् आज का अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिंदुस्तान, बांग्लादेश, बर्मा, थाईलैंड आदि की जातियाँ बनीं। कहीं हमारा ययाति ही तो बाइबिल का याकूब नहीं है? निश्चित रूप से यह शोध का विषय है।
कुछ लोगों ने इन पाँचों ययाति पुत्रों का मेल ऋग्वेद में आए पंचनंद से जोड़ने का अतार्किक और अनुचित प्रयास किया है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वेदों में इतिहास नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि वेदों के शब्दों को पकड़कर लोगों ने कुछ चीजों के या वंशों या स्थानों या नदियों आदि के नाम अवश्य रख दिए हैं। अतः वेदों में इतिहास होने की भ्रांति न पाली जाए, अपितु इतिहास ने ही वेदों के नाम पकड़कर अपने आपको समय-समय पर भाषाई आधार पर समृद्ध करने का प्रयास किया है, यह मानकर चलना चाहिए।
जब इन पाँचों ययाति पुत्रों को संपूर्ण भूमंडल का अलग-अलग मांडलिक, अधिपति या लोकपाल नियुक्त कर दिया गया तो इन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में अपने- अपने वंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, हुहु से भोज, अनु से म्लेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई।
यवन और म्लेच्छ भी मूल रूप में हमारे हैं इस प्रकार मूल रूप में यवन और म्लेच्छ हमारे ही वैदिक वंशवृक्ष की शाखाएँ हैं, परंतु कालांतर में उनके वंशजों ने विपरीत मजहब अपनाकर जब अपने ही मूल पर प्रहार करना आरंभ किया, अर्थात् आर्यावर्त पर ही आक्रमण करने आरंभ किए और यहाँ की संस्कृति को, धर्म और ऐतिहासिक भवनों आदि को नष्ट-भ्रष्ट करना आरंभ किया तो यहाँ के लोगों ने उन्हें हेयदृष्टि से देखा। यही कारण है कि यवन और म्लेच्छ आज तक हमारे समाज और साहित्य में हेयदृष्टि से देखे जाते हैं।
कुछ लोगों को यह भ्रांति हो सकती है कि 5 पुत्रों के मध्य संपूर्ण भूमंडल के राज्य को विभाजित कर देने के पश्चात् उन्हें स्वतंत्र शासक के रूप में कार्य करने की छूट हमने दे दी थी और इसके पश्चात् उनका अपने मूल देश से कोई संबंध नहीं रहा था।
यहाँ पर यह बात समझ लेने की है कि इन पाँचों पुत्रों के द्वारा संपूर्ण भूमंडल का शासन सुचारु रूप से और सुव्यवस्थित ढंग से चलाया जा सके, इसलिए उनको अलग-अलग क्षेत्रों का लोकपाल मात्र नियुक्त किया गया था। वह अलग देश के शासक नहीं थे, अपितु ऐसे शासक थे जो जनहित में किसी भी प्रकार का कोई भी लोक कल्याणकारी निर्णय लेने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र थे। इस स्वतंत्रता का अभिप्राय यह नहीं था कि वह अपने केंद्र से लड़ाई झगड़ा करेंगे। विश्व सम्राट की परंपरा भारत की ओर से बनी रही और यह पाँचों अपने जीवन में और उनके पश्चात् उनके अनेकों वंशज आगे चलकर बहुत देर तक अपने केन्द्र से जुड़े रहे। पाँचों पुत्र और कालांतर में उनके वंशज अपने केंद्र को अर्थात् अपने चक्रवर्ती सम्राट को अपने लोक कल्याणकारी शासन की समस्त गतिविधियों व कार्यवाही आदि से वैसे ही अवगत कराते रहे जैसे एक आज्ञाकारी पुत्र अपने पिता को अपने समस्त कार्यों से समय- समय पर अवगत कराता रहता है।
ऐसे आरंभ हुई भारत में पंच परंपरा
