भारत के प्राचीन काल में सिंध प्रांत को भारत का प्रवेश द्वार कहा जाता था क्योंकि सिंध प्रांत को पार करते हुए ही भारत में दिल्ली तथा अन्य राज्यों तक पहुंचा जा सकता था। सिंध का कराची बंदरगाह भारत के प्रमुख व्यापारिक केंद्रों में से एक था क्योंकि कराची बंदरगाह के माध्यम से भारत से कृषि पदार्थों आदि का निर्यात किया जाता था। सिंध के निवासी कई कई महीनों तक लगातार जलयान एवं नौकाओं के माध्यम से भ्रमण करते हुए अन्य देशों के साथ विदेशी व्यापार करते थे। सिंध प्रांत की बहिने अपने भाईयों, पिता एवं पति को बिदा करने समुद्र (दरयाह शाह) के किनारे आती थी और अपने सम्बंधियों के कुशलता पूर्वक विदेश से वापिस आने की जल देवता को प्रार्थना करती थीं। कुल मिलाकर सिंध प्रांत उस खंडकाल में अति विकसित अवस्था में गिना जाने वाला राज्य था। परंतु, 700 ईसवी आते आते शायद सिंध प्रांत को जैसे किसी की नजर लग गई और सिंध में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध प्रांत के राजा श्री दाहिर सेन को 712 ईसवी में विश्वासघात करके युद्ध में मार दिया। इस प्रकार, श्री दहिर सेन जी सिंध प्रांत के अंतिम हिंदू शासक सिद्ध हुए।
712 ईसवी के बाद अल हिलाज के खलीफा ने सिंध प्रांत को अपने राज्य में शामिल कर लिया और सिंध प्रांत पर खलीफा के प्रतिनिधियों द्वारा शासन किया जाने लगा। इसके बाद तो सिंध के सनातनी हिंदूओं पर जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा क्योंकि इस्लामिक आक्रमणकारियों द्वारा पूरे क्षेत्र में तलवार की नोंक पर हिंदुओं का धर्मांतरण कराया जाने लगा और इस्लाम को इस क्षेत्र में फैलाया जाने गया।
उस खंडकाल में सिंध राज्य की राजधानी थट्टा नामक नगर थी। इस नगर की अपनी एक अलग पहचान और अपना एक अलग प्रभाव था। इस क्षेत्र का शासक मिरखशाह न केवल अत्याचारी और दुराचारी था बल्कि एक कट्टर इस्लामिक आक्रमणकारी राजा था। मिरखशाह ने इस क्षेत्र में इस्लाम को फैलाने के लिए अनेक आक्रमण किए एवं नरसंहार किया। मिरखशाह के सलाहकारों और मित्रों ने उसे सलाह दी कि इस क्षेत्र में जितना अधिक इस्लाम को फैलाओगे उतने अधिक समय के लिए आपको मौत के बाद जन्नत अथवा सर्वोच्च आनंद की प्राप्ति होगी। सलाहकारों की इस सलाह के बाद मिरखशाह ने हिंदुओं के “पंच प्रतिनिधियों” को अपने पास बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि आप सभी हिंदू लोग इस्लाम ग्रहण कर लो अथवा मरने के लिए तैयार हो जाओ। हिंदुओं के पंच प्रतिनिधियों ने मिरखशाह की इस सलाह पर विचार करने के लिए कुछ समय मांगा और मिरखशाह ने उन्हें 40 दिन का समय दे दिया।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि जब मनुष्य के लिए सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं तो वह प्रभु परमात्मा की शरण में जाने लगता है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ और अपने सामने मौत और धर्म पर संकट को देखते हुए सिंधी हिंदुओं ने जल के देवता वरुण देव की ओर रूख किया। चालीस दिनों तक हिंदुओं ने तपस्या की। इस बीच न तो उन्होंने अपने बाल कटवाए और ना ही कपड़े बदले और ना ही भोजन किया। इन 40 दिनों तक कठिन उपवास करते हुए केवल ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना कर प्रभु परमात्मा से रक्षा की उम्मीद लिए नदी के किनारे बैठे रहे। 