मनु के शूद्र संबंधी विचार
अध्याय 4
मनु की दृष्टि में वास्तव में शूद्र वह है जो अपने आप को उन्नत करने के लिए , अपना आत्मिक विकास करने के लिए सक्रिय और सचेष्ट नहीं कर पाता और शास्त्रगत धर्म का पालन न कर अपने आप को सांसारिक विषय वासनाओं की आंधी में फंसाकर सर्वथा वेद विरुद्ध कार्यों में लगा रहता है ।
मनुस्मृति के दूसरे अध्याय के 103 वें श्लोक में मनु स्पष्ट करते हैं कि जो मनुष्य नित्य प्रात: और सायं संध्या उपासना नहीं करता , उसको शूद्र के समान समझकर द्विज कुल से अलग करके शूद्र कुल में रख देना चाहिए।
मनु की इस व्यवस्था पर जिन लोगों को आपत्ति है , वे वही लोग हैं जो मनु से इतना अधिक विरोध नहीं रखते जितना वह मनु की इस कठोर व्यवस्था से आपत्ति रखते हैं कि जो व्यक्ति संध्या नहीं करता , उसे द्विज कुल से निकाल कर शूद्र कुल में रख दो । आजकल ऐसे लोगों की अधिकता हो गई है जो ईश्वर का नाम लेने के लिए समय ही नहीं निकालते । अतः ऐसे लोगों को तो मनु की इस व्यवस्था से आपत्ति होनी ही है।
2/ 172 : जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है ।
इस व्यवस्था का अभिप्राय है कि मनुष्य को मनुष्यत्व की प्राप्ति कराना वैदिक शिक्षा का मूल उद्देश्य है । जो व्यक्ति मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी मनुष्यत्व को प्राप्त करने से वंचित रह जाता है या उससे बचने का प्रयास करता है तो समझो कि वह अपने आप को शूद्र भाव में रखने में ही अपना भला देखता है।
4/245 में व्यवस्था दी गई है कि ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ – अति श्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है । इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है ।
कहा भी जाता है कि संगत की रंगत चढ़ना अनिवार्य होता है । यदि श्रेष्ठ लोगों की संगति की जाएगी तो हमारे ऊपर भी उनकी श्रेष्ठता का प्रभाव पड़ना निश्चित है । इसलिए संसार में आकर श्रेष्ठ पुरुषों की संगति करने में ही जीवन का कल्याण है । इसी व्यवस्था पर बल देते हुए महर्षि मनु यह व्यवस्था करते हैं कि हम यदि श्रेष्ठ लोगों की संगति नहीं करेंगे तो अपने द्विज भाव को समाप्त कर नीच लोगों की संगति में जाकर उनको प्राप्त करने से शूद्रभावों को प्राप्त कर लेंगे ।
मनुस्मृति 2/168 में व्यवस्था दी गई है कि जो ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य वेद को न पढ़कर अन्य शास्त्रों में श्रम करता है , वह जीवित रहते हुए ही अपने वंश के सहित शूद्रपन को प्राप्त हो जाता है ।
महर्षि दयानंद ‘सत्यार्थ प्रकाश ‘ के 50 वें पृष्ठ पर इसके बारे में लिखते हैं कि — जो वेद को न पढ़कर अन्यत्र श्रम किया करता है , वह अपने पुत्र पौत्र सहित शूद्रभाव को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ।
आज समाज और संसार में जितना भी जातिवाद , संप्रदायवाद , प्रांतवाद आदि फैला हुआ है , उस सबके पीछे ऐसे – ऐसे जातिवादी या सांप्रदायिक ग्रंथों का आ जाना है जो हमें सार्वभौम सोच का या वैश्विक चिंतन का स्वामी बनने ही नहीं देते । यह हमको संकीर्णताओं की चारदीवारियों में कैद करते हैं । उसी का परिणाम है कि आज मनुष्य मनुष्य होकर भी समग्रता में नहीं सोचता , अपितु वह संकीर्णताओं में सोचने के लिए बाध्य हो गया है।
2/ 126 : जो द्विज अभिवादन करने के उत्तर में अभिवादन करना नहीं जानता अर्थात नहीं करता , बुद्धिमान मनुष्य को उसे नमस्कार नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह शूद्र के समान है ।