भारत ने संपूर्ण भूमंडल पर कहीं पर भी औपनिवेशिक राज्य नहीं बसाए थे, अपितु भारत ने अपने परिवार का विस्तार कर अपने भौमंडलिक राज्य के भीतर परिवार की भावना का भी विस्तार किया। परिवार की यह भावना ही भारत की ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की पवित्र भावना है। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का यह परिवेश ही विश्व शांति का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है। भारत में जब भी कोई विशेष आयोजन होता था तो राजा ययाति के इन पाँचों पुत्रों को या उनके प्रतिनिधियों को उस आयोजन में उसी प्रकार बुलाया जाता था जैसे आज संयुक्त राष्ट्र में संपूर्ण भूमंडल के देशों के प्रतिनिधि उपस्थित होते हैं। इन पाँचों से ही हमारे देश में पंच परंपरा का श्रीगणेश हुआ जो आज तक बनी हुई है।
पंच परंपरा के अंतर्गत 5 लोगों को किसी भी समस्या के समाधान के लिए लोग नियुक्त करते हैं और समस्या का समाधान उनके निर्णय के अनुसार करा लिया जाता है। यह पंच परंपरा आज तक भी हमारे समाज में स्थापित है। यदि इसके मूल पर हम जाएँ तो ययाति के काल से यह परंपरा चली आ रही है। इसके पीछे बहुत सुंदर व शानदार इतिहास छुपा है, जिसे हमें समझने की आवश्यकता है।
यह नहीं समझना चाहिए कि इन पाँचों शासकों के जो जो क्षेत्र रहे वे कालांतर में स्वतंत्र देश बन गए। इसे इस प्रकार ही समझने की आवश्यकता है कि यह लोग अपने-अपने क्षेत्रों में जनहितकारी निर्णय लेते हुए जनता का पालन-पोषण पितृवत करते रहे और समय-समय पर उसकी सही जानकारी अपने केंद्र को देते रहे। संपूर्ण भूमंडल पर शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए और विश्व को एक अच्छी राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था देने के लिए यह व्यवस्था की गई थी।
ययाति के राज्य का क्षेत्र अफ़गानिस्तान के हिन्दूकुश से लेकर असम तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक था। इसके अतिरिक्त वह संपूर्ण भूमंडल के उन- उन क्षेत्रों पर भी अपने चक्रवर्ती साम्राज्य के माध्यम से शासन करते रहे जहाँ-जहाँ उनके काल तक मानव समाज का पदार्पण हो चुका था।
विद्वानों की मान्यता है कि महाभारत आदिपर्व 95 के अनुसार यदु और तुर्वसु मनु की 7वीं पीढ़ी में हुए थे (मनु-इला-पुरुरवा-आयु-नहुष-ययाति-यदु-तुर्वशु) । महाभारत आदिपर्व 75.15-16 में यह भी लिखा है कि नाभानेदिष्ठ मनु का पुत्र और इला का भाई था। नाभानेदिष्ठ के पिता मनु ने उसे ऋग्वेद दशम मंडल के सूक्त 61 और 62 का प्रचार करने के लिए कहा। 1. पुरु का वंश- महाभारत के शांतनु, भीष्म, अर्जुन और उनके पुत्र जनमेजय आदि की जिस परंपरा को हम जानते हैं, इतिहास का यह प्रसिद्ध वंश पुरु वंश के नाम से ही जाना जाता है, अर्थात् इनका पूर्वज पुरु था। इस वंश के प्रतापी शासकों में भरत और सुदास का नाम भी लिया जाता है। यह भरत वही है जिनके लिए भ्रांतिवश कई लोग यह भी स्थापित कर देते हैं कि इसी भरत के नाम से हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। यद्यपि यह इतिहास का सत्य नहीं है। यह भरत सार्वभौम सम्राट रहा था।
- यदु का वंश – यदु के चार पुत्र थे। जिनमें सहस्त्रजीत, क्रोष्टा, नल और रिपु का नाम उल्लेखनीय है। इसी कुल में आगे चलकर भगवान श्री कृष्णजी का जन्म हुआ। सहस्र के 3 पुत्र थे- महाहय, रेणुहय और हैहय।
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तुर्वसु का वंश – तुर्वसु के वंश में भोज (यवन) हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु का वह्नि यहि का भर्ग, भर्ग का भानुमान, भानुमान का त्रिभानु, त्रिभानु का उदारबुद्धि का, करंधम और करंधम का पुत्र मख्त हुआ। मरूत संतानहीन था इसलिए उसने पुरुवंशी दुष्यंत को अपना पुत्र बनाकर रखा था, परंतु दुष्यंत राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गए।