40वें दिन स्वर्ग से एक आवाज आई, जिसमें कहा गया कि “आप लोग डरो मत, मैं तुम्हें आक्रांताओं की बुरी नजर से बचाऊंगा। मैं एक नश्वर के रूप में इस पृथ्वी पर आऊंगा और माता देवकी के गर्भ से इस धरा पर जन्म लूंगा। यह सुनकर सिंधी समाज के सनातनी हिंदुओं ने मिरख शाह से जाकर अपने ईश्वर के आने तक रुकने की प्रार्थना की। जिसके बाद मिरख शाह ने इसे अपने अहंकार के रूप में देखा और “भगवान” से भी लड़ने की चाह में उसने हिंदुओं को कुछ दिन का और समय दे दिया।
तीन माह बाद आसू माह (आषाढ़) के दूसरे तिथि में माता देवकी ने गर्भ में शिशु होने की पुष्टि की। इसके बाद पूरे हिन्दू समाज ने जल देवता की प्रार्थना कर अभिवादन किया। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन आकाश से बेमौसम मूसलाधार बारिश हुई और माता देवकी ने एक चमत्कारी शिशु को जन्म दिया। भगवान झूलेलाल के जन्म लेते ही उनके मुख को जब खोला गया तो उसमें सिंदु नदी के बहने का दृश्य दिखाई दिया। पूरे हिंदू समुदाय द्वारा बच्चे के जन्म लेते ही गीतों और नृत्यों के साथ उसका स्वागत किया गया। झूलेलाल जी का नाम बचपन में उदयचंद रखा गया। उदयचंद को उडेरोलाल भी कहा जाने लगा। नसरपुर के लोगो प्यार से झूलेलाल को अमरलाल भी कहते थे। जिस पालने में झूलेलाल रहते थे वह अपने आप ही झूलने लगता था, जिसके बाद ही उन्हें झूलेलाल कहा जाने लगा और इसी नाम से वे लोकप्रिय हो गए।
इधर काफी समय बीत जाने के बाद मिरखशाह के ऊपर मौलवियों द्वारा एक बार पुनः हिंदुओं को इस्लाम में लाने हेतु दबाव डाला जाने लगा तो मिरख शाह ने काफिरों (सनातनी हिंदुओं) को इस्लाम धर्म अपनाने का आदेश दे दिया। साथ ही, मौलवियों की बात और अपने इस्लामिक अहंकार में मिरखशाह ने उडेरोलाल से खुद मिलने का फैसला किया। मिरखशाह ने अहिरियो नामक व्यक्ति को उडेरोलाल से मिलने की व्यवस्था करने को कहा। अहिरियो, जो स्वयं इस बीच जलदेवता का भक्त बन चुका था, सिंधु नदी के तट पर गया और जल देवता से अपने बचाव में विनती करने लगा। पहिले, अहीरियो ने एक बूढ़े आदमी को सफेद दाढ़ी में देखा, जो एक मछली पर तैर रहा था। अहिरियो का सिर आराधना में झुका और उन्होंने समझा कि जल देवता उडेरोलाल ही है। फिर, कुछ पल में ही अहिरियो ने एक घोड़े पर उडेरोलाल को छलांग लगाते हुए देखा और और उडेरोलाल एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में एक झंडा लिए हुए निकल गए।
अहिरियो, मिरखशाह को जब उडेरोलाल के सामने लाया तो भगवान झूलेलाल (उडेरोलाल) ने उन्हें ईश्वर का मतलब समझाया। लेकिन कट्टरपंथी मौलवियों की बातें और इस्लामिक कट्टरपंथ लिए बैठे मिरखशाह ने उन सभी बातों को अनदेखा कर अपने सैनिकों से भगवान झूलेलाल को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। जैसे ही, सैनिक आगे बढ़े वैसे ही पानी की बड़ी बड़ी लहरें आंगन को चीरती हुई आगे आ गई। आग ने पूरे महल को घेर लिया और सब कुछ जलना शुरू हो गया। वहां से