इस श्लोक में महर्षि मनु ने यह स्पष्ट किया है कि यदि द्विज होकर अभिवादन करने में भी किसी को अभिमान होता है तो समझिए कि वह द्विज होकर भी अभी शूद्र ही है । पढ़ लिखकर व्यक्ति को अहंकारशून्य हो जाना चाहिए । क्योंकि विद्या विनम्रता प्रदान करती है । यदि विद्यावान होकर भी व्यक्ति अभिमानी रहा और किसी के अभिवादन का प्रत्युत्तर देना भी उसे नहीं आया तो समझिए कि उसकी विद्या तो व्यर्थ गई ही साथ ही वह अभी भी शूद्र ही है ।
शूद्रों को भी है पढ़ाने का अधिकार
ज्ञान शूद्रों के पास भी होता है । जिसके आधार पर वह अपनी आजीविका चलाते हैं ,और उनके उस ज्ञान को उनसे प्राप्त करने के लिए उनके पास भी व्यक्ति को शिष्य भाव से जाना चाहिए। शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए ।
2/ 238 : हमारे गांव देहात में मनु की व्यवस्था आज भी चलती है कि अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।
संस्कार विधि में कहा गया है कि उत्तम विद्या प्राप्ति की श्रद्धा करता हुआ पुरुष अपने से न्यून से भी विद्या पावे तो ग्रहण करे । नीच जाति से भी उत्तम धर्म का ग्रहण करें और निन्द्यकुल से भी स्त्रियों में उत्तम स्त्री का ग्रहण करे ,यह नीति है।
इसका अभिप्राय है कि विद्या किसी से भी ग्रहण की जा सकती है। उसे प्रदान करने का अधिकार शूद्र को भी है। दूसरी बात यह भी है कि हमें श्रेष्ठत्व की प्राप्ति करनी है , इसके लिए हमें किसी का कुल जाति या वंश नहीं देखना है । हमें सार सार को ग्रहण करना है और थोथे को उड़ा देना है । यह सार हमें जिससे भी मिलता हो , उसी से ले लेना चाहिए , परंतु यहां पर यह मर्यादा भी है कि जिससे लिया जाए उसके प्रति हम कृतज्ञ अवश्य रहें , अर्थात शिष्य भाव से ही ग्रहण करें।
महर्षि दयानंद कहते हैं कि ब्राह्मण तीनों वर्ण ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य ; क्षत्रिय क्षत्रिय और वैश्य तथा वैश्य एक वैश्य वर्ण को यज्ञोपवीत कराकर पढ़ा सकता है , और जो कुलीन शुभलक्षणयुक्त शूद्र हो तो उसको मंत्र संहिता छोड़कर सब शास्त्र पढ़ावे । शूद्र पढ़े परंतु उसका उपनयन ना करे । यह मत अनेक आचार्यों का है। ( सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास )
उपनयन और मंत्र संहिताओं का निषेध यह इसलिए है कि वह निश्चित समय पर इस संस्कार का अधिकार खो बैठता है , इसी कारण वह शूद्र कहलाता है , किंतु पढ़ना उसको भी चाहिए।
2/ 241 : आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे । मनुस्मृति 2/242 में व्यवस्था की गई है कि उत्तम गति चाहने वाले शिष्य को चाहिए कि वह अब्राह्मण गुरु के यहां और वेदों में अपारंगत — सांगोपांग वेदों के अध्यापन में असमर्थ ब्राह्मण गुरु के समीप भी आजीवन निवास ना करें । क्योंकि इनके पास शिष्य की प्रगति रुक जाती है ।सांगोपांग वेदों के ज्ञाता विद्वान के पास रहकर ही उन्नति की उत्तम गति तक पहुंचा जा सकता है।
ब्राह्मणत्व का आधार कर्म :
मनु जन्म से प्रत्येक व्यक्ति को शूद्र ही उत्पन्न हुआ मानते हैं । प्रकृति के नियमों का यदि सूक्ष्मता से अवलोकन किया जाए तो मनु की यह बात सृष्टि नियमों के अनुकूल लगती है । सच यही है कि हर व्यक्ति को मरने के बाद जब दोबारा जन्म लेना पड़ता है तो उसे फिर से शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है । यदि जन्म से ही सब विद्वान होते तो ऐसी व्यवस्था भी मनुष्य अपने लिए कर लेते कि अगले जन्म में जाकर पढ़ना ही ना पड़े , परंतु ऐसा होता नहीं । विद्वान से विद्वान व्यक्ति भी जब संसार से जाकर पुनर्जन्म लेता है तो उसे भी इस संसार में आकर फिर से शिक्षा ग्रहण करनी ही पड़ती है । जब वह शिक्षा ग्रहण कर रहा होता है , तब उसके माता-पिता और आचार्य को उसके गुण ,कर्म ,स्वभाव का अध्ययन करते हुए उसकी रूचि को भी समझना चाहिए । जिससे कि उसके वर्ण का चयन किया जा सके ।