महाभारत के अनुसार ययाति पुत्र तुर्वसु के वंशज यवन थे। तत्कालीन मुस्लिम लेखक रशदुद्दीन का कहना है कि 13वीं शताब्दी तक यूनान का भारतीय नाम गांधार ही प्रचलित था। यूनानी लोगों को भारतीय लोग यवन कहते थे, अर्थात् तुर्वसु की संतान यवन कहलायी। बाद में उन्होंने भारत के ऊपर आक्रमण करके भारत से ऐसा व्यवहार किया जैसे वह भारत के जन्मजात शत्रु हों। भारत पर पहला विदेशी आक्रमण करने वाला सिकंदर यूनान का ही रहने वाला था।
सिकंदर के बारे में कहा जाता है कि उसने ईरान, सीरिया, मिस्र, मेसोपोटामिया, फिनिशिया, जुदेआ, गाझा, बैक्ट्रिया और भारत के पंजाब को विजय किया था। वास्तव में उसके बारे में यह कहा जाना कि उसने इन प्रांतों या देशों को विजय किया था, बहुत ही गलत है। वास्तव में उसने इन प्रांतों को लूटा था और लूटधर्म को राजधर्म नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार उसे एक महान् शासक या महान् विजेता कहा जाना गलत होगा। इतिहास की भाषा में उसे लुटेरा कहा जाना ही उचित है। उसकी लूट से उपरोक्त देशों में भारतीय संस्कृति का पतन हुआ। इस तथ्य को भी स्थापित करने की आवश्यकता है। इतिहास जब तक अपनी स्वयं की भाषा में नहीं बोलेगा, तब तक वह उन तथ्यों को नहीं बता पाएगा जो उसे बताने चाहिए। ईरान, सीरिया, मिस्त्र, मेसोपोटामिया आदि उपरोक्त वर्णित देशों में यदि भारतीय संस्कृति का पतन हुआ तो उसमें यूनान के सिकंदर का विशेष योगदान रहा।
कभी यवन लोग क्षत्रिय हुआ करते थे, परंतु बाद में इन्होंने अपना क्षत्रिय कर्म छोड़ दिया और सिकंदर जैसे लुटेरे बनकर भारत सहित विश्व के अन्य देशों को लूटने के लिए चल दिए। जिससे इनकी गिनती शूद्रों में होने लगी। इसीलिए भारत के लोगों ने इन्हें हेयदृष्टि से देखना आरंभ किया। भारत की यह परंपरा रही है कि जब किसी वर्ण का कोई भी व्यक्ति अपने वर्ण के धर्म को छोड़कर पाप कर्म या नीच कर्म करने लगता है तो उसे लोग हेयदृष्टि से देखने लगते हैं और उसे सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर देते हैं। यह परंपरा भारत में आज भी देखी जा सकती है। ऐसा ही भारत के लोगों ने यवन लोगों के साथ किया।
महाभारत का युद्ध और यवन
भारतीय समाज की मुख्यधारा में रहने वाले भले लोगों का प्रतिनिधित्व महाभारत के युद्ध में धर्मराज युधिष्ठिर ने किया था। जबकि दुष्ट, अनाचारी, पापाचारी लोगों का प्रतिनिधित्व दुर्योधन कर रहा था। भारतीय समाज के धर्मप्रेमी लोगों से उपेक्षित होने के कारण प्राचीन भारत के इतिहास के विद्वान् लेखकों का यह भी मानना है कि महाभारत के युद्ध में यह यवन लोग कौरवों का साथ दे रहे थे। इस प्रकार यवन लोग महाभारत के समय में भी उपस्थित थे। उन्होंने उस समय कौरवों का साथ दिया तो इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि भारत की मुख्यधारा से उनका महाभारत युद्ध से पूर्व ही विरोध हो गया था जिसे वह अगले हजारों वर्ष तक भी भूले नहीं।
मूल रूप में भारतीयों की वंश परंपरा से होते हुए भी यवनों के भीतर भारतवासियों के प्रति बने इस वैर-भाव के कारण ही इन्हें भारत के लोग हेयदृष्टि से देखने लगे।