भागने के सभी मार्ग बंद हो गए। उडेरोलाल (भगवान झूलेलाल) ने फिर कहा कि जब तुम्हारे और मेरे भगवान एक हैं तो फिर सनातनी हिंदुओं को तुम क्यों परेशान कर रहे हो? मिरखशाह यह सब देखकर घबरा गया और उसने भगवान झूलेलाल से विनती की कि मेरे भगवान, मुझे अपनी मूर्खता का एहसास हो गया है अतः आप कृपया मुझे और मेरे दरबारियों को बचा लीजिए। इसके बाद वहां पानी की बौछार आई और आग बुझ गई। मिरखशाह ने सम्मानपूर्वक भगवान झूलेलाल को नमन किया और हिंदुओं और मुसलमानों के साथ एक जैसा व्यवहार करने के लिए सहमत हुआ।
इसके बाद उडेरोलाल ने वहां उपस्थित सनातनी हिंदुओं से कहा कि वे उन्हें प्रकाश और पानी का अवतार समझें। उन्होंने एक मंदिर बनाने का आदेश देते हुए कहा कि इस मंदिर में हमेशा प्रकाश की लौ जलती रहनी चाहिए एवं पवित्र घूंट के लिए पानी उपलब्ध रहना चाहिए। यहीं उडेरोलाल ने अपने चचेरे भाई पगड़ को मंदिर का पहला ठाकुर (पुजारी) नियुक्त किया। भगवान झूलेलाल ने पगड़ को सात सिंबॉलिक वस्तुएं भी प्रदान कीं। इस प्रकार भगवान झूलेलाल ने पगड़ को मंदिरों के निर्माण और पवित्र कार्य को जारी रखने का भी संदेश दिया। साथ ही, यह भी कहा कि विकृत धर्माधता, घृणा, ऊंच-नीच और छुआछूत की दीवारे तोड़ो और अपने हृदय में मेल-मिलाप, एकता, सहिष्णुता, भाईचारा और धर्म निरपेक्षता के दीप जलाओ। यह सारी सृष्टि एक है और हम सब एक परिवार हैं और सब जगह खुशहाली हो।
भगवान झूलेलाल ने अपने चमत्कारिक जन्म और जीवन से ना सिर्फ सिंधी हिंदुओं के जान की रक्षा की बल्कि हिन्दू धर्म को भी बचाये रखा। मिरखशाह जैसे ना जाने कितने इस्लामिक कट्टरपंथी आये और धर्मांतरण का खूनी खेल खेला लेकिन भगवान झूलेलाल की वजह से सिंध में एक दौर में यह नहीं हो पाया। भगवान झूलेलाल आज भी सिंधी समाज के एकजुटता, ताकत और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र हैं। सिंधी समुदाय को भगवान राम के वंशज के रूप में माना जाता है। महाभारत काल में जिस राजा जयद्रथ का उल्लेख है वो सिंधी समुदाय का था। सिंधी समुदाय चेटीचंड पर्व से ही नववर्ष प्रारम्भ करता है। चेटीचंड के अवसर पर सिंधी भाई अपार श्रद्धा के साथ झूलेलाल की शोभायात्रा निकालते हैं। इस दिन सूखोसेसी प्रसाद वितरित करते हैं। चेटीचंड के दिन सिंधी स्त्री-पुरुष तालाब या नदी के किनारे दीपक जला कर जल देवता की पूजा-अर्चना करते हैं।
आज भी सिंधी समाज पूरे विश्व में भगवान झूलेलाल जयंती बड़े उत्साह और जोश के साथ मनाता है। हिंदू पञ्चाङ्ग के अनुसार झूलेलाल जयंती चैत्र मास की द्वितीया तिथि को मनाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि झूलेलाल जी भगवान वरुणदेव के अवतार है। भगवान झूलेलाल की जयंती को सिंधी समाज चेटीचंड के रूप में मनाता है, जिसे सिंधी नववर्ष के रूप में भी मनाया जाता है। चेटी-चंड हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र नवरात्र के दूसरे दिन अर्थात चैत्र शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। सिंधी समाज में मान्यता है कि जल से ही सभी सुखों और मंगलकामना की प्राप्ति होती है इसलिए इसका विशेष महत्व है।
प्रहलाद सबनानी