अक्सर ऐसा देखा जाता है कि एक चिकित्सक अपने बच्चे को चिकित्सक ही बनाना चाहता है , जबकि एक अधिवक्ता अपने बच्चे को अधिवक्ता बनाना चाहता है। यद्यपि उनके बच्चों का रुझान किसी दूसरे या तीसरे क्षेत्र में होता है । जहां पर बच्चे की अपनी रुचि का ध्यान न रखकर अभिभावक उसे अपने अनुकूल ढालने का प्रयास करते हैं , वहां पर विरोध एवम विद्रोह की संभावनाएं आ खड़ी होती हैं और इससे बच्चे के भविष्य पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। विद्वानों का मानना है कि कई ब्राह्मण माता – पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है । ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों ।
मनु के चिंतन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ब्राह्मणत्व का आधार कर्म है । यदि कर्म में पवित्रता नहीं है , उच्चता और महानता नहीं है , या व्यक्ति की चित्ति ,उक्ति और कृति में साम्यता नहीं है , अर्थात मनसावाचाकर्मणा मनुष्य समभाव नहीं बरतता है तो समझिए कि ऐसा व्यक्ति चाहे कितना ही विद्वान क्यों न हो , वह वास्तव में विद्वान नहीं होता । विद्वता या ब्राह्मणपन इसी में है कि व्यक्ति की चित्ति , उक्ति और कृति में साम्यता हो , वह मनसावाचाकर्मणा महान हो । जिस व्यक्ति के मनसावाचाकर्मणा साम्यता और महानता व्याप्त हो जाती है , वह मनुष्यमात्र के प्रति ही नहीं प्राणिमात्र के प्रति मित्रभाव रखने वाला होता है । उसके भीतर ऊंचनीच , छुआछूत एवं जातपात का भेदभाव नहीं होता । वह मनुष्य को मनुष्य समझकर और ईश्वर की सबसे सुंदर कृति मानकर उसका सम्मान करता है और न केवल मनुष्य का सम्मान करता है , अपितु संसार के प्रत्येक प्राणी में अपने जैसी ही दिव्यात्मा होने के कारण उनका भी सम्मान करता है । उसे कंकर कंकर में शंकर , रोम रोम में राम और कण कण में ओ३म की ध्वनि गुंजायमान होती दिखाई देती है।
2/157 : में व्यवस्था करते हुए मनु महाराज कहते हैं कि जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है । महर्षि मनु की इस व्यवस्था से भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी कुल विशेष में जन्म ले लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता । ब्राह्मण बनने के लिए उसे पूरी एक प्रक्रिया से गुजरना होता है , और जब वह उस प्रक्रिया में उत्तीर्ण हो जाता है , तभी वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी होता है।
2 / 28 इस श्लोक में भी महर्षि मनु बहुत पते की बात कहते हैं । वह व्यवस्था देते हैं कि पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है । कहने का अभिप्राय है कि जिस मनुष्य के भीतर इतने दिव्य गुण आ जाते हैं , वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी होता है । इन गुणों से हीन व्यक्ति ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हो कर भी ब्राह्मण नहीं हो सकता। अतः यही वह प्रक्रिया या परीक्षा प्रणाली है जिसे प्रत्येक ब्राह्मण को अपने आपको ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए उत्तीर्ण करना ही पड़ता है।
इस प्रकार महर्षि मनु जितने शूद्र के प्रति कठोर दिखाई देते हैं , उससे कहीं अधिक वह ब्राह्मण के प्रति कठोर हैं। ब्राह्मण के प्रति तो वह कदम कदम पर मानो हाथ में डंडा लिए खड़े हैं कि यदि थोड़ा सा भी कहीं फिसल गया तो तुझे मैं प्रतियोगिता के मैदान से ही बार कर दूंगा। इतनी न्यायपूर्ण और निष्पक्ष भूमिका निभाने के उपरांत भी यदि महर्षि मनु को शूद्र विरोधी और ब्राह्मण समर्थक कहा जाता है तो यह उनके साथ घोर अन्याय ही है।