यह मानव स्वभाव का एक सामान्य सा लक्षण है कि जिनसे हमारी वैचारिक दूरी बन जाती है उन्हें हम उपेक्षा भाव से देखने लगते हैं और जिनसे हमारा वैचारिक समन्वय स्थापित हो जाता है, वह चाहे हमसे कितनी ही दूर के क्यों न हों, उन्हें हम अपने निकट का अनुभव करने लगते हैं। जिन परिवारों में देर तक घृणा बनी रहती है, उनमें सगे भाइयों में भी ऐसी दूरियाँ बन जाती हैं जैसे वह बहुत दूर के हों और एक-दूसरे को जानते भी न हों। यदि यवन लोग अपने भारतवंशी भाइयों के साथ मिलकर रहते और दुर्योधन जैसे अनाचारी व्यक्ति का साथ न देकर युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा लोगों का साथ देकर चलते तो यवनों और भारतीयों के मध्य सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता। जिससे आत्मीय भाव विकसित होता और दोनों एक-दूसरे के पूरक बने रहते। हमारे गौरवपूर्ण इतिहास का यह भी एक तथ्य है कि दिग्विजय के समय नकुल और सहदेव ने यवनों को पराजित किया था।
4. अनु का वंश – कतिपय इतिहासकारों की मान्यता है कि अनु के वंशजों का कबीला रावी नदी के क्षेत्र में निवास करता रहा था। आगे चलकर सौवीर, कैकेय इन्हीं आनवों अर्थात् अनु पुत्रों से उत्पन्न हुए थे। इतिहास में जिस कबीलाई संस्कृति का उल्लेख अक्सर इतिहासकार करते रहते हैं वह कबीलाई संस्कृति विदेशियों की देन है। इस कबीलाई संस्कृति की विशेषता ये है कि इसमें सारे कबीले एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहने वाले और एक-दूसरे के रक्त के प्यासे बने रहते हैं। जबकि भारत की गोत्र परंपरा इस बात की समर्थक नहीं है। वह सबको साथ लेकर चलने और सबको एक ही मूल से जोड़कर देखने में विश्वास रखती है। कहने का अभिप्राय है कि कबीलाई संस्कृति मानव माला के मोतियों को बिखेर देती है, माला को तोड़ देती है। जबकि भारत की गोत्रीय परंपरा सारे गोत्रों को एक ही माला का मोती बनाकर एक सुंदर माला तैयार करती है। सबको एक में समाविष्ट करती है। इसलिए भारत की गोत्र परंपरा जब तक विश्व का मार्गदर्शन करती रही, तब तक कहीं पर भी लड़ाई झगड़े की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई। विश्व की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से संचालित होती रही और विश्व शांति भी बनी रही।
जब वैदिक धर्म के मूल स्रोत और उसकी नैतिक व्यवस्था से विश्व के लोगों का संपर्क या तो शिथिल हो गया या टूट गया तब कहीं-कहीं कुछ लोगों ने वर्तमान की उस कबीलाई संस्कृति का परिचय देना आरंभ किया जो उन्हें लडने-झगडने के लिए प्रेरित करने लगी। भारत की मान्यता है कि जो लड़ने-झगड़ने के लिए प्रेरित करे, वह संस्कृति नहीं अपसंस्कृति होती है। संस्कृति वही होती है जो परस्पर मानवमात्र में ही नहीं अपितु प्राणीमात्र में भी सद्भाव, करुणा, दया आदि का विकास व संचार करने में सहायक हो और सभी को एक ही माला के मोती बनाकर प्रस्तुत करने की क्षमता और सामर्थ्य रखती हो। कबीला दानवतावाद का प्रतीक है, उसकी अपसंस्कृति मानवता का विनाश करती है जबकि भारत की गोत्रीय परंपरा मानवतावाद में विश्वास रखती थी।
भारत में आज भी एक गोत्र के लोग सामान्यतः एक ही क्षेत्र विशेष में बसे हुए दिखाई देते हैं। किसी के 10 गाँव, किसी के 50 गाँव तो किसी के 100 गाँव एक ही क्षेत्र में बसे हुए पाए जाते हैं। विदेशों में ऐसे समान गोत्रीय लोगों को कबीला कहने की परंपरा चली, जबकि भारत में आज भी इन्हें एक ही गोत्र की ‘पाल’ के नाम से देखा जाता है। इस पाल शब्द से ही चौपाल शब्द बना है। अनु के पुत्र सभानर से कालानल, कालानल से सृन्जय, सृन्जय से पुरन्जय, पुरन्जय से जन्मेजय, जन्मेजय से महाशाल, महाशाल से महामना का जन्म हुआ। महामना के 2 पुत्र उशीनर और तितिक्षु हुए। उशीनर के 5 पुत्र हुए- नृग, कृमि, नव,सुव्रत, शिवि (औशीनर)। इसमें से शिवि के 4 पुत्र हुए केकय, मद्रक, सुवीर और वृषार्दक। महाभारत काल में इन चारों के नाम पर 4 जनपद थे।
- दुह्यु का वंश – अब से लाखों वर्ष पूर्व दृह्युओं के वंश में राजा गांधार का जन्म होता है। यह गांधार ही गांधार प्रांत के जनक हुए। जो कालांतर में अफगानिस्तान के नाम से जाना गया। राजा गांधार के बारे में विद्वानों का मानना है कि यह आर्यावर्त के मध्य में शासन करते थे। बाद में इनके वंशजों को इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न हुए राजा मंधातरी ने अफगानिस्तान से मध्य एशिया की ओर खदेड़ दिया था। पुराणों में हुक्षु राजा प्रचेतस के बाद दुह्युओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता। प्रचेतस के बारे में लिखा है कि उनके 100 बेटे अफगानिस्तान से उत्तर में जाकर बस गए और ‘म्लेच्छ’ कहलाए।
ययाति के पुत्र हुद्ध से बधू का जन्म हुआ। बधू का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गांधार, गांधार का धर्म, धर्म का घृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेत्ता के 100 पुत्र हुए। ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों के राजा हुए।
यदु और तुर्वसु को दास कहा जाता था। यदु और तुर्वसु के विषय में ऐसा माना जाता था कि इन्द्र उन्हें बाद में लाए थे। सरस्वती, दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले के लोग बसते थे। सबसे महत्त्वपूर्ण कबीला भरत का था। इसके
शासक वर्ग का नाम त्रित्सु था। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे संबद्ध थे। तुर्वसु और गुह्यु से ही यवन और म्लेच्छों का वंश चला। इस प्रकार अब इतिहासकारों का यह स्पष्ट मानना है कि ब्रह्मा के एक पुत्र अत्रि के वंशजों ने ही यहुदी, यवनी और पारसी धर्म की स्थापना की थी। इन्हीं में से ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ। माना जाता है कि यहुदियों के जो 12 कबीले थे, उनका संबंध दृह्यु से ही था, यद्यपि इतिहासकार इस विषय में यह भी कहते हैं कि अभी यह शोध का विषय है।
जब तक भारत अपने तेजस्वी ज्ञान-विज्ञान और राष्ट्रवाद से विश्व के लोगों को प्रेरित और सिंचित करता रहा, तब तक संपूर्ण मानव समाज अपने एक ही तेजोमयी ऊर्जा केंद्र से ऊर्जान्वित और संचालित होता रहा। कालांतर में जब भारत स्वयं पतन के गर्त में जा गिरा अर्थात् इसका ज्ञान-विज्ञान कुंठित, बाधित और अवरुद्ध होकर विश्व के कोने-कोने में फैलना बंद हो गया तो तेजोमयी ज्ञान-विज्ञान के इस ऊर्जा केंद्र से विश्व के लोगों का संपर्क कटना आरंभ हो गया।
इसी काल में संसार में यत्र तत्र नए-नए मजहब या संप्रदाय आदि जन्म लेने लगे। इन्हीं संप्रदायों या मजहबों ने लोगों का मजहबीकरण करना आरंभ किया और उन्हें ज्ञान-विज्ञान की ऐसी नई-नई परिभाषाएँ सिखाईं और बताईं कि उनका अपने मूल से संपर्क कट गया। अफगानिस्तान में भी जब यह मजहबी अन्धे विदेशी आक्रांताओं के रूप में प्रविष्ट हुआ तो वह भी अपने मूल से कट गया। यह सब कैसे हुआ ? इस पर हम अगले अध्यायों में यथास्थान प्रकाश डालेंगे।
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।
मुख्य संपादक, उगता भारत